पूँजी की सेवा में विज्ञान
प्रशान्त
आज से करीब 1 लाख वर्षों पूर्व आधुनिक मानव जाति अर्थात होमोसेपियंस (Homosapiens) का जन्म उस समय के उन्नत नरवानर (Ape-man) से हुआ और उसके बाद ही मानव समाज अस्तित्व में आया। इसी के साथ इन्सान ने अपनी व अपने समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए श्रम करना शुरू किया। श्रम की शुरुआत जंगली जानवरों से अपनी रक्षा करने व भोजन के लिए जानवरों का शिकार करने से हुई। नरवानर से नर बनने की प्रक्रिया में मानव ने प्राकृतिक वस्तुओं को अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ढालना शुरू किया और इस प्रकार इन्सानों ने पहली बार जीवित रहने के लिए आवश्यक फौरी शर्तों की पूर्ति के लिए प्रकृति को समझना, उस पर नियंत्रण स्थापित करना व प्राकृतिक शक्तियों से आज़ाद होने की शुरुआत की। श्रम की लम्बी प्रक्रिया में इन्सान ने शिकार करने के पत्थर के सामान्य औजारों से आगे बढ़कर तीर–धनुष जैसे थोड़े जटिल औजारों को बनाना व इस्तेमाल करना सीखा, फिर आग की खोज की व उसका उपयोग करना सीखा, पहिए का आविष्कार किया, कृषि करना शुरू किया तथा पशु–पालन व पशुओं से काम करना शुरू किया। इस प्रकार मानव द्वारा पीढ़ी–दर–पीढ़ी अपने अस्तित्व को बनाए रखने व विकास करने की प्रक्रिया में प्राकृतिक शक्तियों के साथ संघर्ष के रूप में किये गए हज़ारों साल के सामूहिक श्रम ने ही अनुभव और तथ्य की वह समृद्ध सम्पदा प्रदान की जिसे 14वीं–17वीं शताब्दी के यूरोप में पुनर्जागरण और प्रबोधन काल के दौरान सुव्यवस्थित, सुघटित व आगे विकसित किया गया तथा एक तर्कपरक व प्रयोग द्वारा सिद्ध किये जा सकने वाले आधुनिक विज्ञान की नींव डाली गयी। नवपाषाण काल में पहली बार कृषि करने के प्रमाण मिलते हैं। वी. गॉर्डन चाइल्ड नामक प्रसिद्ध नृविज्ञानी ने इसे नवपाषाण क्रान्ति का नाम दिया। नवपाषाण क्रान्ति के साथ इन्सान ने पहली बार प्रकृति पर काम करके कुछ पैदा किया। इसके पहले प्रकृति उसे जो देती थी, वह उसे प्राप्त करता था। इसके बाद, एक अस्तित्व के संघर्ष की लम्बी यात्रा में इन्सान ने पैदा करने के काम को तमाम और क्षेत्रों तक विस्तारित कर दिया। वह औज़ार, घर, और तमाम दूसरी वस्तुएँ बनाने लगा। इस उत्पादक श्रम को करने की प्रक्रिया में ही उसने इन्द्रीयग्राह्य ज्ञान का एक विराट समुच्चय पैदा किया। विज्ञान इसी इन्द्रीयग्राह्य ज्ञान के तर्कसंगत ज्ञान में रूपान्तरण तथा मानव मस्तिष्क में प्रकृति के नियमों के सर्वोच्च सूत्रीकरण का नाम है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि विज्ञान मानवीय श्रम से ही उत्पन्न हुआ है और यही इसकी जीवन शक्ति है। अत: अगर विज्ञान पलटकर श्रम की सेवा न करे तो उसका विकास मन्द हो जाता है और अगर किसी लम्बे ऐतिहासिक दौर तक ऐसा ही हो तो रुक जाता है। वह मात्र एक किताबी ज्ञान बनने लगता है। इसके विपरीत, अगर मानवीय श्रम विज्ञान से लैस हो जाए तो वह समाज के विकास की नई मंजिलें तय करने का रास्ता खोल देता है। समाज विकास की नई मंजिलों