फ़ासिस्ट मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 व 35ए निरस्त किये जाने के दो साल
भारतीय राज्य द्वारा कश्मीरी क़ौम के दमन के इस नये क़दम से क्या बदले हैं कश्मीर के सूरतेहाल?

शिवानी कौल

इस साल 5 अगस्त को मोदी सरकार द्वारा कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाये जाने के दो साल पूरे हो गये और साथ ही जम्मू-कश्मीर राज्य को तीन टुकड़ों में बाँटे जाने और केन्द्र शासित प्रदेश में तब्दील किये जाने के भी दो साल पूरे हो गये। भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी क़ौम से किये गये अनगिनत विश्वासघातों की लम्बी फेहरिस्त में 5 अगस्त, 2019 को तब एक नयी कड़ी जुड़ गयी थी जब केन्द्रीय गृह मन्त्री अमित शाह ने संसद में अनुच्छेद 370 और 35ए निरस्त करने की घोषणा की थी।
इस क़दम के तत्काल बाद ही कश्मीर को सैन्य छावनी में तब्दील कर दिया गया था और वहाँ दस लाख से ज़्यादा सैन्यकर्मियों की तैनाती कर दी गयी थी। लोगों को अपने ही घरों में क़ैद कर दिया गया था। हजारों कश्मीरियों को भारत की जेलों में ठूँस दिया गया क्योंकि कश्मीर की जेलों में जगह बची नहीं थी। राजनीतिक कार्यकर्ताओं, उद्यमियों, आम नागरिकों को नज़रबन्द या गिरफ़्तार कर दिया गया। यहाँ तक कि उन राजनीतिक प्रतिनिधियों और मुख्यधारा के कश्मीरी नेताओं को भी नहीं बख़्शा गया जो भारतीय शासकों के प्रति समझौतापरस्त और नर्म रुख़ रखते थे। इस दौरान कश्मीरी मीडिया को भी पूरी तरह से ब्लैक आउट कर दिया गया था। दर्जनों कश्मीरी पत्रकारों के ख़िलाफ़ यूएपीए के काले क़ानून के तहत फ़र्ज़ी मुकद्दमे लगाए गये। संचार के सभी माध्यम बन्द कर दिये गये, फ़ोन-मोबाइल-इण्टरनेट सेवाएँ बन्द कर दी गयीं। पूरे कश्मीर को ही जेलखाने में तब्दील कर दिया गया। भारतीय मीडिया इसे कश्मीर में ‘लॉकडाउन’ की संज्ञा दे रहा था, जबकि यह लॉकडाउन नहीं, विशुद्ध क़ब्ज़ा है।
हालाँकि कश्मीरियों के लिए दहशत के इस माहौल में नया कुछ नहीं था। कश्मीरी क़ौम की कई पीढ़ियाँ इसी माहौल में पैदा हुईं हैं और पली-बढ़ी हैं। और न ही कश्मीरियों के लिए भारतीय राज्यसत्ता द्वारा की गयी यह धोखाधड़ी ही अप्रत्याशित थी। आज़ादी के बाद से ही और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस के समय से ही कश्मीरी क़ौम ने भारतीय राज्य के तमाम छल-कपट और वायदाख़िलाफ़ियाँ काफ़ी क़रीब से देखी हैं क्योंकि कश्मीरी क़ौम, उसकी आकांक्षाओं और आत्म-निर्णय के उसके अधिकार के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात की शुरुआत तो कांग्रेस के समय से ही हो गयी थी। अनुच्छेद 370 को वास्तव में कमज़ोर और निष्प्रभावी बनाने की शुरुआत उसी दौर से हो चुकी थी, जिसे बाक़ी भारतीय हुक्मरानों द्वारा जारी रखा गया था और जिसे फ़ासीवादी मोदी सरकार ने शीर्ष पर पहुँचाकर अब तक के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये।
