नेपाली क्रान्तिः महत्व और भविष्य
शिवानी
यह लेख अप्रैल, 2009 में लिखा गया है और इसमें उस समय तक के परिवर्तनों का विश्लेषण है। ग़ौरतलब है कि नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नेता प्रचण्ड ने हाल ही में प्रधानमन्त्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इसके पीछे तमाम कारण निहित थे जिनमें से कुछ की ओर इस लेख में भी इशारा किया गया है। पाठकगण इस बात को ध्यान में रखकर यह लेख पढ़ें कि यह अप्रैल 2009 में लिखा गया है। पुराना होने के बावजूद नेपाली क्रान्ति के महत्व और उसके भविष्य के बारे में इस लेख में महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं।
– सम्पादक
गत एक वर्ष (अप्रैल 2008 से) पूरे नेपाल और नेपाली इतिहास के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा। 10 अप्रैल 2008 को हुए संविधान सभा के चुनाव में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) सबसे बड़ी ताक़त के रूप में उभरकर आई। सार्विक मताधिकार के आधार पर संविधान सभा का चुनाव नेपाल ही नहीं बल्कि कहें तो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत बड़ी घटना है। इसके महत्व को इस परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है कि पाकिस्तान, भारत या बांग्लादेश कहीं भी संविधान का निर्माण सार्विक मताधिकार से चुनी गयी संविधान सभा द्वारा नहीं किया गया। भारत में 1935 के ‘गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया ऐक्ट’ के तहत चुनी गयी असेम्बली को ही संविधान सभा का दर्जा दे दिया गया था और उसमें कुछ विशेषज्ञों को शामिल कर लिया गया था। इस मायने में संविधान निर्माण की प्रक्रिया का इतना जनवादी होना नेपाल की जनता की एक जीत तो है ही, साथ ही, इसका एक वैश्विक महत्व भी है।
चुनाव शान्तिपूर्ण ढंग से सम्पन्न होने से पहले, दुनिया भर के प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तमाम ‘विशेषज्ञ’ अटकलें लगा रहे थे कि माओवादियों को चुनाव में 8–10 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिलने की भी सम्भावना नहीं है। यही नहीं, लगातार इस बात को लेकर भी आशंकाएँ जताई जा रही थी कि चुनाव सम्पन्न हो भी सकेंगे या नहीं। लेकिन चुनाव में क्रान्तिकारी शक्तियों की अभूतपूर्व सफ़लता के बाद ऐसी सभी जुबानों पर ताला लग गया। ग़ौरतलब है कि संविधान सभा चुनाव में नेपाली कांग्रेस की भारी पराजय और ने.क.पा.(माओवादी) के सबसे अधिक सीटें हासिल करने के बावजूद गिरिजा प्रसाद कोइराला सत्ता से चिपके रहे। माओवादियों को सत्ता में आने से रोकने के लिए नेपाली कांग्रेस ने सभी बुर्जुआ एवं संशोधनवादी पार्टियों (मुख्यतः नेकपा (एमाले)) को साथ लेने की हर चन्द कोशिश भी की, लेकिन इन सभी बुर्जुआ दलों के आपसी अन्तरविरोध के कारण इनका कोई टिकाऊ संयुक्त मोर्चा अस्तित्व में नहीं आ सका।
इस सब के बीच 28 मई, 2008 को संविधान सभा की पहली बैठक हुई जिसमें राजतन्त्र की समाप्ति और संघात्मक जनवादी गणराज्य की घोषणा की गई। इसके बाद जनादेश के दबाव में और पूरे देश में हवा का रूख देखते हुए प्रधानमन्त्री कोइराला को जून 2008 के अन्त में अन्ततोगत्वा अपने इस्तीफ़े की घोषणा करनी पड़ी। लेकिन इसके पहले नेकपा (एमाले) और अन्य बुर्जुआ पार्टियों के सहयोग से नेपाली कांग्रेस दो तिहाई बहुमत से प्रधानमन्त्री को हटाये जाने के प्रावधान को अन्तरिम संविधान से हटाने में कामयाब रही। इसका मतलब यह था कि अब प्रधानमन्त्री को सामान्य बहुमत से भी हटाया जा सकता था।
