पाठक मंच
अभी हाल में मुझे कुछ कार्यकर्ताओं के ज़रिये आपकी पत्रिका का जनवरी 2010 अंक पढ़ने को मिला। मुझे आश्चर्य और अफसोस हो रहा है कि इतने दिनों तक मैं इतनी अच्छी और आज के दौर के लिए ज़रूरी पत्रिका से कैसे अपरिचित रहा। इस अंक का सम्पादकीय पूँजीवादी संकट का बिल्कुल सटीक विश्लेषण करता है और युवाओं के सामने उपस्थित चुनौतियों से परिचित कराता है। कोपेनहेगेन सम्मेलन, भारतीय संविधान और यूपीए सरकार की शिक्षा नीति पर आपके लेख भी बातों को नयी रोशनी में रखते हैं और सोचने के लिए विचारोत्तेजक सामग्री देते हैं। धर्म और पूँजीवाद के रिश्तों पर सुजय का लेख भी बिल्कुल मर्म पर चोट करता है। मुझे नये अंक से पत्रिका का सदस्य बना लें। कोशिश करूँगा कि मेरे कुछ और मित्र भी सदस्य बनें।
आनन्द कुमार, नरेला, दिल्ली
‘‘धर्म एक ज़हर है’’
कार्ल मार्क्स ने कहा था ‘धर्म एक अफीम है’, जिन देशों के ये समझ में आ गया वहाँ स्थिति बदल गयी, वो गरीब थे अचानक विकसित हो गये, हमें समझ नहीं आया, तो हम गरीब के गरीब बने हुए हैं। हम नहीं समझ पाये कि जिसे हम अमृत समझ रहे हैं वो एक धीमा ज़हर है जो हमें और हमारे समाज को और हमारे देश को धीरे–धीरे नष्ट कर रहा है, इसी धर्मरूपी अफीम ने हमें अन्धा कर दिया है, जिस कारण आज विज्ञान का प्रकाश पूरी दुनिया में फैलने के बावजूद हम अज्ञान के अन्धकार में डूबे हुए हैं। विज्ञान हमें चिल्ला–चिल्ला कर बता रहा है कि पृथ्वी गोल है और सूर्य का चक्कर लगाती है परन्तु हम धर्म के नशे में होने के कारण ‘रामचरित मानस’ का अखण्ड पाठ करवाते हैं जो कहता है कि पृथ्वी कछुए की पीठ और शेषनाग के फन पर टिकी है (रामचरितमानस बालकाण्ड 207)। धर्म के नशे में हमने अपना स्वाभिमान खो दिया है अपने आत्मविश्वास को गिरवी रख दिया है, इंसानियत को भूलकर हम पशुत्व को अपना चुके है, देश, समाज के लिये सामूहिक रूप से इकट्ठा होने के बजाय हम विभिन्न तीर्थ स्थलों, धामों, मज़ारों पर भीड़ रूप में इकट्ठे होते हैं। साम्प्रदायिक दंगे करने वाली और सार्वजनिक चीज़ों को नुकसान पहुँचाने वाली भीड़ ही होती है। जहाँ सामूहिकता होती है वहीं बदलाव होता है, और जहाँ भीड़ होती है वहाँ केवल भेड़चाल होती है, यही वजह है कि आज हमारा देश 116 करोड़ लोगों की भीड़ से भर गया है, इस भीड़ को बनाये रखने में ही कइयों का स्वार्थ सिद्ध होता है। इसलिये समाज को धर्म और जाति के नाम पर भीड़ में बदलने वाले स्वार्थी तत्व समाज को इसी रूप में बनाये रखना चाहते है, क्योंकि भीड़ को ही बेवकूफ बनाया जा सकता है समूह को नहीं। हर साल बाढ़ से हज़ारों गाँव बरबाद होते है, लाखों लोग बेघर होते है सैकड़ों, हज़ारों लोग मारे जाते हैं, प्रभावितों की मदद के लिये राहत पैकजों की घोषणा होती है, सरकारी खज़ाने से अरबों रुपये गरीबों की सहायता के नाम पर अफसर एवं नेता खा जाते है और ये गरीब जैसे के तैसे बने रहते है। हर वर्ष सूखा पड़ता है, भूख से परेशान किसान खुदकुशी कर लेता है और हमारे नेता इनके घरों में जाकर दावतें उड़ाते हैं सहानुभूति के नाम पर अपनी राजनीति चमकाते हैं, किसानों के कर्ज माफी का ढोंग करते है, किसान फिर भी आत्महत्या करता है। राज्यों से हर वर्ष भयंकर ग़रीबी और भुखमरी के कारण करोड़ों लोग देश के विभिन्न शहरों में पलायन कर लात–जूते खाते हुए भी किसी तरह अपने परिवार के लिए दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं, जिसके कारण शहरों की व्यवस्था चरमरा गई है और शहरों की व्यवस्था को ठीक रखने के लिये ही बड़े–बड़े फ्लाईओवर, मेट्रो वगैरह बनाई जा रही हैं, जिन्हें दिखाकर सरकार अपनी पीठ थपथपाती है कि भारत तरक्की कर रहा है महाशक्ति बनने जा रहा है। शहरों में होने वाली ये तरक्की असल में गाँवों की बदहाली की निशानी है। हमारी सभ्यता को सींचने वाली नदियाँ आज बड़े गन्दे नालों में परिवर्तित हो चुकी हैं जिनकी सफाई के नाम पर हर साल हज़ारों करोड़ रुपये जनता की जेबों से ही निकाले जाते हैं। अदालतों में करोड़ों केस पेण्डिग