बाल श्रमिकों के हालात पर साम्राज्यवादियों का स्यापा
सूफी
“छोटू! चाय लाना, और एक पराठा भी।” अक्सर चायखानों और ढाबों पर बैठे हम अपनी बातचीत या परेशानियों में मशगूल इन चेहरों की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते। छोटू एक बच्चा है। शायद ही कभी हमारे दिमाग में यह बात आती हो। एक बच्चा जिससे उसके बचपन की सारी शरारतें, नटखटपन, शिक्षा, सपने छीन लिये गए हैं। नन्हीं–सी उम्र में कमरतोड़ मेहनत, ख़राब भोजन और गालियाँ; शिक्षा और मनोरंजन की तो बात करना ही बेमानी है-ऐसी परिस्थितयों मे बचपन के खिलखिलाते, बेफिक्र मासूम चेहरों की जगह हमें पीले, बीमार चेहरे और निराशा से बुझी आँखें दिखती हैं।
इन बच्चों को लेकर सरकार और तमाम अन्तरराष्ट्रीय संगठन, जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन आदि साल भर में दो बार “चिन्ता” व्यक्त करके और टीवी पर बाल श्रम के ख़िलाफ मार्मिक प्रचार दिखाकर अपना “कर्तव्य” पूरा कर लेते हैं। और ऐसे बच्चों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती रहती है और उनकी जीवन स्थितियों में और गिरावट आती जाती है।
हाल ही में अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) की बाल श्रम पर दूसरी रिपोर्ट आई है। इस रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि पिछले चार वर्षों में ख़तरनाक कामों में लगे बाल श्रम में 26 प्रतिशत की कमी आई है। रिपोर्ट को बड़े ही सकारात्मक शीर्षक से सजाया गया है-‘बाल श्रम की समाप्ति : पहुँच के भीतर’ (एण्ड ऑफ चाइल्ड लेबर : विदिन रीच)। लेकिन आईएलओ के बाहर कई लोगों का मानना है कि ख़तरनाक और गै़र–ख़तरनाक कामों के बीच का विभाजन बेहद बनावटी है क्योंकि ऐसी कोई भी परिस्थिति जो बच्चों को अपना श्रम बेचने को मजबूर करती है, चाहे दिखने में वह जोखिम से कितनी भी ख़ाली क्यों न हो, बच्चों के लिए ख़तरनाक ही होती है। साथ ही और कई मामलों में व्याख्या की यह समस्या विद्यमान रहती है। कारण यह है कि आर्थिक रूप से सक्रिय सभी बच्चे बाल श्रम की सीमा में नहीं आते। और इसी अस्पष्टता के कारण ख़तरनाक और “गैर–ख़तरनाक” कहे जाने वाले व्यवसायों में बाल श्रम बढ़ रहा है। 3170 लाख आर्थिक रूप से सक्रिय 5 से 17 वर्ष के बच्चों में से 2180 लाख ही बाल श्रमिक हैं जिनमें से 1260 लाख ख़तरनाक कामों में लगे हैं। आईएलओ चाहे कितनी भी सकारात्मक तस्वीर क्यों न खींचे, साफ जाहिर है कि ख़तरनाक कामों में बाल श्रम की संख्या पर्याप्त रूप से अधिक है और समग्रता में बाल श्रम लगातार बढ़ रहा है।
हमारी सरकार के माथे पर बाल श्रम को लेकर पड़ी शिकन थोड़ी और गहरा गई है। इन बाल श्रमिकों के दुखों और तकलीफों से “दुखी” होकर, इनकी स्थिति सुधारने के लिए इसने एक आदेश जारी किया जिसके तहत इसी 10 अक्टूबर से बच्चों को घरेलू नौकर या सड़क के किनारे की दुकानों और ढाबों में काम करवाने पर पाबन्दी लगा दी गई है। यह पाबन्दी श्रम मन्त्रालय ने बाल श्रम (निषेध और नियमन) कानून 1986 के तहत लगाई है। यह चेतावनी दी गई है कि यदि कोई बच्चों को रोजगार देगा तो उस पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी।
इस तरह के कानूनों की प्रभाविता से हम अच्छी तरह वाकिफ हैं। इस पर अधिक प्रकाश डालने की कोई आवश्यकता नहीं है। सड़क के किनारे और दुकानों पर काम करने वाले बच्चों के बारे में तो सरकार ने बात की है लेकिन ख़तरनाक उद्योगों में लगे बाल मजदूरों की भारी तादाद के बारे में वह चुप है। और सोचने की बात यह है कि इन बच्चों को इन अमानवीय स्थितियों में डालने के लिए असल में कौन जिम्मेदार है।