“दूध माँगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर माँगोगे तो चीर देंगे” वाले अन्धराष्ट्रवादी और युद्धोन्मादी कोरस में शामिल होने से पहले आप थोड़ा ठहरकर सोचें कि लगातार डर, दहशत, राजकीय हिंसा के साये में जीना क्या होता है? चलिये एक बार को ज़रा कश्मीर के इस सूरतेहाल की तुलना पिछले साल कोरोना महामारी के समय मोदी सरकार द्वारा अचानक बिना किसी तैयारी के थोपे गये लॉकडाउन से करें। निस्संदेह, इस देश की आम मेहनतकश आबादी पर इस अनियोजित लॉकडाउन के कारण अकथनीय दुखों-तक़लीफ़ों का पहाड़ टूट पड़ा था। भारत के मध्य वर्ग के भी एक हिस्से को दिक्क़त-परेशानी तो पेश आयी ही थी। हाँ, बाक़ी खाते-पीते उच्च-मध्य वर्ग और धन-पशुओं की जमातों को लॉकडाउन से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ा था। बस मॉल्स में ख़रीदारी करने, सिनेमा घरों में पिक्चर देखने, बाहर जाकर फैंसी रेस्टोरेण्ट्स में खाने पर ज़रूर कुछ वक़्त के लिए पाबन्दी लग गयी थी! लेकिन वह क़सर इण्टरनेट सेवाओं की मौजूदगी ने पूरी कर दी थी। ‘नेटफ्लिक्स’ और ‘अमेज़न प्राइम’ पर ऑनलाइन शोज़ की ‘बिंज वाचिंग’ करते हुए ‘स्विगी’ और ‘ज़ोमैटो’ से ऑनलाइन फ़ूड-डिलीवरी करवा कर घर बैठे ज़िन्दगी का लुत्फ़ तो उठाया ही जा सकता था, जो इस खाते-पीते वर्ग द्वारा भरपूर उठाया भी गया। जहाँ तक ख़रीदारी का सवाल था तो ऑनलाइन ब्राण्डेड कपड़े-जूते-फ़ोन वगैरह भी कुछ समय बाद मँगवाये जाने शुरू हो गये थे। यानी प्रधानमन्त्री मोदी के शब्दों में कहें तो इस वर्ग के लिए “सब चंगा सी”! लेकिन फिर भी भारत के ये विशेषाधिकार-प्राप्त वर्ग भी घर बैठे-बैठे उकता गये थे।
अब फ़र्ज़ करें की अगर इण्टरनेट की सुविधा लॉकडाउन के वक़्त मौजूद नहीं होती तो क्या होता? फ़ेसबुक-ट्विटर-इंस्टाग्राम की आभासी दुनिया में जीने वाली एक अच्छी-ख़ासी मध्यवर्गीय और उच्च मध्य-वर्गीय आबादी, एक़दम नंगे शब्दों में कहें, तो या तो पागल हो गयी होती या फिर अवसादग्रस्त! अब यह भी फ़र्ज़ करें कि अगर यह लॉकडाउन एक बेमियादी कर्फ्यू में तब्दील कर दिया गया होता तो क्या होता? यह बात यहाँ इसलिए कही जा रही है ताकि भारतीय राष्ट्रवाद और कल्पित देशभक्ति की घुट्टी पीकर बड़ा हुआ भारत का मध्य-वर्ग यह समझ पाये कि भारतीय राज्य का कश्मीर पर क़ब्ज़ा और कश्मीरियों पर क़हर और आंतक किसी दुस्वप्न से कम नहीं है और एक आम मध्यवर्गीय भारतीय के लिए अकल्पनीय है। हालाँकि भारत का मज़दूर वर्ग इसे ज़्यादा आसानी से समझ सकता है।
एक आम कश्मीरी भयंकर हालातों में साल दर साल क़ैद करके रखा गया है, और तो और सभी बुनियादी सुविधाओं से महरूम रखकर। कश्मीरी कवि आग़ा शाहिद अली ने एक जगह लिखा था कि हर कश्मीरी अपने घर का पता अपनी जेब में रखकर चलता है, ताकि कम से कम उसकी लाश घर पहुँच जाये! यह है कश्मीर में ज़िन्दगी और मौत की हक़ीक़त! भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा एनकाउण्टर किया जाना या अगवा कर लिया जाना, पेलेट बन्दूकों द्वारा नन्हे मासूम बच्चों को अन्धा बना दिया जाना, वर्षों तक जेलों में बिना किसी सुनवाई के सड़ने के लिए छोड़ दिया जाना, रात में किसी भी वक़्त घरों के दरवाजों पर दस्तक देकर “पूछताछ” के बहाने पुलिस कर्मियों और सैन्य बलों द्वारा उठा लिया जाना, यातनाओं के नये तरीक़ों के लिए ‘गिनी पिग्स’ की तरह इस्तेमाल किया जाना, सुरक्षा बलों द्वारा औरतों के साथ कुनान-पुश्पोरा जैसे सामूहिक बलात्कार के युद्ध अपराधों को अंजाम दिया जाना –कश्मीरी नौजवानों और आम कश्मीरियों की कितनी ही पीढ़ियाँ तो भारतीय राज्य का यही “सौम्य” और “मानवीय” चेहरा देखकर बड़ी हुई हैं! और फिर इसी आबादी को बताया जाता है कि अनुच्छेद 370 और 35ए हटाकर उसी का भला किया गया है!
