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योग+क्रान्ति का सही ‘‘पोस्टमार्टम”
प्रिय साथी,
मैं ‘‘आह्वान” को अप्रैल-जून 2009 के अंक से पढ़ रहा हूँ तथा यथासम्भव पुराने अंक भी पढ़े। हर नये अंक के साथ ‘‘आह्वान” नयी उर्जस्विता तथा नये फौलादी संकल्प लिये होता है। यह युवा साथियों के सामूहिक श्रम तथा सृजनशीलता का ही नतीजा है। ‘‘आह्वान” का पाठक वृन्द भी इसके नेचर के अनुरूप ही होना चाहिए, एक तो मैं कहना चाहूँगा कि साल में एक बार तो ज़रूर ‘‘आह्वान” का पाठक सम्मेलन किया जाने की ज़रूरत है, ताकि पत्रिका में उठाये सवालों पर तथा ‘‘रास्ते” पर संजीदगी से सोचा जा सके। दूसरा, संवेदनशील पाठकों की भी यह महती जि़म्मेदारी बनती है कि ‘‘आह्वान” अधिक से अधिक नये मुक्तिकामी-उर्जस्वी तथा संकल्पशील युवाओं तक पहुँचे ताकि बदलाव के लिए मनोगत ताकतों को तैयार किया जा सके और सैकड़ों सालों के औपनिवेशिक गुलामी के संस्कारों व कूपमण्डूकताओं को युवा दिमाग़ों से उखाड़ा जा सके। इसके अलावा आह्वान का पिछला अंक शानदार था। बजट तथा पानी के निजीकरण पर आये लेख पूँजीवादी समाज की सटीक तस्वीर पेश करते हैं। अन्ना हज़ारे व उनकी ‘‘सिविल” सोसाइटी के सुधारवाद तथा बाबा रामदेव के योग+क्रान्ति का सही ‘‘पोस्टमार्टम” किया है।
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ
अरविन्द राठी जि़ला – झज्जर, (हरियाणा)
बाबा-बाबा! कित्ता पानी…
सम्पादक महोदय,
‘‘आह्वान” का मार्च-अप्रैल 2011 का अंक मिला। लम्बे इन्तज़ार के बाद मिला। लेकिन पत्रिका के नये अंक में मौजूद सामायिक मुद्दों पर लिखें लेखों ने अपने सामने उपस्थित सवालों का सीधा जबाब दिया। वैसे तो ‘‘आह्वान” का हर अंक विचारोत्तेजक होता है, यह अंक विगत अंकों से बढ़कर लगा।
इस समय देश में ‘‘भ्रष्टाचार” नामक बीमारी के खि़लाफ़ देश का कुलीन तबका जाग उठा है। अन्ना से लेकर रामदेव बाबा तक लम्बी-लम्बी साँसें लेकर देश बचाने की शपथ ले रहें हैं। जो अमीरजादे, मध्यवर्गीय जमात के धवल वस्त्रधारी महामान्य जन अपने घरों में ग़रीब बच्चों को घरेलू नौकर बनाकर रखते हैं। कभी नहीं सोच पाते हैं कि ऐसे बच्चों की तादाद कितनी है। उनके आँखों में कौन से सपने पलते हैं। इनके आस-पास से गुज़रने वाली कितनी आबादी है जो काम की तलाश में भेड़ों की रेवड़ के मानिन्द अलस्सुबह भागती नज़र आती है। इनकी कौन सी समस्याएँ हैं? कौन से सवाल है? देश, राष्ट्र, स्वाभिमान की जुगाली करने वाले कारपोरेट बाबा उर्फ योग गुरु रामदेव कभी यह सवाल धीरे से भी नहीं उठाते कि बेरोज़गारी, भुखमरी आत्महत्याओं का कारण क्या है? यह कैसी मशीनरी है जो एक तरफ़ इन्हें स्कूटर से आकाशगामी रथी बना देती है महज़ 10 बरस में, वहीं इसी मशीनरी के कलपुर्जों के चलते हर मिनट एक मज़दूर मौत की गोद में समा जाता है। भाई प्रसेन ने अपने लेख में ठीक ही लिखा है कि ये मेहनतकशों के रक्तस्नानी दिव्य पुरुष हैं, चारमुखी ब्रह्मा हैं। अन्ना हज़ारे पर लिखा गया लेख आज इसलिए ज़्यादा महत्त्वपूर्ण लगा कि ये तथाकथित देश के दर्द में दुबले हो रहे सफ़ेद बगुले असली भ्रष्टाचार पर परदा डाल रहे हैं। इनके देश का मतलब साफ़-सुथरा सन्त पूँजीवाद। जिसमें मुनाफ़ाख़ोर मुनाफ़ा कमाता रहे और काम करने वाली आबादी लगातार रसातल में छटपटाती रहे। क्या ये अनायास है कि अन्ना एण्ड कम्पनी के अभिनय पर प्रमुदित सेठों ने नोटों की बोरियाँ खोल दीं। और कलम घसीट ढिंढोरचीं अन्ना-वन्दना में तत्पर दिखें।