इसके पश्चात जुलाई 2008 में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और संविधान सभा के अध्यक्ष पद के लिए नेपाली कांग्रेस, नेकपा (एमाले) और मधेसी जनाधिकार फ़ोरम के बीच तमाम किस्म की सौदेबाजी और सत्ता के लिए बन्दरबाँट देखने को मिली। उपरोक्त तीन पदों पर माओवादी उम्मीदवारों की पराजय के पश्चात नेकपा (माओवादी) ने सरकार बनाने के बजाय, विपक्ष में बैठने का निर्णय लिया। इस फ़ैसले से एमाले और मधेसी जनाधिकार फ़ोरम पर दबाव बढ़ा। उन्हें फ़िर से जनयुद्ध का भूत सताने लगा। परिणामस्वरूप, अगस्त में नेकपा (माओवादी) के साथ सरकार बनाने के लिए नेकपा (एमाले) और मधेसी जनाधिकार फ़ोरम तैयार हो गये। नेकपा (एकता केन्द्र) जिसके साथ नेकपा (माओवादी) की एकता प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ रही थी, का कानूनी मोर्चा- जनमोर्चा, नेपाल-पहले से ही साथ था। इनके अलावा नेकपा (मा-ले), नेकपा (संयुक्त) और सद्भावना पार्टी (राजेन्द्र महतो) भी सरकार में शामिल होने को तैयार हो गये। संविधान सभा के चुनावों के ठीक चार महीने बाद, कुल 25 में से 21 पार्टियों के समर्थन से, 80 प्रतिशत मत हासिल करके माओवादी पार्टी के नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचण्ड’ संघात्मक जनवादी गणराज्य नेपाल के पहले प्रधानमंत्री बने।
वहीं दूसरी ओर, हाल ही में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एकता केन्द्र) के बीच लम्बे समय से जारी एकता-प्रक्रिया का 13 जनवरी, 2009 को एक जनसभा में एकता की सार्वजनिक घोषणा के बाद सफ़ल समापन हो गया। नयी पार्टी का नाम एकीकृत नेकपा (माओवादी) रखा गया। नेपाली कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर के इन दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटकों की एकता नेपाली जनता और पूरे समाज की प्रगति के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एकता ने नेपाल की आम मेहनतकश जनता के भीतर नये उत्साह और नयी आशाओं का संचार किया है। जनता की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं की कसौटी पर नेपाल के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी किस हद तक खरे उतरेंगे, इस प्रश्न का उत्तर तो अभी भविष्य के गर्भ में है।
निश्चय ही, राजतन्त्र की समाप्ति और संघात्मक जनवादी गणराज्य की घोषणा के साथ माओवादियों के नेतृत्व में नयी अन्तरिम सरकार का गठन नेपाल में जारी जनवादी क्रान्ति का एक महत्वपूर्ण अगला मुकाम है। लेकिन यह भी ध्यान में रखना होगा कि राजशाही के ख़ात्मे के बावजूद राज्यतन्त्र के ढाँचे और वर्गचरित्र में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है। राज्यसत्ता का मुख्य अंग अभी भी वही सेना है, वही नौकरशाही और वही न्यायपालिका है। मीडिया पर भी मुख्यतः बुर्जुआ ताकतें ही हावी हैं। उधर, क्रान्तिकारी भूमि सुधार का काम अभी भी पूरा नहीं हुआ है। भूस्वामी वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी इस समय नेपाली कांग्रेस और अन्य बुर्जुआ दल कर रहे हैं। साथ ही, आज की विश्व परिस्थितियों और नेपाल की ठोस परिस्थितियों में नेपाली पूँजीपति वर्ग को भी दलाल और राष्ट्रीय के परस्पर–विरोधी प्रवर्गों में नहीं बाँटा जा सकता। जहाँ एक ओर नेपाल का बड़ा पूँजीपति वर्ग और बड़ा व्यापारी वर्ग अपने चरित्र से अत्याधिक प्रतिक्रियावादी और साम्राज्यवाद-परस्त है, वहीं