आम तौर पर कश्मीर को लेकर भावुक होने वाला भारतीय मध्य-वर्ग ख़ुद नहीं जानता है कि कश्मीर के भारत के साथ सम्बन्ध का इतिहास और पृष्ठभूमि क्या है। अनुच्छेद 370 और 35ए वास्तव में कश्मीर के साथ भारत के साथ सम्बन्ध को परिभाषित करने वाली भारतीय संविधान की धारायें थीं। असल में अनुच्छेद 370 (जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा और स्वायत्तता हासिल थी) और 35-ए (जो जम्मू-कश्मीर राज्य विधान मण्डल को यहाँ का ‘स्थायी निवासी’ (domicile) परिभाषित करके राज्य में उन्हें विशेषाधिकार प्रदान करने का हक़ देता था) के मोदी सरकार द्वारा 5 अगस्त 2019 को निरस्त किये जाने के साथ ही भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी जनता के साथ अब तक का सबसे बड़ा विश्वासघात किया गया जो 1948 के उस समझौते का सबसे नग्न क़िस्म का उल्लंघन है जिसके तहत कश्मीर ने भारत के साथ सशर्त विलय को स्वीकारा था। कश्मीरी क़ौम इसी शर्त पर भारत के साथ विलय को राज़ी थी कि उसकी स्वायत्तता बरक़रार रहेगी, उसका अपना संविधान और झण्डा होगा, उसके अपने क़ानून होंगे आदि। यानी इस विशेष स्थिति को ही अनुच्छेद 370 प्रकट करता था और भारत के साथ कश्मीर के रिश्तों को अभिव्यक्त करता था। अनुच्छेद 370 को रद्द करने के साथ ही कश्मीर का वह संविधान भी अपने आप ही रद्द हो गया। कश्मीर और भारत के बीच इस क़ानूनी क़रारनामे को एकतरफ़़ा ढंग से रद्द करने के साथ ही सैद्धान्तिक तौर पर कश्मीर का भारतीय यूनियन में एकीकरण भी निष्प्रभावी हो गया। 26 अक्तूबर 1947 को जिन शर्तों पर भारत में कश्मीर का विलय हुआ था उनमें से कश्मीरी क़ौम से किया गया प्रमुख वायदा जनमत संग्रह या रायशुमारी (referendum/plebiscite) का था जिसे भारतीय राज्य ने कभी पूरा नहीं किया और दो साल पहले भाजपा सरकार ने उन्हीं शर्तों की बुनियाद को घनघोर निरंकुश तरीक़े से ख़ारिज कर दिया।
यह बात भी उतनी ही सच है कि कश्मीर के विशेष राज्य के दर्ज़े का कोई ज़्यादा मतलब लम्बे समय से नहीं रह गया था। इतिहास में कांग्रेस से लेकर मौजूदा फ़ासीवादी भाजपा तक की तमाम सरकारों ने राष्ट्रीय दमन की नीति को आगे बढ़ाते हुए हमेशा से कश्मीर के आत्म-निर्णय के अधिकार को फ़ौजी बूटों तले रौंदा और कश्मीरी जनता की आकांक्षाओं और नागरिक अधिकारों में वक़्त-ब-वक़्त सेंधमारी की और अधिकतर समय वहाँ की जनता के भविष्य पर अनिश्चितता की तलवार ही लटकती रही है। चुनाव की पूरी प्रक्रिया भी कश्मीरियों की नज़र में “लोकतन्त्र” के स्वांग से ज़्यादा कुछ नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भी विशेष दर्ज़े का कुछ मतलब था क्योंकि जैसा कि हमने पहले भी बताया कि यही वे शर्तें थीं जो भारत से कश्मीर के सम्बन्ध को परिभाषित करती थीं। हालाँकि भारतीय राज्यसत्ता की कारगुज़ारियाँ कश्मीर की अवाम के अन्दर लगातार अविश्वास और अलगाव को बढ़ावा देने का काम करती रही हैं। आज कश्मीर में 7 नागरिकों के ऊपर एक सशस्त्र बल का जवान है और कश्मीर दुनिया भर में सबसे ज़्यादा सैन्यकृत क्षेत्र है।