में नई ज़रूरतें जन्म लेती हैं जिनको पूरा करने के लिए विज्ञान को आगे विकसित करना ज़रूरी हो जाता है। इस प्रकार उत्पादक मानवीय श्रम व विज्ञान एक–दूसरे पर निर्भर करते हैं तथा एक–दूसरे को प्रभावित व विकसित करते हुए निरन्तर विकास की नई मंजिलों पर पहुँचते जाते है और प्रक्रिया इसी प्रकार चलती रहती है। जब कोई समाज व्यवस्था विज्ञान के विकास में बाधा बन जाती है तो विज्ञान में गुणात्मक विकास के लिए समाज विकास में भी गुणात्मक छलाँग की आवश्यकता होती है।
14वीं–17वीं शताब्दी के पुनर्जागरण–प्रबोधन–वैज्ञानिक क्रान्ति के काल के दौरान जब आधुनिक विज्ञान की नींव पड़ी, जिसने क्रमश: विकसित होते हुए उत्पादन के नए उन्नत साधनों को जन्म दिया, उत्पादक शक्तियों को विकसित किया, इन्सान की चेतना में तर्कणा व चिन्तन के नए स्तरों का संचार किया तथा और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण वैज्ञानिक आविष्कारों की पृष्ठभूमि तैयार कर दी तो उस समय की सामन्ती समाज व्यवस्था, जो कि पिछड़ी उत्पादन शक्तियों, पुराने कम उन्नत व छोटे पैमाने के उत्पादन के साधनों पर आधारित थी तथा अन्धविश्वासों से भी भरी हुई थी, तेजी से विकसित होती उत्पादक शक्तियों व विज्ञान के विकास में बाधा उत्पन्न करने लगी। 18वीं शताब्दी में हुए कई महत्वपूर्ण आविष्कारों जैसे भाप इंजन, पावरलूम, विद्युत टेलीग्राफी, बिजली उत्पादक बैटरी, लाइटिंग रॉड आदि के अतिरिक्त कई नई तकनीकों का विकास हुआ, जैसे लोहा परिष्कृत करने की तकनीक, परिष्कृत कोयला बनाने की तकनीक। नए समुद्री मार्गों व यातायात तथा संचार के नए तीव्र माध्यमों के विकास के साथ ही पुराने सामन्ती सामाजिक सम्बन्धों तथा नई विकसित होती उत्पादक शक्तियों के बीच अन्तर्विरोध बहुत तीक्ष्ण व सघन हो गए। इन नयी तकनीकों और आविष्कारों के पीछे समाज में वर्ग संघर्ष की बदलती स्थितियाँ थीं। सामन्ती व्यवस्था के भीतर ही सामन्तों के ऐशो–आराम और दिखावे की संस्कृति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दस्तकारों का एक पूरा वर्ग अस्तित्व में आया था। इस वर्ग के अस्तित्व में आने के साथ ही माल उत्पादन का विचारणीय पैमाने पर विकास शुरू हुआ। प्रारम्भ में दस्तकारों द्वारा उत्पादित माल को खरीदने के लिए मण्डियों का विकास हुआ। इन मण्डियों को दस्युओं आदि के हमले से बचाने के लिए इसके इर्द–गिर्द किलेबन्दी की जाने लगी। इस किलेबन्दी के भीतर बाद में एक पूरा अलग जीवन विकसित होने लगा। इन जगहों को फ्रांसीसी भाषा में बूर्ज कहा जाता था। इसी शब्द से ‘बुर्जुआ’ शब्द निकला, जिसका अर्थ अब हो चुका है पूँजीवादी। लेकिन शुरुआत में इसका अर्थ था बूर्ज का निवासी। बूर्ज के अन्दर की दुनिया ही बाद में नगर के रूप में विकसित हुई। बाद में यहाँ प्रशासनिक कार्यों के केन्द्र भी स्थापित होने लगे। ये जगहें कलाओं का भी केन्द्र बनने लगीं। इसके साथ ही इन जगहों पर प्रकाशन संस्कृति और प्रेस का भी विकास हुआ। इन परिवर्तनों के साथ ही इन बूर्जों में एक मध्यवर्ग अस्तित्व में आया