ब्राज़ील में बोल्सोनारो के ख़िलाफ़ तेज़ हुआ जनान्दोलन : परन्तु चुनौती सरकार-विरोधी आन्दोलन को व्यवस्था-विरोधी रूप देने की है
आनन्द
ब्राज़ील के धुर-दक्षिणपन्थी राष्ट्रपति जेयर बोल्सोनारो के ख़िलाफ़ उसके कार्यकाल की शुरुआत से ही कई मुद्दों को लेकर लोग सड़कों पर उतरते रहे हैं। चाहे एमेज़ॉन के जंगलों की अन्धाधुँध कटाई की अनुमति देने का मुद्दा रहा हो या उसके कार्यकाल में भ्रष्टाचार के तमाम मुद्दे रहे हों, बोल्सोनारो के इस्तीफ़े या उसके ऊपर महाभियोग चलाने की माँग समय-समय पर उठती रही है। लेकिन कोरोना महामारी से मची तबाही में बोल्सोनारो सरकार की स्पष्ट भूमिका की वजह से लोगों के बीच बढ़ते असन्तोष ने अब एक व्यापक जनान्दोलन का रूप अख्तियार कर लिया है। गत 29 मई को राजधानी ब्रासीलिया, रियो दे जेनरो और साओ पॉलो सहित ब्राज़ील के 200 से भी अधिक शहरों में लाखों लोग सड़कों पर उतरे। इन प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में मज़दूरों, छात्रों, युवाओं और महिलाओं ने भागीदारी की। प्रदर्शनकारियों के बैनर पर ‘बोल्सोनारो जाओ’ और ‘बोल्सोनारो नरसंहारक’ जैसे नारे लिखे थे। वे बोल्सोनारो पर महाभियोग चलाने की माँग कर रहे थे। मई माह में ही किये गये एक ओपिनियन पोल में 57 प्रतिशत लोग महाभियोग चलाने के पक्ष में दिखे जो दिखाता है कि ब्राज़ील की जनता का बड़ा हिस्सा बदलाव की माँग कर रहा है। ग़ौरतलब है कि 29 तारीख़ के ऐतिहासिक प्रदर्शन के अलावा भी मई के महीने में कई बार लोगों ने बोल्सोनारो के खिलाफ़ सड़कों पर उतरकर अपना आक्रोश जताया।
लोगों के आक्रोश की तात्कालिक वजह बोल्सोनारो सरकार की कोरोना संकट से निपटने में अक्षमता और ख़ुद बोल्सोनारो द्वारा महामारी को हल्के में लेने का रवैया है। ग़ौरतलब है कि ब्राज़ील में इस समय कोरोना की दूसरी लहर से भारत जैसी ही तबाही मची हुई है। वहाँ अब तक आधिकारिक रूप से कोरोना से साढ़े चार लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है जो दुनिया में केवल अमेरिका से कम है। बोल्सोनारो ने महामारी की शुरुआत से ही इसे हल्केे में लिया और कोरोना को मौसमी सर्दी-जुक़ाम बताया। उसने मास्क पहनने वालों की खिल्ली उड़ाई और उसकी सरकार ने सोशल डिस्टेंसिंग को लागू नहीं करवाया और हालात क़ाबू से बाहर होने के बावजूद लॉकडाउन को लम्बे समय तक टालता रहा क्योंकि उसका मानना था कि ज्यादा लोगों को बीमारी फैलेगी तो उनमें ‘हर्ड इम्यूनिटी’ विकसित हो जाएगी। यही नहीं, बोल्सोनारो ने ब्राज़ील के लोगों को कोरोना की वैक्सीन लगाने की भी कोई ठोस योजना नहीं बनायी जिसकी वजह से वहाँ अभी तक 10 फ़ीसदी से भी कम लोगों को वैक्सीन लग पायी है। बोल्सोनारो ने वैक्सीन लगवाने का भी मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा था कि वैक्सीन लगाने वाले लोग मगरमच्छ में तब्दील हो जाएँगे। बोल्सोनारो के इस अवैज्ञानिक और कूपमण्डूक रवैये की वजह से लोगों का ग़ुस्सा लगातार बढ़ता गया है।