बीड़ी, कालीन, सीमेण्ट, माचिस, पटाखा, फुटबॉल, चूड़ी आदि जैसे कई उद्योगों में ज़्यादातर बच्चों को ही लगाया जाता है। इसके पीछे कम से कम मजदूरी में ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाने का मक़सद काम कर रहा होता है क्योंकि बच्चों का श्रम सस्ता होता है। इन उद्योगों में काम कर रहे बच्चों से बेहद अमानवीय परिस्थितियों में 14–16 घण्टे काम लिया जाता है। 8–10 वर्ष के ये बच्चे जवान होते–होते टी.बी., कुपोषण, पेट की बीमारियों, एस्बेस्टोसिस, आदि का शिकार हो जाते हैंय उनकी आँखें कमजोर हो जाती हैं और उन्हें साँस की बीमारियाँ भी लग जाती हैं। इनमें से ज़्यादातर बच्चे असमय ही मर जाते हैं।
घरों, दुकानों और ढाबों में काम करने वाले बच्चों की हालत भी कोई अच्छी नहीं होती। ये बच्चे दिन भर डाँट, मार और गालियाँ सुनते हुए कठिन और जिल्लत भरी जिन्दगी जीने के लिए मजबूर होते हैं। घरों में अपनी उम्र या उससे भी बड़े बच्चों की ये सेवा करते हैं। इनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। इन अमानवीय परिस्थितयों में इनसे इन्सान होने का दर्जा भी छीन लिया जाता है। शिक्षा और स्वास्थ्य के बारे में कौन पूछे। इसके अलावा काम की जगहों पर होने वाले यौन शोषण की घटनाएँ दिल दहलाने वाली होती हैं और इस मामले में लड़कियों की स्थिति और ख़राब होती है।
क्या इन बच्चों को इन परिस्थितियों में काम करने का शौक होता है ? क्या इनके माँ–बाप को इनसे कोई प्यार या लगाव नहीं होता, जो वे इन्हें खेलने–कूदने की बजाय चन्द रुपयों के लिए इस जोखिम भरी जिन्दगी में डाल देते हैं ? क्या इन बच्चों की कमाई पर इनके माँ–बाप आराम की जिन्दगी बसर करते हैं ? इन सवालों के जवाब के लिए हमें उद्योगों या घरों में काम पर लगे इन बच्चों की आर्थिक–सामाजिक पृष्ठभूमि को देखना होगा। ये वे बच्चे हैं जिनके माँ–बाप और पूरा परिवार दिन–रात हाड़–तोड़ मेहनत के बाद भी दो जून की रोटी नहीं जुटा पाते। जिस समय उन्हें बच्चों को स्कूल भेजना चाहिए, वे उन्हें फैक्ट्री, होटलों, ढाबों आदि के हवाले कर देते हैं। अगर वे ऐसा न करें तो उनके लिए जी पाना भी मुश्किल हो जाएगा। वहीं दूसरी ओर इन नन्हें हाथों की मेहनत पर उद्योगों के मालिक मुनाफा पीटते हैं और दुनिया भर के ऐशो–आराम जुटाते हैं। समय–समय पर हमारी सरकार, आईएलओ, संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे पाखण्डी बच्चों के शोषण, महिलाओं के उत्पीड़न और दलितों के उत्पीड़न पर स्यापा करके अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। अगर हम इन अन्तरराष्ट्रीय मंचों को करीब से देखें तो पाएँगे कि इन संगठनों को फण्डिंग वही साम्राज्यवादी शक्तियाँ दे रही हैं जिनके संरक्षण में तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, कारपोरेशन, आदि अपनी ‘स्वेट शॉप्स’ में बच्चों की धमनियों और शिराओं से एक–एक बूँद रक्त निचोड़ लेने का काम धड़ल्ले से करती हैं। इनके तहत काम करने वाले गैर–सरकारी संगठन, एनजीओ, आदि जो इन्हीं के टुकड़ों पर पलने वाले पालतू जीव हैं, बाल श्रम पर बड़े–बड़े बुलक्के टपकाते हैं ताकि उनके आकाओं की कारस्तानी से असंतुष्ट जनता उनका तख्ता न पलट दे।
भूमण्डलीकरण के इस दौर में देशी–विदेशी पूँजी की साझीदारी में मजदूरों, बच्चों और स्त्रियों का शोषण हो रहा है। एक विशालकाय आबादी मानवाधिकारों से वंचित है। ऐसे में कुछ ऐसे कदम इन लुटेरों को उठाने पड़ते हैं जो भूमण्डलीकरण का “मानवीय चेहरा” दिखाए और लोगों को विद्रोह की ओर मुड़ने से रोके। यह जनता का डर ही है जो तमाम अन्तरराष्ट्रीय मंचों को बाल श्रम, स्त्री श्रम आदि पर रुदालियों की तरह स्यापा करने पर मजबूर करता है। यही कारण है कि बाल श्रम और स्त्री व दलित उत्पीड़न को लेकर अलग–अलग तमाम एन.जी.ओ. कुकुरमुत्ते की तरह गली–गली में उगे हुए हैं। ऐसे में जनता के युवा बेटे–बेटियों को इस साजिश को समझना होगा और यह समझना होगा कि इन बच्चों का भविष्य इस व्यवस्था की चैहद्दियों के भीतर नहीं बल्कि बाहर तलाश किया जाना है।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2006
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