जो कला, विज्ञान, संस्कृति आदि में दिलचस्पी रखता था। ये दस्तकारों की ही औलाद था। यही वह वर्ग था जिसने पुनर्जागरण और प्रबोधन के आन्दोलनों का नेतृत्व किया और वैज्ञानिक क्रान्ति के प्रमुख आविष्कारों का जनक बना। इसी वर्ग ने धर्म और सामन्तवाद की बेड़ियों के विरुद्ध सबसे पहले आवाज़ उठायी और वैकल्पिक विचार प्रस्तुत किये। दस्तकारों का पूरा वर्ग और नवजात मध्यवर्ग इसके साथ था। इसके अतिरिक्त गाँवों में सामन्तों के निर्मम शोषण के विरुद्ध किसान वर्ग विद्रोह करने लगे थे। अगर हम पूरी दुनिया में 16वीं और 17वीं शताब्दी के सामन्तवाद के इतिहास पर निगाह डालें, तो हम पाएँगे कि वह किसान विद्रोहों से भरा हुआ है। बूर्जों के नवोदित पूँजीपति वर्ग ने सामन्तवाद के विरुद्ध ‘स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व’ और ‘जो जमीन को जोते बोए, वह ज़मीन का मालिक होए’ का नारा दिया। इस नारे तले नवोदित पूँजीपति वर्ग के नेतृत्व में निम्न पूँजीपति वर्ग, किसान वर्ग और दस्तकारों के तहत काम करने वाले नवजात सर्वहारा वर्ग ने सामन्तवाद–विरोधी क्रान्तियाँ कीं। इस प्रकार नयी उन्नत उत्पादक शक्तियों और पुराने पिछड़े सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों के बीच के तीखे होते अन्तरविरोधों का समाधान 18वीं–19वीं शताब्दी में यूरोप के कई देशों व अमेरिका में पूँजीवादी क्रान्तियों के रूप में सामने आया। इन क्रान्तियों के फलस्वरूप एक नई, सामन्तवाद से कई गुना उन्नत पूँजीवादी व्यवस्था अस्तित्व में आयी जिसने विज्ञान के विकास को सामन्ती अवरोधों से निर्बन्ध कर दिया, उत्पादक शक्तियों का अभूतपूर्व विकास हुआ, उत्पादन के स्तर में हुई वृद्धि ने पिछले सभी मानकों को ध्वस्त कर दिया तथा मानव चेतना व प्रकृति के नियमों की उसकी समझ में भी गुणात्मक विकास हुआ। मनुष्य ने न सिर्फ़ गहरे से गहरे महासागरों की गहराई से लेकर ऊँचे से ऊँचे पर्वतों की उ़ँचाई नापी, बल्कि दक्षिणी ध्रुव से उत्तरी ध्रुव तक पूरी पृथ्वी को नाप डाला; मनुष्य ने सुदूर अन्तरिक्ष तक में पहुँचना सम्भव बना लिया तथा उनके गूढ़ रहस्यों को सुलझाना शुरू कर दिया; बाल जितनी संकीर्ण रक्त कोशिकाओं के अन्दर प्रवेश कर सकने वाली अतिसूक्ष्म मशीनों से लेकर 27 कि.मी. लम्बी अत्यन्त जटिल मशीन का निर्माण किया जिसका उपयोग अभी चल रहे सर्न प्रयोग में किया जा रहा है; अन्तरिक्ष स्टेशन के रूप में अन्तरिक्ष में तैरता हुआ अपना अस्थायी घर बनाया, सैकड़ों सालों से मानव जीवन के लिए रहस्य बनी हई बीमारियों का केवल इलाज ही नहीं खोजा बल्कि जीनोम मैपिंग के जरिए उन बीमारियों को उनके कारणों सहित समूल नष्ट करने का रास्ता भी खोजा। इस प्रकार उत्पादक शक्तियों के निर्बन्ध होने के बाद विज्ञान गहरा व विस्तारित होता चला गया।