अनुच्छेद 370 हटाने के पीछे मोदी सरकार का दावा था कि असल में यही कश्मीर में “दहशतगर्दी” की जड़ है। इसकी वजह से ही कश्मीर का आर्थिक और सामाजिक विकास रुका हुआ था। यह भी दावा किया गया था कि कश्मीर में इसके हटाये जाने के साथ ही स्थिरता आयेगी, आतंकवाद ख़त्म होगा, रोज़गार का सृजन होगा आदि आदि। लुब्बेलुबाब यह कि अब कश्मीर में दूध की नदियाँ बहेंगी! क्योंकि ख़ून की नदियाँ बहाकर फ़ासिस्टों और भारतीय हुक्मरानों को चैन नहीं पड़ा था!
कश्मीर के विशेष दर्ज़े को ख़त्म करने का वायदा मोदी सरकार ने अपने चुनाव घोषणापत्र में ही किया था। दरअसल कश्मीर के बहाने नरेन्द्र मोदी और फ़ासीवादी भाजपा न सिर्फ़ अपनी राजनीतिक ‘कांस्टिटुएन्सी’ की तात्विक शक्तियों के समक्ष “हिन्दू हृदय सम्राट” की मिथ्या छवि को सुदृढ़ करने की कोशिश में हैं बल्कि पूरे देश में ही कश्मीर के संवेदनशील राजनीतिक औज़ार का इस्तेमाल करके अन्धराष्ट्रवादी और हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक बयार बहाने की फ़िराक़ में भी है। इसके अलावा भारतीय शासक वर्ग के ऐतिहासिक विस्तारवाद को आगे बढ़ाते हुए कश्मीर को भारत के पूँजीपति वर्ग के लिए श्रम शक्ति की लूट और प्राकृतिक सम्पदा के दोहन का खुला चरागाह बनाने का मंसूबा भी है। आपको याद होगा कि मोदी सरकार ने पिछले साल 5 अगस्त की तारीख़ को इवेण्ट में तब्दील कर “कश्मीर पर जीत” के कुण्ठित विजयोन्माद के प्रदर्शन के दिन के तौर पर मनाया था। साथ ही साथ इस तारीख़ के नाम एक घृणित कारनामा और किया गया था – वह था अयोध्या में भूमिपूजन करके राम मन्दिर निर्माण की आधार शिला रखना। यानी कश्मीर का मुद्दा भारतीय फ़ासिस्टों को मुख्यभूमि भारत में एक तीर से कई निशाने लगाने का मौक़ा देता है।
कश्मीर से “दहशतगर्दी” ख़त्म किये जाने के दावे की सच्चाई यह है कि आज पहले से भी ज़्यादा नौजवान हथियार उठा रहे हैं। और यह कहीं बाहर से प्रशिक्षण प्राप्त करके आये हुए “आतंकवादी” नहीं हैं, बल्कि कश्मीर के ही स्थानीय नौजवान हैं। भारतीय राज्य को इससे अलग किसी और बात की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। यह दशकों से सतह के नीचे लावे की तरफ़़ इकट्ठा हुआ अलगाव, अविश्वास, गुस्सा और नफ़रत ही है, जो कभी इस तो कभी उस रास्ते से फूटता है। और जो कश्मीर के राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष की सही दिशा और रणनीति के अभाव में अन्धी गलियों में भटकता भी है। इस साल जनवरी से अब तक 90 “दहशतगर्द” सुरक्षा बलों के साथ गोलीबारी में मारे गये हैं। इनमें से लगभग सभी कश्मीरी थे और कुछ तो 14 साल तक के बच्चे थे।
कश्मीर के आर्थिक विकास के दावे की पोल इसी बात से खुल जाती है कि पिछले दो सालों में जन-जीवन, बाग़बानी, व्यापार और पर्यटन उद्योग को गहरा आघात पहुँचा है। हज़ारों लोगों के हाथ से रोज़गार छिन गया है और जनता का जीवन, जो पहले से ही त्रस्त और परेशानहाल था, और गहरे अँधेरे में धकेल दिया गया है। पिछले दो सालों में काम-धन्धे ठप्प होने के कारण बैंक और अन्य प्रकार के ऋण प्राप्त लोगों के सामने लोन आदि चुकाने की एवज में अपनी ज़मीनें तक बेचने की नौबत आ रही है या बैंकों के