गूँगे

रांगेय राघव

‘शकुन्तला क्या नहीं जानती?’
‘कौन? शकुन्तला! कुछ भी नहीं जानती।’
‘क्यों साहब? क्या नहीं जानती? ऐसा क्या काम है जो वह नहीं कर सकती?’
‘वह उस गूँगे को नहीं बुला सकती।’
‘अच्छा बुला दिया तो?’
‘बुला दिया!’
बालिका ने एक बार कहनेवाली की ओर द्वेष से देखा और चिल्ला उठी — दूं दे!
गूँगे ने नहीं सुना। तमाम स्त्रियाँ खिलखिलाकार हँस पड़ीं। बालिका ने मुँह छिपा लिया।
जन्म से वज्र बहरा होने के कारण वह गूँगा है। उसने अपने कानों पर हाथ रखकर इशारा किया। सब लोगों को उसमें दिलचस्पी पैदा हो गयी, जैसे तोते को राम-राम कहते सुनकर उसके प्रति हृदय में एक आनन्द-मिश्रित कुतूहल उत्पन्न हो जाता है।
चमेली ने अँगुलियों से इंगित किया-फिर?
मुँह के आगे इशारा करके गूँगे ने बताया-भाग गयी। कौन? फिर समझ में आया। जब छोटा ही था तब ‘माँ’ जो घूँघट काढ़ती थी, छोड़ गई। क्योंकि ‘बाप’, अर्थात् बड़ी-बड़ी मूँछें, मर गया था। और फिर उसे पाला है-किसने? यह तो समझ में नहीं आया, पर वे लोग मारते बहुत हैं।
करुणा ने सबको घेर लिया। वह बोलने की कितनी जबरदस्त कोशिश करता है! लेकिन नतीज़ा कुछ नहीं, वह केवल कर्कश कांय-कांय का ढेर अस्फुट ध्वनियों का वमन, जैसे आदिम मानव अभी भाषा बनाने में जी-जान से लड़ रहा हो।
चमेली ने पहली बार अनुभव किया कि यदि गले में काकल तनिक ठीक नहीं हो तो मनुष्य क्या से क्या हो जाता है। कैसी यातना है कि वह अपने हृदय को उगल देना चाहता है किन्तु उगल नहीं पाता।
सुशीला ने आगे बढ़कर इशारा किया — मुँह खोल! और गूँगे ने मुँह खोल दिया। लेकिन उसमें कुछ दिखाई नहीं दिया। पूछा, गले में कौआ है? गूँगा समझ गया। इशारे से ही बता दिया-किसी ने बचपन में गला साफ़ करने की कोशिश में काट दिया। और वह ऐसे बोलता है जैसे घायल पशु कराह उठता है, शिकायत करता है, जैसे कुत्ता चिल्ला रहा हो और कभी-कभी उसके स्वर में ज्वालामुखी के विस्फोट की-सी भयानकता थपेड़े मार उठती है। वह जानता है कि वह सुन नहीं सकता। और बताकर मुस्कराता है। वह जानता है कि उसकी बोली को कोई नहीं समझता फिर भी बोलता है।
सुशीला ने कहा, ‘इशारे ग़ज़ब के करता है। अक़्ल बहुत तेज़ है।’ पूछा-खाता क्या है, कहाँ से मिलता है?
वह कहानी ऐसी है जिसे सुनकर सब स्तब्ध बैठे हैं। हलवाई के यहाँ रात-भर लड्डू बनाये हैं; कड़ाही माँजी है, नौकरी की है, कपड़े धोये हैं, सबके इशारे हैं, लेकिन-
गूँगे का स्वर चीत्कार में परिणत हो गया है। सीने पर हाथ मारकर इशारा किया-हाथ फैलाकर कभी नहीं माँगा, भीख नहीं लेता; भुजाओं पर हाथ रखकर इशारा किया — मेहनत का खाता हूँ, और पेट बजाकर दिखाया, इसके लिए, इसके लिए…
अनाथाश्रम के बच्चों को देखकर चमेली रोती थी। आज भी उसकी आँखों में पानी आ गया। वह सदा से ही कोमल है। सुशीला से बोली-इसे नौकर भी तो नहीं रखा जा सकता।
पर गूँगा उस समय समझ रहा था। वह दूध ले आता है। कच्चा मँगाना हो थन काढ़ने का इशारा कीजिए, औटा हुआ मँगाना हो, हलवाई जैसे एक बर्तन से दूध दूसरे बर्तन में उठाकर डालता है, वैसी बात कहिए। साग मँगाना हो गोल-गोल कीजिए या लम्बी उँगली दिखाकर समझाइए…और भी…और भी… और चमेली ने इशारा किया-हमारे यहाँ रहेगा?