लेकिन जिस पूँजीवाद ने इन्सानियत को मीलों आगे पहुँचाया और मनुष्यों को बर्बर, नग्न और निर्मम सामन्ती उत्पीड़न और शोषण से मुक्त किया, वह आज पूरी दुनिया को क्या दे रहा है ? ग़रीबी, बेरोज़गारी, युद्ध, भुखमरी, कुपोषण, महामारियाँ, दिमागी तौर पर बीमार युवा पीढ़ी, वेश्यावृत्ति–––यह फेहरिस्त और लम्बी हो सकती है। एक सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद की प्रगतिशील सम्भावनाएँ निश्शेष हो चुकी हैं। हर वर्ग व्यवस्था के साथ देर–सबेर यही होता है। समूचा मानव इतिहास इसका साक्षी है। जिन कारणों से इतिहास के एक दौर में सामन्तवाद दुनिया के लिए अप्रासंगिक और अनैतिहासिक हो गया था, उन्हीं कारणों से पूँजीवाद भी आज इन्सानियत के लिए अप्रासंगिक, अनैतिहासिक और मानवद्रोही हो चुका है। यह इतिहास को जो दे सकता था, वह दे चुका है और अब इसकी सही जगह इतिहास का कूड़ेदान है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया को समझना ज़रूरी है।
मानव समाज के विकास में विज्ञान की भूमिका मनुष्यों की चेतना को अधिक से अधिक वैज्ञानिक, वस्तुपरक और उन्नत बनाने के अतिरिक्त, उत्पादक शक्तियों के विकास तथा श्रम की उत्पादकता बढ़ाने के द्वारा सामाजिक उत्पादन में वृद्धि करने से जुड़ी होती है। अत: जो कारक किसी सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक उत्पादन को बढ़ाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं उस व्यवस्था में विज्ञान के विकास की दिशा व परिमाण निश्चित करने में भी मुख्यत उन्हीं की निर्णायक भूमिका होती है।
जहाँ तक पूँजीवादी व्यवस्था की बात है तो वह उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व पर आधारित होती है। पूँजीवादी व्यवस्था में सामाजिक उत्पादन बढ़ाने के पीछे मुख्य प्ररेक शक्ति मुनाफा कमाना तथा उस मुनाफे को लगातार बढ़ाते जाना होता है क्योंकि बाज़ार की अन्धी ताकतें पूँजी के स्वामी को लगातार अपनी पूँजी में इज़ाफा करने के लिए मजबूर करती हैं, अन्यथा ‘‘मुक्त बाज़ार” की प्रतियोगिता में कार्यरत अन्य प्रतिस्पर्धी पूँजियों द्वारा उसको निगल लिए जाने का खतरा बना रहेगा। अत: हरेक पूँजीपति श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए उत्पादन के नए उन्नत साधनों का इस्तेमाल करने व नई उन्नत तकनीकों को इस्तेमाल करने के लिए मजबूर होता है। इसके लिए वह रिसर्च एण्ड डेवलपमेण्ट में निवेश करता है जिसकी नई तकनीकों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके लिए बड़े–बड़े शोध संस्थान खोले जाते हैं, वैज्ञानिकों एवं शोधकर्त्ताओं को भाड़े पर रखा जाता है। ज़ाहिर है जो पूँजीपति रिसर्च एण्ड डेवलपमेण्ट में निवेश करने में जितना अधिक सक्षम होता है उसको उत्पादन के उतने ही उन्नत साधन व तकनीकें प्राप्त होती हैं, उसका उत्पादन व मुनाफा उतना ही अधिक होता है तथा बाज़ार में उसके बने रहने व फलते रहने के लिए परिस्थितियाँ उतनी ही अधिक अनुकूल होती हैं। अत: छोटे पूँजीपति जो रिसर्च व डेवलपमेण्ट में अधिक निवेश करने में सक्षम नहीं होते है, पिछड़ी हुई तकनीकों व मशीनों से उत्पादन करवाने को मजबूर होते हैं। उनका मुनाफा लगातार कम होता जाता है और वे तबाह होते चले जाते है। इस प्रकार बाज़ार पर धीरे–धीरे बड़े पूँजीपतियों का अधिकार होता जाता है। पूँजी के इस बढ़ते संकेन्द्रण के साथ मुनाफ़े को केन्द्र में रखते हुए विज्ञान व तकनीक का तेज़ी से विकास होता है और उत्पादन में नई उन्नत मशीनों का उपयोग बढ़ता जाता है।