द्वारा उन्हें ज़ब्त कर लिया जायेगा। बन्द के दौरान इण्टरनेट पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध रहा और लम्बे समय तक 2जी स्पीड ही चलती रही। इस साल फ़रवरी में जाकर 4 जी इण्टरनेट सेवाएँ पूरी तरफ़ से बहाल की गयी थीं। इण्टरनेट की सुविधा न होने के कारण स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं को ख़ासी दिक्क़तें पेश आयीं। कई छात्र तो ज़रूरी इम्तिहानों में भी नहीं बैठ पाये। इण्टरनेट बन्द होने के कारण ही झेलम में खनन समेत विभिन्न सरकारी विभागों के टेण्डर ग़ैर-कश्मीरी उद्योगपतियों के हाथ में चले गये। यह भी सीधे तौर पर कश्मीर के राष्ट्रीय दमन का हिस्सा ही है। बन्द की आंशिक समाप्ति के बाद जन-जीवन कुछ पटरी पर आने ही लगा था कि लोगों पर कोरोना महामारी और लॉकडाउन का क़हर टूट पड़ा। वैसे तो मोदी सरकार की आपराधिक लापरवाही और नाक़ाबिलियत ने पूरे भारत की ही मेहनतकश जनता के जीवन को संकट में डाल दिया लेकिन पहले से ही परेशान हाल कश्मीरी अवाम पर आपदा का भार और भी अधिक पड़ा है।
फिर पिछले साल ही केन्द्र सरकार द्वारा जारी राजपत्र में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन आदेश 2020 अधिवास अधिनियम के अन्तर्गत कश्मीर के ‘डोमिसाइल’ नियमों में बदलाव किये गये। अब जम्मू-कश्मीर में 15 वर्ष रहने वाले अथवा 7 साल की अवधि तक राज्य में पढ़ाई करने वाले (जो कक्षा 10वीं या 12वीं में जम्मू-कश्मीर में स्थित किसी शैक्षणिक संस्थान में उपस्थित रहे हों) यहाँ के स्थायी निवासी प्रमाणपत्र या ‘डोमिसाइल’ के अधिकारी होंगे। इसके अलावा केन्द्र सरकार के तहत काम कर रहे उन कर्मचारियों के बच्चे भी अधिवास या ‘डोमिसाइल’ के योग्य होंगे जिन्होंने 10 साल तक राज्य में सेवाएँ दी हों। मोदी सरकार द्वारा अनुछेद 370 और 35ए को निरस्त करने के बाद यह अधिनियम उसकी तार्किक परिणति ही है। जिस छल-कपट और साज़िशाना तरीक़े से मोदी सरकार द्वारा 5 अगस्त, 2019 की धोखाधड़ी को अंजाम दिया गया था, हुबहू उसी तरीक़े से 31 मार्च, 2020 का डोमिसाइल सम्बन्धी यह अधिनियम लाया गया था।
इसके बाद कश्मीर के कई महत्वपूर्ण पुराने क़ानूनों को केन्द्र सरकार द्वारा पिछले साल अक्टूबर में मनमाने ढंग से रद्द कर दिया गया जिसमें कश्मीर में ज़मीन-सम्बन्धी मालिकाने के क़ानूनों में बदलाव प्रमुख हैं। आपको याद होगा कि अनुच्छेद 370 के हटाये जाने पर एक विक्षिप्त क़िस्म का उन्माद संघियों में देखने को मिला था जब उनके द्वारा भारत के लोगों को कश्मीर में ज़मीन ख़रीदने के सपने दिखाये जा रहे थे और कश्मीरी औरतों से शादी करने की क़ब्ज़ावादी मनोरोगी सोच की खुलेआम फ़ासिस्ट मर्दवादी नुमाइश की जा रही थी। वास्तव में भारत की आम मेहनतकश-मज़दूर आबादी, जिसे भारत में ही सिर के ऊपर छत मय्यसर नहीं है, वह कश्मीर में क्या ख़ाक ज़मीन ख़रीदेगी! यह बदलाव वास्तव में भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए ही किये गये हैं जिनके लिए अब तक ये क़ानून पूँजी निवेश और ज़मीन ख़रीदने में बाधा पैदा करते थे। ग़ौरतलब है कि टाटा, रिलायंस समेत 40 कम्पनियों ने जम्मू-कश्मीर में आईटी सेक्टर, रक्षा, पर्यटन, कौशल विकास, शिक्षा, नवीकरणीय ऊर्जा, आतिथ्य और अवसंरचनागत उद्योग, बाग़बानी आदि उद्योगों में पूँजी-निवेश करने में दिलचस्पी दिखायी है।