पडे़ हैं कितने बेकसूर जेलों में सड़ रहे है और बड़े–बड़े अपराधी नेता बने घूम रहे हैं। महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में हर वर्ष बढ़ोत्तरी हो रही है। बलात्कार, अपहरण की घटनायें तो आम–सी हो गई है। कहने को तो देश की इन सभी समस्यायों से निपटने के लिये हमारी सरकार के पास योजनाएँ हैं परन्तु उन योजनाओं में भ्रष्टाचार का दीमक लग चुका है, सरकार की ये यथास्थितिवादी अपाहिज योजनाएँ देश की सभी समस्याओं का हल नहीं निकाल सकती बल्कि समस्याओं को और बढ़ा सकती हैं। इन योजनाओं पर होने वाला खर्च अन्तत: जनता ही चुकाती है और पहले से ही बदहाल भारत की जनता की नियति पर इन सरकारी योजनाओं से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। इन विभिन्न योजनाओं पर खर्च हुआ रुपया भ्रष्ट अफसरों और नेताओं की जेबों से होते हुए अन्तत: स्विस बैकों के अन्धेरे तहखानों में समा जाता है।
देश की नियति बदलने के लिये आज आवश्यकता है एक क्रान्ति की जो इस पूरी व्यवस्था को ही उखाड़ फेंके और एक नई व्यवस्था का सृजन करे – जहाँ आम आदमी अपनी बुनियादी आवश्यकताओं के लिये सरकारी मदद की भीख माँगने के बजाय स्वावलम्बी बने और तिरस्कारित–अपमानित जीवन जीने के बजाय स्वाभिमान से जिये :
जहाँ कोई भूखा ना सोये
कोई बेघर ना रहे, कोई नंगा ना रहे
पृथ्वी के संसाधनों पर हर मनुष्य का बराबर हक हो
कोई नीचा ना रहे,
कोई उ़ँचा ना रहे,
कोई दानी ना रहे,
कोई भिखारी ना रहे,
कोई वेश्या ना रहे,
दहेज के लिये कोई स्त्री जलायी ना जाए
कोई स्त्री, स्त्री होने के कारण सतायी ना जाए,
गर्भ में ही वो गिरायी ना जाए,
जहाँ गोत्र न हो
जाति का बन्धन न हो
धर्म की कोई दीवार ना हो
जहाँ किसी परमेश्वर का सवाल ना हो!
जहाँ ईश्वर के दलाल ना हों
एक ऐसी व्यवस्था––
जिसमें भय, भूख और भ्रष्टाचार ना हो
आतंक, अन्याय और अत्याचार न हो
किसी औरत से बलात्कार ना हो
और जहाँ मानवता बौनी और लाचार ना हो।
शकील ‘प्रेम’
संगम विहार नई दिल्ली–62
एक धार्मिक मठ के मठाधीश की गुण्डागर्दी
(गोरखपुर की घटना जो मैंने देखी)
उस समय मैं कक्षा–11 में पढ़ता था। सन् 2005 की बात है। गोरखनाथ के पुल से आगे बढ़ने पर एक पान की दुकान थी ‘‘विकास पान भण्डार’’। मैं पान लेने गया हुआ था कि कुछ दूरी पर भीड़ दिखाई दी। करीब जाने पर पता चला कि एक व्यक्ति एक बूढ़ी महिला को घसीटते हुए पीट रहा था। और उस वृद्धा का लड़का उसे बचाने के कोशिश में उस व्यक्ति से मार खा रहा था। वह गुण्डे टाइप का व्यक्ति उस बूढ़ी महिला से ‘पैसा वसूलने’ आया था। कुछ दिन पहले वह और उसका लड़का वहीं छोटी–सी ज़मीन पर एक मेज लगाकर अण्डे बेचा करते थे। आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। आज उन्हें इस तरह मार खाता देख उन पर दया आ रही थी और करता भी क्या ? सारे लोग तमाशबीन बने देख रहे थे। वह चिल्ला–चिल्ला कर कह रही थी ‘‘किसी में हिम्मत नहीं है जो इस बाबा के आदमियों के खिलाफ आवाज उठाये, उससे लड़ाई मोल ले। ये लोग मुझे चैन से जीने–खाने भी नहीं देते।’’
उस दिन मैंने मठ में डेरा जमाए उस भेड़िये की हकीकत जानी फिर भी एक भ्रम पाले रहता था कि ऐसा थोड़े ही होता है, सब ऐसे नहीं होते। लेकिन उम्र बढ़ने के साथ व्यावहारिक तौर पर देख रहा हूँ कि ये भेड़िये धार्मिक मठों में बैठकर जनता को गुमराह करने का खेल खेलते हैं और साथ में अपना बाज़ार और मुनाफा भी गर्म रखते हैं। आप लोगों ने मानव सभ्यता के इतिहास की कड़ियों में इनकी भूमिका का ज़िक्र करके मेरे भ्रम को दूर किया।
हाँ ज़रूरत है इन सारे साम्राज्यवादियों को
ऊर्जा और ईंधन की कि मुनाफा पीटें
और हम जनता को कुचले,
उसी के बरक्स हमें ज़रूरत है
भगत सिंह के विचारों के ईंधन की
जिसकी ऊर्जा से हम इनके
साम्राज्य को चूर–चूर कर सकें।
बना सकें ताकि एक समता का
समाज जहाँ कोई भी कुचला न जा सके।
आपका साथी – रोहित, गोरखपुर।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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