ब्राज़ील के जो नागरिक आज सड़कों पर उतरे हैं उनके ग़ुस्से की तात्कालिक वजह कोरोना संकट से हुई बदहाली है, लेकिन यह ग़ुस्सा लम्बे समय से ब्राजील के समाज में पल रहा था जिसकी जड़ में बोल्सोनारो और उसके पहले की सरकारों द्वारा बेशर्मी से लागू की गयी नवउदारवादी नीतियों की वजह से हो रही तबाही और बर्बादी है। ग़ौरतलब है कि ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था इस समय भयंकर संकट से गुज़र रही है। इस साल की शुरुआत में बोल्सोनारो ने स्वयं यह स्वीरकार किया कि ब्राज़ील का सरकारी ऋण सकल घरेलू उत्पायद के 90 प्रतिशत तक पहुँच चुका है। कोरोना संकट ने अर्थव्यवस्था के संकट को और गहरा कर दिया है। पिछले दो सालों में ब्राज़ील में भुखमरी और कुपोषण की दर तेज़ी से बढ़ी है जिसकी वजह से भी कोरोना संक्रमण का कई गुना घातक असर देखने में आ रहा है क्योंकि ग़रीबों और मेहनतकशों में कोरोना की वजह से हुई मृत्युं की दर सबसे ज्यादा देखने में आयी है। पिछले एक साल में लाखों लोग बेरोज़गार हुए हैं जिसकी वजह से बेरोज़गारी आसमान छू रही है। बोल्सोनारो ने अपने कार्यकाल में शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं में बड़े पैमाने पर कटौती की और तथाकथित पेंशन सुधारों के ज़रिये लोगों की रही-सही सामाजिक सुरक्षा भी छीन ली जिसका ख़ामियाज़ा आज ब्राज़ील की जनता को भुगतना पड़ रहा है।
बोल्सोनारो की तेज़ी से घटती लोकप्रियता और उसके ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए व्यापक जनान्दोलन की वजह से ब्राज़ील के शासक वर्ग के माथे पर बल पड़ने शुरू हो गये हैं। उनकी सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि कहीं सरकार-विरोधी आन्दोलन व्यवस्था-विरोधी आन्दोलन में न तब्दीेल हो जाये और राजनीतिक संकट व्यवस्था के संकट में न तब्दील हो जाये। इसी वजह से ब्राज़ील के कई पूँजीपति व मीडिया घराने अब बोल्सोनारो के विकल्पे के बारे में सोचने लग गये हैं। ब्राज़ील की संसद में बोल्सोनारो द्वारा कोरोना संकट के कुप्रबन्धन की जाँच-पड़ताल के लिए एक कमेटी भी बनायी जा चुकी है। ब्राज़ील की सेना के शीर्ष स्तर पर भी बोल्सोनारो के ख़िलाफ़ असंतोष पनप रहा है। शासक तबक़ों का एक हिस्सा लूला डी सिल्वा को वापस सत्ता में लाने के बारे में जनमत तैयार करने की योजनाएँ बनाने लगा है। हाल ही में लूला भ्रष्टाचार के आरोपों से बरी हुए हैं और उनके राजनीतिक अधिकारों की बहाली हुई है। ऐसे में यह ताज्जुब की बात नहीं होगी अगर लूला या किसी अन्यर उदारवादी बुर्जुआ चेहरे का इस्तेमाल लोगों के ग़ुस्से पर ठण्डा पानी छिड़ककर व्यवस्था की हिफ़ाजत के लिए किया जाये। दिक्क़त की बात यह है कि ब्राज़ील में चल रहा जनान्दोलन व्यापक तो है, परन्तु़ उसमें स्वत:स्फूर्तता का पहलू हावी है और उसे व्यवस्था -विरोधी आन्दोलन में तब्दील करने में सक्षम क्रान्तिकारी नेतृत्व का नितान्त अभाव है। यही वह पहलू है जो मौजूदा वर्ग संघर्ष में शासक वर्ग के पक्ष में जाता है और जिसकी वजह से शासक वर्ग के लिए यह आसान होगा कि जनता को मामूली रियायत देकर व्यवस्था के दायरे के भीतर ही आन्दोलन का दम तोड़ दिया जाये।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-जून 2021
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!