कश्मीर की स्वायत्तता को अभिव्यक्त करने वाले जो रहे-सहे क़ानूनी अधिकार थे, उन्हें भी मोदी सरकार द्वारा ख़त्म कर दिया गया। अपनी पूँजी-परस्त विस्तारवादी नीति को अमली जामा पहनाते हुए अब नये क़ानूनी बदलावों के तहत पूँजीपतियों को खुले हाथों से ज़मीन देने के काम की शुरुआत कर दी गयी है। अक्तूबर 2020 में जम्मू-कश्मीर केन्द्र शासित प्रदेश पुनर्गठन (केन्द्रीय क़ानूनों का अनुकूलन) तीसरा आदेश, 2020 (Union Territory of Jammu and Kashmir Reorganization (Adaption of Central Laws) Third Order, 2020)और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (राज्य क़ानूनों का अनुकूलन) पाँचवा आदेश, 2020 (Jammu and Kashmir Reorganization (Adaptation of State Laws) Fifth Order, 2020)के तहत अब पूरे जम्मू-कश्मीर में ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख्त को सारे भारतीयों (यानी पूँजीपतियों!) के लिए खोल दिया गया है।
कश्मीर जिन रेडिकल भूमि सुधारों के लिए जाना जाता था, उन्हें विधिक रूप देने वाले क़ानूनों को हटा दिया गया है क्योंकि ये क़ानून बड़े भूमि अधिग्रहण को रोकते थे। साथ ही साथ भारतीय सेना को यह अधिकार दे दिया गया है कि अपनी मर्ज़ी के हिसाब से वह जहाँ चाहे ज़मीन ले सकती है और सरकार को भी यह अधिकार दे दिया गया है कि वह कश्मीर में मौजूद कोई भी ज़मीन और सम्पति, औद्योगिक और पूँजी निवेश के लिए ले सकती है। यह आदेश राज्य के 12 क़ानूनों को निरस्त करते हैं और उसके बदले 14 क़ानूनों को लागू करते हैं लेकिन वास्तविकता में ये आदेश कश्मीरियों के बचे-खुचे अधिकारों पर भी डाका डालने का काम करते हैं। नये क़ानूनी संशोधनों के तहत अब खेतिहर ज़मीन का ग़ैर-कृषि इस्तेमाल के लिए आसानी से उपयोग किया जा सकेगा। रियल एस्टेट उद्योग में निवेश को बढ़ावा देने के लिए रियल एस्टेट (रेग्युलेशन एण्ड डेवलपमेण्ट) एक्ट का केन्द्रीय क़ानून कश्मीर में भी लागू कर दिया गया है। इन नये बदलावों के तहत सामरिक उपयोग के लिए किसी भी ज़मीन का अधिग्रहण सेना द्वारा किया जा सकेगा। दरअसल ये क़ानूनी बदलाव कश्मीर और कश्मीरी समाज की समस्त संरचना को बदलने की निग़ाह से ही मोदी सरकार द्वारा लागू किये जा रहे हैं।
इसके अलावा एक अन्य आदेश के तहत “पत्थरबाज़ों” को पासपोर्ट के लिए अनापत्ति पत्र नहीं दिया जायेगा। जम्मू-कश्मीर-पुलिस के सीआईडी विंग ने इस साल 31 जुलाई को एक निर्देश जारी कर कहा है कि सरकार या राज्य के ख़िलाफ़ “ध्वंसात्मक कार्य” में लिप्त लोगों को न तो पासपोर्ट के लिए सुरक्षा अनापत्ति मिलेगी और न ही सरकारी सेवाओं और योजनाओं का लाभ मिलेगा। इस आदेश के तहत सभी विभागों को निर्दिष्ट किया गया है कि पासपोर्ट या अन्य सरकारी योजनाओं के लिए आने वाले हरेक आवेदन की ठीक से जाँच-पड़ताल की जानी चाहिए और सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कहीं आवेदक किसी “राज्य-विरोधी” गतिविधि में तो संलिप्त नहीं है या उसके ख़िलाफ़ पत्थरबाज़ी या किसी अन्य अपराध का कोई मुक़दमा तो दर्ज नहीं है।