गूँगे ने स्वीकार तो किया किन्तु हाथ से इशारा किया — क्या देगी? खाना?
‘हाँ’, चमेली ने सिर हिलाया।
‘कुछ पैसे?’
चार उँगलियाँ दिखा दीं। गूँगे ने सीने पर हाथ मारकर जैसे कहा — तैयार हैं। चार रुपए।
सुशीला ने कहा — पछताओगी। भला यह क्या काम करेगा?
‘मुझे तो दया आती है बेचारे पर’, चमेली ने उत्तर दिया — न हो बच्चों की तबीयत बहलेगी।
घर पर बुआ मारती थी, फूफा मारता था, क्योंकि उन्होंने उसे पाला था। वे चाहते थे कि बाजार में पल्लेदारी करे, बारह-चौदह आने कमा कर लाये और उन्हें दे दे, बदले में वे उसके सामने बाजरे और चने की रोटियाँ डाल दें। अब गूँगा घर भी नहीं जाता। यहीं काम करता है। बच्चे चिढ़ाते हैं। कभी नाराज़ नहीं होता। चमेली के पति सीधे-सादे आदमी हैं। पल जायेगा बेचारा, किन्तु वे जानते हैं कि मनुष्य की करुणा की भावना उसके भीतर गूँगेपन की प्रतिच्छाया है, जब वह बहुत कुछ करना चाहता है, किन्तु कर नहीं पाता। इसी तरह दिन बीत रहे हैं।
चमेली ने पुकारा — गूँगे?
किन्तु कोई उत्तर नहीं आया, उठकर ढूँढा — कुछ पता नहीं लगा।
बसन्ता ने कहा — मुझे तो कुछ नहीं मालूम।
‘भाग गया होगा’, पति को उदासीन स्वर सुनायी दिया। सचमुच वह भाग गया था। कुछ भी समझ में नहीं आया। चुपचाप जाकर खाना पकाने लगी। क्यों भाग गया! नाली का कीड़ा? वह छत उठाकर सिर पर रख दी, फिर भी मन नहीं भरा। दुनिया हँसती है, हमारे घर को अब अजायबघर का नाम मिल गया है… किसलिए…
जब बच्चे, और वह भी खाकर उठ गए तो चमेली बची रोटियाँ कटोरदान में रखकर उठने लगी। एकाएक द्वार पर कोई छाया हिल उठी। वह गूँगा था। हाथ से इशारा किया-भूखा हूँ।
‘काम तो करता नहीं, भिखारी।’ फेंक दी उसकी ओर रोटियाँ। रोष से पीठ मोड़कर खड़ी हो गई। किन्तु गूँगा खड़ा रहा। रोटियाँ छुईं तक नहीं। देर तक दोनों चुप रहे। फिर न जाने क्यों गूँगे ने रोटियाँ उठा लीं और खाने लगा। चमेली ने गिलासों में दूध भर दिया। देखा, गूँगा खा चुका है। उठी और हाथ में चिमटा लेकर उसके पास खड़ी हो गई।
‘कहाँ गया था?’ चमेली ने कठोर स्वर से पूछा।
कोई उत्तर नहीं मिला। अपराधी की भाँति सिर झुक गया। सड़ से एक चिमटा उसकी पीठ पर जड़ दिया। किन्तु गूँगा रोया नहीं। वह अपने अपराध को जानता था। चमेली की आँखों में से दो बूँदें ज़मीन पर टपक गयीं। तब गूँगा भी रो दिया।
और फिर यह भी होने लगा कि गूँगा जब चाहे भाग जाता, फिर लौट आता। उसे जगह-जगह नौकरी करके भाग जाने की आदत पड़ गयी थी। और चमेली सोचती कि उसने उस दिन भीख ली थी या ममता की ठोकर को निस्संकोच स्वीकार कर लिया था?
