कितने ज़लील किये जा रहे हैं हम आज!
विमला, लुधियाना
मेरे एक पत्रकार दोस्त ने एक बार मुझे अपने अख़बार के दफ्तर का एक किस्सा सुनाया। हुआ यूँ कि उसकी ड्यूटी जनरल डेस्क यानी अख़बार के पहले पेज पर लगी हुई थी। रात के नौ बज रहे थे, पेज छोड़ने का मतलब फाइनल करने का समय हो रहा था कि एक संवाददाता का फोन आया कि शहर के सबसे पॉश इलाके में बोरे में एक लाश मिली है। ‘हो सकता है कि वो किसी एनआरआई की हो। बहुत महत्त्वपूर्ण ख़बर हो सकती है, पेज छोड़ना मत, मैं पता चलते ही ख़बर बनाकर भेजता हूँ।’ मेरे दोस्त को इन्तज़ार करते-करते दस बज गये, तो उन्होंने संवाददाता को फोन किया। संवाददाता ने छूटते ही कहा – ‘छोड़ यार, भइया था।’ मतलब वो लाश किसी एनआरआई की नहीं थी, एक मज़दूर की थी, इसलिए ख़बर लायक नहीं थी!
एक और वाकिया है। इससे मिलती-जुलती घटना-दुर्घटना के किस्से बहुतों ने कहे और सुने होंगे। एक मज़दूर एक कारख़ाने में 25 साल से काम कर रहा था और वहीं रहता था। मालिक का वफादार था। एक दिन काम करते-करते उसे चक्कर आ गया और वो अचेत हो गया। चेहरे पर पानी के छींटे मारने पर भी जब उस मज़दूर को होश नहीं आया तो मालिक ने यह कहकर कि वो मर गया है, अपने मैनेजर और सुपरवाइजरों को कुछ पैसा देकर जलाने के लिए श्मशान घाट भेज दिया। श्मशान घाट में शक होने पर पुलिस को ख़बर की गयी। जब तक पुलिस आयी, उसके परिवारवाले आये, तब तक इतनी देर हो चुकी थी कि वो मज़दूर मर चुका था। अचेत होते ही अगर तुरन्त उसे डॉक्टर के पास ले जाया जाता, तो हो सकता था कि वो बच जाता। मालिक के खि़लाफ भी कोई कार्रवाई नहीं की गयी, जिसने बेहोश मज़दूर को मरा हुआ बताया और बिना उसके परिवार को सूचित किये श्मशान घाट जलाने के लिए भेज दिया।
पिछले दिनों ही मेरा एक और अमानवीय त्रासदी से सामना हुआ। अमीरों के इलाके की एक बड़ी-सी कोठी। यहीं पर काम करती थी वह पिछले चालीस साल से। शादी के बाद सीधे गाँव से यहीं आयी थी, क्योंकि उसका पति इसी कोठी में नौकर था। उनके एक बच्ची हुई। नौजवान ही थी वो कि घरवाला मर गया। और पिछले चालीस साल से वो उस कोठी के मालिकों की सेवा कर रही थी। यहीं रहते हुए उसने अपनी बेटी की शादी की। पिछले दिनों जब वो बीमार पड़ी तो मालिक ने उसके इलाज के लिए उसकी बेटी-दामाद से 20,000 रुपया भी ले लिया। जब वो मर गयी तो मालिक ने उसकी लाश बेटी-दामाद को दे दी। चालीस साल तक उसने जिन लोगों की सेवा की थी, न तो वो लोग उसके ज़नाजे में आये और न ही किसी तरह की मदद की। बेटी-दामाद द्वारा कई बार फोन किये जाने पर रोंग नम्बर कहकर उन्हें काट दिया गया।
मेरा मकसद किस्से-कहानियाँ सुनाना नहीं है। ऐसे तमाम वाकियात हमारे आज की सच्चाइयाँ हैं। ऐसी घिनौनी और दाग़दार सच्चाइयाँ, जिनके बीच रहने के लिए हम मजबूर किये जा रहे हैं। ये सच्चाइयाँ इंसानियत को शर्मसार कर रही हैं, समाज में हो रहे पतन को बयान कर रही हैं।