इस प्रकार पहले जो काम कई लोगों द्वारा किया जाता था अब वह केवल कुछ लोगों द्वारा करना सम्भव हो जाता है। मुनाफ़े के लिए विज्ञान एवं तकनीकी विकास का उपयोग मशीनों द्वारा मज़दूरों की बड़ी संख्या के विस्थापन को सम्भव बना देता है और लगातार बढ़ावा देता है; एक बड़ी आबादी लगातार बेरोज़गारों की भीड़ में शामिल होती जाती है। इसके साथ ही कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों को कम से कम मज़दूरी पर 12–14 घण्टे खटाने के लिए पूँजीपति वर्ग मजबूर करता है क्योंकि उसके हाथ में दर–दर की ठोकरें खाने को मजबूर आबादी के रूप में बेरोज़गारों की एक विशाल आरक्षित फौज होती है, जो जीवित रहने के लिए बड़ी मुश्किल से दिन में एक वक्त पेटभर पाने की जद्दोजहद में किन्हीं भी शर्तों पर काम करने के लिए तैयार होती है। इस प्रकार श्रम करने वाली व सुई से लेकर जहाज तक सभी वस्तुओं के उत्पादन में प्रत्यक्ष रूप से शारीरिक श्रम करने वाली मेहनतकश आबादी खुद अपने श्रम द्वारा बनाए गए भौतिक व आत्मिक सुख के आधुनिक साधनों से वंचित होती जाती है। वह खुद कारखानों में काम करने वाली मशीन का कलपुर्जा मात्र बनकर रह जाती है तथा उसी के व उसके पूर्वजों के श्रम के बल पर जन्मे विज्ञान, कला, दर्शन आदि के ज्ञान से रहित हो जाती है और मानवीय जीवन से गिरकर पाशविक जीवन जीने के लिए मजबूर कर दी जाती है। अत: उसके लिए ये सारा ज्ञान–विज्ञान एक दूसरी दुनिया की व अनजान वस्तु बनकर रह जाता है।
इस प्रकार शारीरिक श्रम करने वाली जनता के श्रम का विज्ञान से अलगाव हो जाता है। ज्ञान–विज्ञान महज़ बौद्धिक श्रम करने वाले या कोई श्रम न करने वाले उच्च मध्यम वर्ग और उच्च वर्गों की बपौती बनकर रह जाता है। जैसा कि हमने पहले कहा है उत्पादक श्रम (मानसिक और शारीरिक, दोनों) के विकास की प्रक्रिया में ही ज्ञान पैदा और विकसित हुआ है। इससे कटने के साथ ही विज्ञान अपनी जीवन शक्ति से काफ़ी हद तक कटता जाता है। यही कारण है कि आज विज्ञान के विकास के प्रेरक का काम युद्ध, प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहने के लिए ऐसे यन्त्रों का विकास करना है, जो मनुष्यों को काम से बेदख़ल करें, या अमूर्त विज्ञान है जिसका उत्पादन करने वाले वर्गों से दूर–दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। निश्चित रूप से इन परिवर्तनों के महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती है। लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है एक ऐसी व्यवस्था के अन्तर्गत, जिसके केन्द्र में समस्त मनुष्यों की आवश्यकता को पूरा करना और मानवीय जीवन को अधिक से अधिक वैविध्यपूर्ण और सुन्दर बनाना हो, विज्ञान ने कहीं और तेज़ रफ़्तार प्रगति की होती। इसका कारण यह है कि विज्ञान के विकास के कार्य को समाज के 5 प्रतिशत लोग ही नहीं करते। सैद्धान्तिक से लेकर व्यावहारिक विज्ञान तक के विकास में जनता की विशाल बहुसंख्या की भागीदारी होती है। सामान्य संभाविता (प्रोबेबिलिटी) के सिद्धान्त से भी समझा जा सकता है कि ऐसे में विज्ञान को सामूहिक मेधा की ऐसी प्रचण्ड ऊर्जा मिलती, जो उसे छलांगों में आगे बढ़ाती।