बसन्ता ने कसकर गूँगे को चपत जड़ दी। गूँगे का हाथ और न जाने क्यों अपने-आप रुक गया। उसकी आँखों में पानी भर आया और वह रोने लगा। उसका रुदन इतना कर्कश था कि चमेली को चूल्हा छोड़कर उठ आना पड़ा। गूँगा उसे देखकर इशारों से कुछ समझाने लगा। देर तक चमेली उससे पूछती रही। उसकी समझ में इतना ही आया कि खेलते-खेलते बसन्ता ने उसे मार दिया था।
बसन्ता ने कहा — अम्मां! यह मुझे मारना चाहता था।
‘क्यों रे?’ चमेली ने गूँगे की ओर देखकर कहा। वह इस समय भी नहीं भूली कि गूँगा कुछ सुन नहीं सकता। लेकिन गूँगा भाव-भंगिमा से समझ गया। उसने चमेली का हाथ पकड़ लिया। एक क्षण को चमेली को लगा जैसे उसी के पुत्र ने आज उसका हाथ पकड़ लिया था। एकाएक घृणा से उसने हाथ छुड़ा लिया। पुत्र के प्रति मंगलकामना ने उसे ऐसा करने को मजबूर कर दिया।
कहीं उसका भी बेटा गूँगा होता, वह भी ऐसे ही दुख उठाता। वह कुछ भी नहीं सोच सकी। एक बार फिर गूँगे के प्रति हृदय में ममता भर आई। वह लौटकर चूल्हे पर जा बैठी, जिसमें अन्दर आग थी, लेकिन उसी आग से वह सब पक रहा था जिससे सबसे भयानक आग बुझती है-पेट की आग, जिसके कारण आदमी ग़ुलाम हो जाता है। उसे अनुभव हुआ कि गूँगे में बसन्ता से कहीं अधिक शारीरिक बल था। कभी भी गूँगे की भाँति शक्ति से बसन्ता ने उसका हाथ नहीं पकड़ा था। लेकिन फिर भी गूँगे ने अपना उठा हाथ बसन्ता पर नहीं चलाया।
रोटी जल रही थी। झट से पलट दी। वह पक रही थी; इसी से बसन्ता बसन्ता है…गूँगा गूँगा है…
चमेली को विस्मय हुआ। गूँगा शायद यह समझता है कि बसन्ता मालिक का बेटा है, उस पर हाथ नहीं चला सकता। मन ही मन थोड़ा विक्षोभ भी हुआ, किन्तु पुत्र की ममता ने इस विषय पर चादर डाल दी। और फिर याद आया, उसने उसका हाथ पकड़ा था। शायद इसीलिए कि उसे बसन्ता को दण्ड देना ही चाहिए, यह उसको अधिकार है…।
किन्तु वह तब समझ नहीं सकी, और उसने सुना गूँगा कभी-कभी कराह उठता था। चमेली उठकर बाहर गई। कुछ सोचकर रसोई में लौट आई और रात की बासी रोटी लेकर निकली।
‘गूँगे!’ उसने पुकारा।
कान के न जाने किस पर्दे में कोई चेतना है कि गूँगा उसकी आवाज़ को कभी अनुसना नहीं कर सकता; वह आया। उसकी आँखों में पानी भरा था। जैसे उनमें एक शिकायत थी, पक्षपात के प्रति तिरस्कार था। चमेली को लगा कि लड़का बहुत तेज़ है। बरबस ही उसके होठों पर मुस्कान छा गई। कहा, ‘ले खा ले।’-और हाथ बढ़ा दिया।
गूँगा इस स्वर की, इस सबकी उपेक्षा नहीं कर सकता। वह हँस पड़ा। अगर उसका रोना एक अजीब दर्दनाक आवाज़ थी तो यह हँसना और कुछ नहीं-एक अचानक गुर्राहट-सी चमेली के कानों में बज उठी। उस अमानवीय स्वर को सुनकर वह भीतर ही भीतर काँप उठी।
(शेष पेज 35 पर)
(पेज 33 का शेष)
यह उसने क्या किया था? उसने एक पशु पाला था, जिसके हृदय में मनुष्यों की-सी वेदना थी। घृणा से विक्षुब्ध होकर चमेली ने कहा, ‘क्यों रे तूने चोरी की है?’