अब थोड़ी चर्चा कश्मीर के मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व पर भी कर लेते हैं। 5 अगस्त को मुख्यधारा के जिन राजनीतिक नेताओं को नज़रबन्द या गिरफ़्तार कर लिया गया था, उनमें से अधिकांश को पिछले साल अक्टूबर तक रिहा कर दिया गया। उसके बाद ही 15 अक्टूबर, 2020 को नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, सीपीएम और अन्य स्थानीय दलों ने मिलकर “गुपकर गठबन्धन” का गठन किया जिसका कथित उद्देश्य अनुच्छेद 370 और कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्ज़े की बहाली है। दिसम्बर 2020 में ज़िला विकास काउंसिल के चुनावों में गुपकर अलायन्स को कुल 278 सीटों में से 110 पर जीत हासिल हुई थी जबकि भाजपा 75 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी और वोट शेयर के मामले में भी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। यह कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म किये जाने के बाद के पहले चुनाव थे। भारतीय मीडिया में मतदान प्रतिशत को लेकर काफ़ी शोरगुल मचाया गया कि यह 51 प्रतिशत था। सच्चाई यह है कि यह आँकड़ा जम्मू और कश्मीर दोनों को मिलाकर प्रस्तुत किया गया है। जम्मू में मतदान प्रतिशत ज़्यादा होने के कारण मतदान को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करना आसान भी था। कश्मीर के ज़्यादातर इलाकों में मतदान प्रतिशत 20 फ़ीसदी भी नहीं था। इसके साथ ही गुपकर गठबन्धन की चुनावों में जीत भी एक भ्रामक तस्वीर पेश करती है। इन “मुख्यधारा” की पार्टियों और उनके नेताओं का कश्मीरी अवाम में कोई आधार अब बचा नहीं है और इन्हें भारतीय राज्य के एजेण्ट के तौर पर ही जाना जाता है।
फिर इस साल 24 जून को गुपकर प्रतिनिधियों को मोदी सरकार द्वारा वार्ता के लिए दिल्ली बुलाया गया था। यहाँ नरेन्द्र मोदी ने अपनी चिर-परिचित ड्रामेबाज़ी के ज़रिये “दिल की दूरी” और “दिल्ली की दूरी” जैसे अर्थहीन जुमलों पर अभिनय कर अहंकारोन्मादी किरदार निभाया। इन समझौतापरस्त अवसरवादी नेताओं ने अच्छे स्कूली बालकों की तरह मोदी जी के “मन की बात” सुनी भी! यही नहीं, फिर साथ में फ़ोटो भी खिचवायी। मोदी सरकार द्वारा की गयी वार्ता में सरकार द्वारा कहा गया है कि वह पहले ‘डीलिमिटेशन’ की प्रक्रिया पूरी करेगी यानी लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव निर्वाचन मण्डलों का पुनर्निर्धारण करेगी, इसके बाद चुनाव करवायेगी और कश्मीर को राज्य का दर्जा उसके बाद ही दिया जायेगा। वहीं गुपकर गठबन्धन का कहना है कि पहले राज्य का दर्जा दिया जाये। इनमें से कुछेक अनुच्छेद 370 और 35ए को पहले बहाल किये जाने की बात कर रहे हैं और उसके बाद ही चुनाव कराने की बात कर रहे हैं।