इसके विपरीत, पूँजीवादी सभ्यता और समाज में बाज़ार का राज होता है जिसमें मुनाफ़े का नियम काम करता है। बाज़ार पर बड़े पूँजीपतियों का अधिकार होने के साथ ही उनकी अन्धाधुन्ध मुनाफे की हवस और अधिक बढ़ती जाती है। शोध संस्थानों में निवेश तो लगातार बढ़ता जाता है लेकिन शोध कार्य का दायरा लगातार उन्हीं क्षेत्रों तक सीमित होता जाता है जिनकी तुरन्त मुनाफा बढ़ाने वाली तकनीकों व इस मुनाफे की रक्षा के लिए होने वाले युद्धों की तैयारी के लिए उन्नत अस्त्रों–शस्त्रों व तकनीकें विकसित करने के लिए ज़रूरत होती है। वैज्ञानिकों की इच्छा, प्रतिभा व सृजनात्मकता का लगातार दमन किया जाता है तथा उन्हें एक प्री–प्रोग्रैम्ड (पूर्व–कार्यक्रमित) रोबोट की तरह पहले से तय मानकों तक सीमित करते हुए, केवल ऊपर से प्राप्त, उनके मालिकों द्वारा निर्देशित कामों को पूरा करने के लिए बाध्य किया जाता है। उन्हें सामाजिक जीवन से काटकर प्रयोगशालाओं की चारदीवारी के भीतर रहने के लिए विवश कर दिया जाता है। ऐसा यह व्यवस्था हमेशा ज़ोर–ज़बरदस्ती से ही नहीं करती बल्कि माल–पूजा की संस्कृति को बढ़ावा देकर करती है। भौतिक प्रोत्साहन और निजी लाभअर्जन की पूरी व्यवस्था बचपन से ही मस्तिष्कों को इस कदर ढालती है कि लोग पैसा कमाने और पैसे से सभी भौतिक सुख–सुविधाओं को अर्जित कर लेने को ही जीवन का पर्याय समझते हैं। पूँजीवादी समाज में इस उपभोगवाद का एक बाज़ारू आध्यात्मिकता के साथ अजीबो–ग़रीब मेल चलता रहा है।
ऐसी संस्कृति और सभ्यता में पलने–बढ़ने वाला वैज्ञानिक विज्ञान की सामाजिक भूमिका से अनजान अपने वैज्ञानिक कौशल का उपयोग महज़ अपने जीवन को सँवारने और अधिक से अधिक सुविधासम्पन्न बनाने के लिए करता है। निश्चित रूप से उसकी अपनी वैज्ञानिक जिज्ञासाएँ होती हैं और विज्ञान के प्रति उसकी एक हद तक प्रतिबद्धता भी होती है। लेकिन “भौतिक” चिन्ताएँ हर–हमेशा उस पर हावी रहती हैं। इस प्रकार वैज्ञानिक व शोधकर्त्ता आम जनजीवन से कट जाते हैं, प्रत्यक्ष उत्पादन से उनका सम्बन्ध अपने अनेक रूपों में कम होता जाता है, पैसा और पैसे की संस्कृति सिर चढ़कर बोलने लगती है और शोध संस्थान धीरे–धीरे मानसिक रोगियों व चिकित्सीय रूप से हताश तत्वों को पैदा व पोषित करने वाले केन्द्र मात्र बन कर रह जाते हैं।