गूँगा चुप हो गया। उसने अपना सिर झुका लिया। चमेली एक बार क्रोध से काँप उठी, देर तक उसकी ओर घूरती रही। सोचा, ‘मारने से यह ठीक नहीं हो सकता। अपराध को स्वीकार कराके दण्ड दे देना ही शायद कुछ असर करे। और फिर कौन मेरा अपना है। रहना हो तो ठीक से रहे, नहीं तो फिर जाकर सड़क पर कुत्तों की तरह जूठन पर ज़िन्दगी बिताये, दर-दर अपमानित और लांछित…।’
आगे बढ़कर गूँगे का हाथ पकड़ लिया और द्वार की ओर इशारा करके दिखाया, ‘निकल जा!’
गूँगा जैसे समझा नहीं। बड़ी-बड़ी आँखों को फाड़े देखता रहा। कुछ कहने को शायद एक बार होठ भी खुले, किन्तु कोई स्वर नहीं निकला। चमेली वैसे ही कठोर रही। अबके मुँह से भी साथ-साथ, ‘जाओ निकल जाओ। ढंग से काम नहीं करना है, तो तुम्हारा यहाँ कोई काम नहीं। नौकर की तरह रहना है, रहो, नहीं बाहर जाओ। यहाँ तुम्हारे नखरे कोई नहीं उठा सकता। किसी को भी इतनी फ़ुर्सत नहीं है। समझे?’
और फिर चमेली आवेश में आकर चिल्ला उठी, ‘मक्कार, बदमाश! पहले कहता था, भीख नहीं माँगता, और सबसे भीख माँगता है। रोज-रोज भाग जाता है, पत्ते चाटने की आदत पड़ गई है। कुत्ते की दुम क्या कभी सीधी होगी? नहीं। नहीं रखना है हमें, जा, तू इसी वक़्त निकल जा…।’
किन्तु वह क्षोभ, वह क्रोध, सब उसके सामने निष्फल हो गए, जैसे मन्दिर की मूर्ति कोई उत्तर नहीं देती, वैसे ही उसने भी कुछ नहीं कहा। केवल इतना समझ सका कि मालकिन नाराज़ है और निकल जाने को कह रही है। इसी पर उसे अचरज और अविश्वास हो रहा है।
चमेली अपने-आप लज्जित हो गई। कैसी मूर्खा है वह! बहरे से जाने क्या-क्या कह रही थी? वह क्या कुछ सुनता है?
हाथ पकड़कर ज़ोर से एक झटका दिया और उसे दरवाज़े के बाहर धकेलकर निकाल दिया। गूँगा धीरे-धीरे चला गया। चमेली देखती रही।
क़रीब घण्टे भर बाद शकुन्तला और बसन्ता दोनों चिल्ला उठे, ‘अम्मा! अम्मा!!’
‘क्या है?’ चमेली ने ऊपर ही से पूछा।
‘गूँगा…’ बसन्ता ने कहा। किन्तु कहने के पहले ही नीचे उतरकर देखा, ‘गूँगा ख़ून से भीग रहा था। उसका सिर फट गया था। वह सड़क के लड़कों से पिटकर आया था, क्योंकि गूँगा होने के नाते वह उनसे दबना नहीं चाहता था…दरवाज़े की दहलीज पर सिर रखकर वह कुत्ते की तरह चिल्ला रहा था…।
और चमेली चुपचाप देखती रही, देखती रही कि इस मूक अवसाद में युगों का हाहाकार भरकर गूँज रहा है।
और गूँगे…अनेक-अनेक हो, संसार में भिन्न-भिन्न रूपों में छा गये हैं, जो कहना चाहते हैं, पर कह नहीं पाते। जिनके हृदय की प्रतिहिंसा न्याय और अन्याय को परख कर भी अत्याचार को चुनौती नहीं दे सकती, क्योंकि बोलने के लिए स्वर होकर भी-स्वर में अर्थ नहीं है, क्योंकि वे असमर्थ हैं।
और चमेली सोचती है, आज दिन ऐसा कौन है जो गूँगा नहीं है। किसका हृदय समाज, राष्ट्र, धर्म और व्यक्ति के प्रति विद्वेष से, घृणा से नहीं छटपटाता, किन्तु फिर भी कृत्रिम सुख की छलना अपने जालों में उसे नहीं फाँस देती-क्योंकि वह स्नेह चाहता है, समानता चाहता है!

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2023

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