यह कश्मीर का बच्चा-बच्चा भी जानता है कि उमर अब्दुल्ला से लेकर महबूबा मुफ़्ती जैसे इन तमाम नेताओं ने अपनी क़ौम और उसके संघर्ष से ग़द्दारी करके भाजपा के साथ सत्ता की सेज तक सजायी है और आम तौर पर भी भारतीय राज्य की कठपुतली बनकर ही काम किया है। यह कश्मीरियों के क़ौमी संघर्ष के नुमाइन्दे तो कत्तई नहीं कहलाये जा सकते हैं। नेशनल कॉन्फ़्रेंस तो अब यह तक कह रही है कि अनुच्छेद 370को बहाल करने की माँग अब यथार्थवादी नहीं है! यह दिखला देता है कि माँगों का क्षितिज और एजेण्डा भारतीय राज्य और मोदी सरकार द्वारा तय किया जा रहा है।
जहाँ तक हुर्रियत कांफ्रेंस व अन्य अलगाववादी संगठनों का प्रश्न है तो 5 अगस्त, 2019 के बाद के घटनाक्रम से यह भी स्पष्ट हो गया है कि इन सबकी भी कोई विशेष साख कश्मीरी अवाम के बीच रह नहीं गयी है। आम तौर पर कश्मीर में चुनाव बहिष्कार का आह्वान करने वाले इन संगठनों ने इस बार उपरोक्त चुनावों का बहिष्कार भी नहीं किया था। इतना साफ़ है कि मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व से आम कश्मीरियों का मोहभंग हो चुका है और उनसे कोई उम्मीद भी बाक़ी नहीं रही है।
तो क्या इन दो सालों में कश्मीर या कश्मीरियों के हालात बदले? बिलकुल नहीं! बल्कि इस बीच कश्मीर में भारतीय राज्यसत्ता के दमन और आतंक राज में और अधिक इज़ाफ़ा हुआ है। पेलेट गन्स और बन्दूकों से बच्चों और नौजवानों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है ताकि दहशत और डर के माहौल को बरक़रार रखा जा सके। मानवाधिकारों को दण्ड-मुक्ति के साथ सुरक्षा बलों द्वारा रौंदा जा रहा है। आफ्सपा और पीएसए जैसे काले दमनकारी क़ानूनों के साये में आम कश्मीरी लोग जी रहे हैं। आये दिन घरों पर छापे पड़ रहे हैं। आम नागरिकों, विशेष तौर पर नौजवानों को शक़ की बिना पर जेलों में डाला जा रहा है। कश्मीर भारतीय राज्य के राजकीय दमन, हिंसा और अभूतपूर्व सैन्यकरण के चक्रव्यूह में आज भी फँसा है।
लेकिन इतिहास भी बताता है कि किसी भी क़ौम की आकांक्षाओं को कुचल कर बड़ी से बड़ी सैन्य ताक़त भी चैन से नहीं बैठ पायी है। तारीख़ गवाह है कि फ़ौजी बूटों और बन्दूकों के दम पर किसी छोटे से इलाक़े की भी पूरी आबादी को लम्बे समय तक दबा कर नहीं रखा जा सकता है। सतह के नीचे पनप रहा प्रतिरोध सतह के ऊपर आता ही है। किसी भी क़ौम को जबरन, उसकी इच्छा के विरुद्ध अपनी सीमाओं में शामिल करके, कोई भी दमनकारी शासक वर्ग उस क़ौम की आज़ादी की इच्छा का गला हमेशा के लिए नहीं घोंट सकता।
आज भारत की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी, छात्रों-नौजवानों को भी यह समझना होगा कि कश्मीर महज़ काग़ज़ पर बना कोई नक्शा या “भारत माता का मुकुट” नहीं है। कश्मीर सबसे पहले कश्मीरियों का है। और अपने भविष्य का फैसला हर क़ौम ख़ुद करती है। आज भारत के मज़दूर वर्ग और इंसाफ़पसन्द, तरक्क़ीपसन्द, तब्दीलीपसन्द छात्रों-नौजवानों को संघर्षरत कश्मीरी क़ौम के आत्म-निर्णय के अधिकार के जनवादी संघर्ष के साथ एकता स्थापित करनी होगी। यह बात भी समझनी होगी कि कोई भी जनता यदि अपनी राज्यसत्ता द्वारा किसी क़ौम के दमन पर मौन रहेगी तो वह ख़ुद भी अपने शासकों द्वारा ग़ुलाम बनाये जाने के लिए अभिशप्त होगी।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2021

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।