इसके साथ ही साथ वैज्ञानिकों और शोधकर्त्ताओं की बढ़ती माँग की पूर्ति करने की आवश्यकता भी होती है। इसके लिए बड़े–बड़े विश्वविद्यालयों में विज्ञान, इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं। परन्तु इनमें शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र–छात्राओें की प्रतिभा को पूरी तरह पूँजी की सेवा में समर्पित करने के लिए पूँजीवाद दो तरफा–नीति अपनाता है। एक तरफ तो इन विश्वविद्यालयों में लगातार फीसें बढ़ाकर व सीटों में सापेक्षिक (कुल योग्य आबादी की तुलना में) कमी करके इनमें प्रवेश के लिए होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं व चयन प्रक्रिया को अत्यन्त जटिल बनाकर, विश्वविद्यालयों के निजीकरण को बढ़ावा देकर तथा शिक्षा को एक बाज़ारू माल में रूपान्तरित करके लगातार समाज के कम आय वाले मेहनतकश व निम्न मध्मवर्गां से आने वाले छात्र–छात्राओं का इनमें प्रवेश कठिन बनाता जाता है, और ये विश्वविद्यालय केवल रईसज़ादों की बपौती बन कर रह जाते हैं। इन रईसों की औलादों ने अपने जीवन में न तो कभी शारीरिक श्रम किया होता है और न ही उसके महत्व को जानते–समझते हैं; इस वजह से इनको शारीरिक श्रम व शारीरिक श्रम करने वाली जनता से कोई सरोकार नहीं होता, बल्कि जिस परिवेश व संस्कृति में वे पले–बढ़े होते हैं वह इनको मेहनत–मज़दूरी करने वालों को हेय दृष्टि से देखना व तुच्छ समझना ही सिखाती है; वहीं दूसरी तरफ समाज के निचले संस्तरों से जो छोटी–सी आबादी सब बाधाओं के बावजूद इन विश्वविद्यालयों तक पहुँचने में सक्षम हो भी जाती है उन पर इन विश्वविद्यालयों की श्रम विरोधी, दूसरों की मेहनत पर ऐशो आराम करने की मानसिकता को बढ़ावा देने वाली सड़ी हुई पूँजीवादी संस्कृति लगातार अपना शिंकजा कसती जाती है; उनका लक्ष्य भी अधिक से अधिक पैसा कमाना, धनी बनना और अमीरज़ादों की जमात में शामिल हो जाना बन जाता है। अपने वर्ग से वे घृणा करने लगते हैं। सूत्र में कहें तो उनका वर्ग–रूपान्तरण हो जाता है।
इतिहास बताता है कि आम जनता के बीच से निकले ऐसे कुलीनीकृत तत्व ऐतिहासिक तौर पर धनी और कुलीन वर्गों से आने वाले तत्वों से भी अधिक प्रतिक्रियावादी होते हैं। इसके अलावा, इन विश्वविद्यालयों में सामाजिक सरोकार रखने वाली एक बहुत छोटी–सी आबादी जो फिर भी बची रहती है उनको यह व्यवस्था पिछड़े हुए गांवों में छोटे–मोटे तकनीकी विकास के कामों में फँसा कर इस मुग़ालते में रखती है कि वे समाज के लिए कोई बड़ा बेहतरीन काम कर रहे हैं; या फिर ऐसे लोगों को सुधारवादी राजनीति और एन.जी.ओ. सेक्टर खींच ले जाता है। कुल मिलाकर, पूँजीवादी व्यवस्था उन्हें अपने वर्चस्व की पूरी संरचना के भीतर ही कहीं समायोजित कर लेती है और उनकी चेतना को व्यवस्था–परिवर्तन तक नहीं जाने देती।
इस प्रकार विज्ञान, वैज्ञानिक, शोधकर्ता और विज्ञान के छात्रों – इन सबका उत्पादक श्रम और उत्पादक श्रम करने वाली मेहनतकश जनता से अलगाव अधिक से अधिक होता जाता है। परिणामत: विज्ञान अपनी जीवन शक्ति से वंचित होता जाता है। उसमें सतही कृत्रिम विकास तो क्रमिक प्रक्रिया में जारी रहता है लेकिन समाज से सापेक्षित रूप से पूर्ण कटाव उसे मृत और अबोधगम्यता की हद तक “अमूर्त” बनाता जाता है, एक ऐसा अमूर्तन जो वैज्ञानिक अमूर्तन नहीं कहा जा सकता। विज्ञान का विकास अधिक से अधिक श्रम–विरोधी रूप लेता चला जाता है और यह केवल अमीरज़ादों को आराम व मनोरंजन के नए–नए साधन