छोटा पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद से सीमित आज़ादी की आकांक्षा रखता है और देश में पूँजीवादी विकास का भी पक्षधर है। नेकपा (एमाले) जैसी संशोधनवादी पार्टियाँ और क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियाँ मध्य वर्ग के साथ ही इन छोटे पूँजीपतियों की भी नुमाइन्दगी कर रही हैं। जहाँ तक भूस्वामियों का प्रश्न है, नेपाली कांग्रेस और तराई की मधेस पार्टियाँ पुराने भूस्वामियों के साथ ही उन नये बुर्जुआ भूस्वामियों का भी प्रतिनिधित्व करती हैं जो सीमित स्तर पर पूँजीवादी भूमि सम्बन्धों के विकास के साथ नेपाल में पैदा हो चुके हैं। यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि नेपाली कांग्रेस से लेकर नेकपा (एमाले), नेकपा (माले) जैसी संशोधनवादी पार्टियों तक की पूँजीवादी रास्ते के प्रश्न पर कमोबेश आम सहमति ही है।
इसके साथ ही यदि हम नेपाल की सामाजिक-आर्थिक संरचना पर भी एक नजर डालें तो कई बातें साफ़ होंगी। नेपाल मात्र 2 करोड़ 90 लाख आबादी वाला भूआवेष्ठित (चारों ओर ज़मीन से घिरा) देश है, जहाँ बुनियादी एवं अवरचनागत उद्योगों का विकास अत्यन्त कम हुआ है तथा अर्थव्यवस्था बहुत कम विविधीकृत (डायवसिर्फ़ाइड) है। देश की 85 फ़ीसदी आबादी गाँवों में बेहद विपन्न जीवन बिताती है। साक्षरता 50 प्रतिशत से भी कम है। कुपोषण आम बात है और बाल मृत्यु की दर 1000 में 62 है। एक तिहाई आबादी सरकारी ग़रीबी रेखा के नीचे जीती है और लगभग आधा देश बेरोजगार है। दसियों लाख ग़रीब नेपाली भारत में, खाड़ी के देशों में और दूसरे देशों में मज़दूरी करते हैं तथा भारत और ब्रिटेन की सेनाओं में भाड़े के सिपाही के तौर पर काम करते हैं। इनकी कमाई और पर्यटन उद्योग नेपाल के विदेशी मुद्रा भण्डार का मुख्य स्रोत है।
आम जनता की इन्हीं भीषण जीवन स्थितियों ने नेपाल में जनसंघर्ष के लिए अनुकूल वस्तुगत आधार तैयार किया। साथ ही, राजशाही के निरंकुश दमन तन्त्र और राजनीतिक जीवन में सर्वव्याप्त भ्रष्टाचार ने आग में घी डालने का काम किया। इसलिए, इस मायनों में संविधान सभा में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरना और माओवादियों का सरकार बनाना, दोनों ही नेपाली जनता की ऐतिहासिक जीत है। हालाँकि यहाँ से ही अब चुनौतियों का एक नया दौर भी शुरू होता है। जहाँ एक ओर अनेक राष्ट्रीयताओं-उपराष्ट्रीयताओं की अपेक्षाओं को पूरा करने, मधेस के जटिल सवाल को हल करने तथा क्रान्तिकारी भूमि सुधार को हाथ में लेने का काम है, वहीं दूसरी तरफ़ नेपाल की राष्ट्रीय सम्प्रभुता का विस्तार करने, विश्व बैंक सहित तमाम साम्राज्यवादी वित्तीय एजेंसियों की जकड़बन्दी तोड़ने तथा राज्य व्यवस्था और समाज के पुनर्गठन का एजेण्डा भी माओवादी सरकार के सामने है। उधर, संविधान सभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने से सरकार चलाने में क्रान्तिकारी ताकतों की निर्भरता बनी रहेगी। इसके साथ ही, संविधान निर्माण के अधिकांश मुद्दों पर आवश्यक दो-तिहाई बहुमत नहीं होने से भी उनके हाथ कुछ बंधे रहेंगे। इसमें कोई शक़ नहीं है कि नेपाली क्रान्तिकारियों के सामने चुनौतियाँ बहुत कठिन है, लेकिन इतिहास भी इस बात का गवाह है कि प्रतिकूलतम परिस्थितियाँ भले ही जनता के संघर्षों की राह को दुर्गम, लम्बा और जटिल बना दें, पर उनका गला नहीं घोंट सकतीं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009
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