रामदेव बाबा जिन दिनों कालेधन को भारत में लाने के लिए मध्यवर्गीय जमात में हुँकार लगा रहे थे, ठीक उन्हीं दिनों दक्षिण के एक बाबा परलोकगामी हुए। पता चला कि माया-मोह से सदैव दूर रहने वाले आमजन को माया से मुक्ति का पाठ पढ़ाने वाले बाबा की घोषित सम्पत्ति 40,000 करोड़ आँकी गयी। हद तो तब हो गयी जब बाबा के शयन कक्ष की तलाशी ली गयी तो वहाँ माया का विपुल भण्डार मिला। सोना, चाँदी कईयों किलों की मात्र में। बताते हैं कि बाबा के शयनागार से कुल 38 करोड़ की माया मिली। क्या यह काला धन नहीं है जो भूख, ग़रीबी से कलपती जनता को मुक्ति की चासनी चटाकर ये बाबा लोग इस जनता को ठगकर वसूलते हैं। यहीं क्यों तमाम अम्माएँ, बापू, स्वामी, देश की भूखी-नंगी जनता को सन्तोष का पाठ पढ़ाते हुए किनकी सेवाओं में लगे हैं? इन धर्म ध्वजाधारी वीरों को आखि़र पहली लड़ाई तो अपने आस-पास शुरू करनी चाहिए। महाराज रामदेव इस पर जाँच कमेटी बनाने की माँग क्यों नहीं करते कि देश के तमाम मठों, मन्दिरों, गुरुद्वारों में कितनी सम्पत्ति दबी पड़ी है जिन पर ये खाये-अघाये दूध में नहाये पण्डाजन कुण्डली मारे बैठे हैं। हम उम्मीद करते हैं कि ‘‘आह्वान” के आगामी अंकों में इन चतुर सुजानों की और पोल-पट्टी खुलेगी।
इस बार कला-चिन्तन के कॉलम में वरिष्ठ चित्रकार अशोक भौमिक का लेख पढ़ने को मिला। अच्छा लेख है। ख़ासकर तब जब समकालीन कला बाज़ार की गिरफ्त में फँसकर आम जन से कट सी गयी है। ऐसे में लोकोन्मुखी कला से लगाव पैदा करना एक अच्छी शुरुआत है। कुल मिलाकर ‘‘आह्वान” का यह अंक बेहद अच्छा बन पड़ा है सिवाय एक कमी के कि पत्रिका का इन्तज़ार करना पड़ता है, देर तक। क्या मैं ग़लत हूँ?
अभिवादन सहित
राधेश्याम, फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
गुमराही के समुन्दर से मीठा पानी निकालने के लिए कड़ी मशक्कत करनी है…
सम्पादक महोदय,
‘‘आह्वान” का मार्च-अप्रैल, 2011 का अंक मिला। पढ़कर वाकई लगा कि आज आम जनता ख़ासकर मेहनतकश जनता को किस कदर गुमराह किया जा रहा है। इस अंक ने इतना सटीक व समाजवादी विश्लेषण प्रस्तुत किया है जिसके ज़रिये तमाम सुधारवादियों के असल चेहरों से नकाब हटता हुआ महसूस हुआ। खाते-पीते मध्यवर्ग के धरने-प्रदर्शन का सच जिस तरीके से उजागर किया गया, वह बेमिसाल है। ‘‘आह्वान” पढ़ते हुए लगा कि वाकई यही मज़दूर वर्ग की आवाज़ है। दो माह बाद ही सही, पूँजीवादी हिन्दुस्तानी मीडिया से राहत की साँस मिलती है। वरना तो यह मीडिया वही बोलता है जो बिकता है। यानी मुनाफ़े की ख़ातिर। टी.वी. चैनल हो या अख़बार तरीके-तरीके के इस्तेहारों से अँटे पड़े हैं। कई बार तो लगता है कि ख़बरें नहीं विज्ञापन देखने-पढ़ने के पैसे दे रहे हैं। इस बात से बाआसानी अन्दाज़़ा लगाया जा सकता है कि समाजवादियों को कितना काम करना है, इतने बड़े गुमराही के समुन्दर में मीठा पानी निकालने के लिए जितनी मशक्कत की ज़रूरत है वैसे ही। वरना तो असंख्य तथाकथित देशभक्त व समाज सुधारक, भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोज़गारी, आरक्षण जैसे पूँजीवाद जनित बीमारियों को असल मुद्दा बताकर पूँजीवाद व पूँजी के मददगार साबित होते रहेंगे। तथा मज़दूरों को शोषण व गुलामी भरी जि़न्दगी जीने को मज़बूर करते रहेंगे। ‘‘आह्वान” बहुत