प्रदान करने वाला उपकरण और मेहनतकश आबादी के शोषण को और अधिक दक्ष, सूक्ष्म और व्यापक बनाने वाला साधन मात्र बनकर रह गया है। इस प्रकार पूँजीवादी व्यवस्था में विज्ञान समाज से कटकर बाज़ार के अधीन होता जाता है और इन अर्थों में पूँजी की सेवा करने वाला एक उपकरण मात्र बनकर रह जाता है। पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध नयी उत्पादक शक्तियों के विकास को न सिर्फ़ समाज के क्षेत्र में बाधित करने लगते हैं बल्कि विज्ञान के क्षेत्र में भी वे उनकी राह का रोड़ा बन जाते हैं। जब किसी खास सेक्टर में किसी बड़े पूँजीपति का एकाधिकार स्थापित हो जाता है और उस सेक्टर में उसके द्वारा कीमतें तय हो जाती हैं तो वह किसी भी नयी तकनीक या आविष्कार को तब तक सामने नहीं आने देता जब तक कि मुनाफे को बढ़ाने में उसकी योग्यता सिद्ध नहीं हो जाती। यदि कोई नया आविष्कार या नवोन्मेष बाज़ार में उसके एकाधिकार को ख़त्म कर फिर से प्रतियोगिता शुरू करने की सम्भावना रखता है तो वह उसे विकसित नहीं होने देता, ख़रीदकर पेटेण्ट करा लेता है और गुप्त रखता है, या विसरित नहीं होने देता। कई बार तो इसके लिए बड़े–बड़े कारपोरेशन वैज्ञानिकों को अगवा करने, उनकी हत्याएँ करने, उन्हें ख़रीद लेने आदि जैसे आपराधिक तौर–तरीकों का भी इस्तेमाल करते हैं। कुछ भी हो मुनाफ़ा कायम रहना चाहिए।
अत: स्पष्ट है कि पूँजीवाद ने विज्ञान व तकनीक को सामन्तवाद व अन्य प्राक–पूँजीवादी समाज व्यवस्थाओं से कई गुना अधिक विकसित तो किया है लेकिन आज वही पूँजीवाद विज्ञान व उत्पादक शक्तियों के आगे के विकास में अवरोध बन चुका है। सम्पूर्ण मानव जाति को सुविधासम्पन्न व खुशहाल बनाने की क्रान्तिकारी भूमिका को अदा करने के बजाय विज्ञान पूँजी के अधीन हो समाज में अमीर–ग़रीब के बीच की खाई को बढ़ाने और उन्नत युद्धक उपकरण विकसित करने, सर्वहारा आबादी को उसकी रोज़ी से बेदख़ल करने की प्रतिक्रियावादी भूमिका में आ गया है। इस व्यवस्था में विज्ञान के विकास की मुख्य चालक व प्रेरक शक्ति सम्पूर्ण मानव जाति को खुशहाल बनाना नहीं बल्कि केवल मुट्ठी भर लोगों का मुनाफा बढ़ाना है। पूँजीवादी व्यवस्था के तहत इस अन्तरविरोध का हल नहीं निकाला जा सकता है। विज्ञान को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करने का प्रश्न पूरी मानवता को पूँजीवाद की बेड़ियों से मुक्त करने का प्रश्न है। एक सच्चा समर्पित वैज्ञानिक वह नहीं हो सकता जो दुनिया–जहान से कटकर, सामाजिक सरोकारों से कटकर और अपने मालिक के भाड़े का टट्टू बनकर प्रयोगशाला में उसके लिए काम करता रहे; वह विज्ञान का क्लर्क/कार्मिक तो हो सकता है मगर ‘वैज्ञानिक’ होना एक अलग बात है। आधुनिक युग के महानतम वैज्ञानिक आर्इंस्टीन भी इसी बात की ताईद करते हैं और शायद इसीलिए वे आईंस्टीन थे।
(लेखक आई.आई.टी., बॉम्बे में गठित संस्था ‘साइण्टिस्ट्स फॉर सोसायटी’ से जुड़े हुए हैं)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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