आज हमें सिखाया जा रहा है कि लालच अच्छी बात है। लालच कर अपने लिए ज़्यादा से ज़्यादा हासिल कर। इसके लिए चाहे तुझे दूसरे को धोखा देना पड़े। अपना पेट भर, दूसरे की मत सोच। दूसरे की, दुनिया की सोचने वाला मूर्ख है, सीधा है यानी गधा है। आज कौन किसकी सोचता है। सच्चाई, ईमानदारी तो आज दुनिया में रह ही नहीं गयी है। भले लोगों की कोई कद्र नहीं है, वो तो आज भूखों मरते हैं। अपने फायदे के लिए लोगों का इस्तेमाल कर, लोगों को लूट। अगर तू दूसरे को लूटेगा नहीं, उससे फायदा नहीं उठायेगा, तो वो तुझे लूटेगा, तेरा फायदा उठायेगा। जितना बड़ा तू कमीना, चालबाज, गुण्डा, फरेबी और चापलूस बन सकता है, उतना बन क्योंकि दुनिया की यही रीत है, सभी लोग यही कर रहे हैं, तू भी कर। आज अगर इस दुनिया में जीना है तो ऐसे ही जीना होगा। भ्रष्टाचार, बेईमानी तेरी रगों में दौड़ना चाहिए। ऐशो-आराम तेरे लिए जीने का मकसद होना चाहिए इसके लिए तुझे जो बेचना पड़े, बेच। अपनी शिक्षा बेच, अपनी योग्यता बेच, अपनी ईमानदारी बेच, अपनी वफादारी बेच, अपनी हँसी बेच, अपनी ख़ुशी बेच, अपना विवेक बेच, अपना ज़मीर बेच; तू माल है माल, इसलिए ख़ुद को बेच; क्योंकि यह बाज़ार है और इसमें सबकुछ बिकता है। पैसा कमा पैसा! क्योंकि बिना पैसे तेरी कोई औकात नहीं!
आज हमें यही सबकुछ बताया जा रहा है, सिखाया जा रहा है। तमाम माध्यमों से यही सबकुछ हमें परोसा जा रहा है, हमारे दिमाग़ों में भरा जा रहा है। फिर चाहे सच उगलने वाला या जनता की आवाज़ बनने का दावा करने वाला कोई भी टीवी चैनल क्यों न हो, टीआरपी के आगे यानी बाज़ार के आगे साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति अपनाते हुए दिखायी देते हैं। अख़बारों की, किताबों की, पत्रिकाओं की, फिल्मों की यानी अन्य सभी माध्यमों की भी कमोबेश यही स्थिति है – बाज़ार के लिए ही सबकुछ लिखा और बेचा जा रहा है।
बाज़ार ही नियन्ता बनता जा रहा है – हमारी भावनाओं का, हमारी इच्छाओं का, हमाने विचारों का, हमारी अभिव्यक्तियों का। ब्राण्डेड सामानों के प्रति दीवानगी ‘दीवानगी’ शब्द को मात दे रही है। हम पेप्सी और कोकाकोला की बोतल हुए जा रहे हैं। हम एलजी का टीवी और नोकिया का फोन हुए जा रहे हैं। हम कार और फिर उससे भी बड़ी कार हुए जा रहे हैं। हम जोकी के कच्छे-बनियान और रिबोक के जूते हुए जा रहे हैं।
हम लगातार ठगे जा रहे हैं, छले जा रहे हैं। आज का यह समाज और इसकी व्यवस्था हमें बाव़फ़ी सबकुछ बना रही है, बस इन्सान नहीं बनने दे रही है। हमारे सपनों को, हमारी इच्छाओं को, हमारी अभिलाषाओं को कुन्द किया जा रहा है। सपनों की गहराई को और उड़ान की ऊँचाई को हम भूलते जा रहे हैं। हम जीना ही भूलते जा रहे हैं।
बड़ा-सा घर, बड़ी-सी कार और ऐशो-आराम हमारे सपने बनते जा रहे हैं। और जब तक हम इस बात को समझ पाते हैं कि हम ठगे गये हैं, तब तक हम उस चक्रव्यूह में फँस चुके होते हैं। हमारी खुशी से, हमारी सहमति से हमें कोल्हू का बैल बना दिया गया होता है। हम दुनिया से कट चुके होते हैं। भीड़ में रहते हुए हम अकेले होते हैं।
संघर्ष की बजाये समझौता हमारी तौरे-जिन्दगी बना दिया जाता है। और ऐसे ही जीते रहने के लिए हम मजबूर किये जा रहे हैं। मुनाफे पर आधारित इस व्यवस्था द्वारा कितने जलील किये जा रहे हैं हम! लेकिन आखिर कब तक? इस बारे में सोचना इंसान होने की शर्त है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्बर 2012
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!