बड़ा कदम है। आप सभी लोग इतना बड़ा काम कर रहे हैं कि इसका अन्दाज़ा तब लगेगा जब सड़े-गले पतनशील पूँजीवाद के खि़लाफ़ हर तरफ़ गगनभेदी आवाज़ें बुलन्द होंगी। क्योंकि पतनशील पूँजीवाद मज़दूरों को कुछ भी देने की हालत में नहीं रहा और अपनी आखि़री साँसें गिन रहा है। भौतिक अवस्थाएँ मज़दूर वर्ग के पक्ष की हैं बस ज़रूरत है तो उन्हें सही तरीके से इस्तेमाल करने की यानी अन्ना हज़ारे और रामदेव, भ्रष्टाचार या लोकपाल बिल जैसे गुमराह करने वाले तत्वों व रास्तों के बारे में आम मेहनतकशों को आगाह व ख़बरदार व शिक्षित करना ताकि कार्ल मार्क्स के असल वैज्ञानिक समाजवाद के रास्ते पर चलकर अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। मज़दूरों को बनी-बनायी राज्य मशीनरी से भी ख़बरदार रहना है, लिहाज़ा उनको अपने प्रचार-प्रसार के लिए ख़ुद अपने परचे व अख़बार चलाने होते हैं और समाज में चल रहे घटनाक्रम का सटीक आकलन व वैज्ञानिक समीक्षा अपने पूरे वर्ग हित को ख़याल में रखकर पेश कर सकें। अन्त में आपकी पूरी टीम को धन्यवाद देना चाहता हूँ कि आपने गोरखपुर में आन्दोलनरत मज़दूरों के संघर्ष में अपनी पूरी हिमायत दी, जिसकी वजह से वह आन्दोलन दबाया न जा सका वरना हिन्दोस्तान के कितने ही मज़दूर, मिल मालिकों की ज़बरदस्त ज़ोर-ज़बरदस्ती के चलते अपना श्रम औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर हैं। ‘‘आह्वान” के अगले अंक के इन्तज़ार में –
सी.एस. गोस्वामी,
आई.आई.टी., कानपुर, उत्तर प्रदेश
हक डकारने वाले ही उपकार का स्वाँग रचते हैं
प्रिय साथी सम्पादक
‘‘आह्वान” एक बेहतरीन पत्रिका है इसे नकारा नहीं जा सकता। यह एक नये छात्र-युवा आन्दोलन के लिए बहुत ही सहायक है। मुझे ‘‘आह्वान” इसलिए पसन्द है क्योंकि यह पुस्तक अन्य पत्र-पत्रिकाओं की तरह ख़बरों को घुमा-फिराकर मसालेदार चटपटा बनाने का काम नहीं करती, बल्कि सीधे सरल रूप से उस मुद्दे के उस दूसरे पहलू को बयाँ करती है। जिसे दबाने के लिए पुलिस, मीडिया तथा गली-मुहल्लां के छोटे-बड़े नेता पूरी मेहनत और लगन के साथ इस काम को करते रहते हैं, क्योंकि वे डरते हैं कि कहीं उनके उन बड़े-बड़े पूँजीपतियों तथा मन्त्रियों का असली चेहरा सबके सामने न आ जाये जिसे वे छोटे-छोटे कामों के ज़रिये छिपाये रखते हैं। जैसे – ग़रीब लड़कियों की शादी करने से लेकर, कम्बल, साड़ी, टी-शर्ट वग़ैरह बाँटना आदि भाँति-भाँति के कार्य करते रहते हैं। ये तो वही बात हो गयी दोस्तों मुँह में राम बग़ल में छूरी। पहले हमारे हक की चीज़ों का डकार जाते हो फिर हमीं पर उपकार भी कर जाते हो। ऐसी ख़बरें कभी-कभी घोटालों का रूप लेकर सामने भी आ जाया करती हैं, लेकिन इससे क्या होता है, क्या वे सारी चीज़ें हमें वापस मिल जाती हैं, नहीं।
‘‘आह्वान” आम जनता ख़ासकर छात्रों-नौजवानों को जागरूक करने और संघर्ष के लिए प्रयत्नशील है। इस संघर्ष में मैं आपके साथ हूँ। मुख्य काम इस सड़ी-गली व्यवस्था को उखाड़ फेंकना है और एक नये समाज की स्थापना के लिए मेहनतकश जनता को एकजुट करना है ताकि संघर्ष के रास्ते पर चलकर एक नये समाज का निर्माण किया जा सके।
क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ
प्रेम, झिलमिल, शाहदरा, दिल्ली
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011
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