अरबपति बनाम कौड़ीपति
पवन, दिल्ली
आज-कल हम अपने आपको (यानी, भारत को) ग़रीब देशों में नहीं गिनते। इसी साल मार्च में अमीरों के अखबारों में से एक ”टाइम्स ऑफ़ इण्डिया“ ने एक ख़बर छापी थी कि अरबपतियों की गिनती के मामले में भारत का आठवाँ नम्बर हो गया है। अब हमारे यहाँ अमीरों की तादाद बढ़ रही है। और यही नहीं अब तो हम ब्रिटेन और इटली जैसे यूरोपीय देशों के साथ-साथ अपने बड़े एशियाई भाई चीन को भी पीछे छोड़ चुके हैं। इसके अलावा मार्च में ही ब्रिटेन के ‘सनराइज़ रेडियो समूह’ द्वारा प्रकाशित ब्रिटेन के 300 सबसे धनी एशियाइयों की आधिकारिक सूची में अनिवासी भारतीय इस्पात दिग्गज लक्ष्मी मित्तल को 13.5 अरब पौण्ड की सम्पत्ति सहित न सिर्फ़ ब्रिटेन बल्कि यूरोप का सबसे धनी एशियाई घोषित किया गया है। इसी सूची में 2.1 अरब पौण्ड की सम्पत्ति के साथ कॉल सेंटर टेक्नोलॉजी के महारथी हिन्दुजा बंधुओं को ब्रिटेन में दूसरा स्थान मिला है।
सच पूछिये तो किसी भी देश की व्यवस्था की कसौटी यह नहीं है कि उसमें कितने अरबपति हैं बल्कि यह है कि उसकी जनता में भुखमरी कितनी है। हमारे यहाँ पर हर साल बेरोजगारों की कितनी संख्या बढ़ जाती है, कितने ग़रीब भोजन के अभाव में कुपोषित होकर फ़ुटपाथों पर तड़प-तड़प कर जान दे देते हैं। कितनी बहनें परिवार का खर्चा चलाने की खातिर सस्ती दरों पर श्रम बेचने के लिए मज़बूर हो जाती हैं, कितनी माताएँ केवल चंद सिक्कों के लिए अपने बच्चों तक को बेचने के लिए विवश हो जाती हैं। लेकिन इन सबकी संख्याओं की सूची क्यों नहीं बनाई जाती है? इससे यही पता चलता है कि भारत जैसे देश में उंगली पर गिने जा सकने वाले अरबपतियों का जन्म करोड़ों कौड़ीपतियों की ज़िन्दगियों को तबाह करके होता है। चंद लोगों के स्वर्गों और विलासिता के महलों को करोड़ों-करोड़ लोगों के शोषण-भरी और नरक-जैसी ज़िन्दगियों के दम पर ही खड़ा किया जाता है। दुनिया के तमाम अरबपति मेहनतकश ग़रीब जनता की मेहनत की लूट के दम पर ही अमीर बने हैं।
अब दुनिया की सबसे बड़ी इस्पात कम्पनी के ‘लक्ष्मी स्टील’ के प्रमुख लक्ष्मी मित्तल को ही ले लिया जाय जो कि चीन की समाजवादी चोले में छिपी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के तहत चीन के दसियों हज़ार खदान मजदूरों की बलि चढ़ाकर अपनी सम्पत्ति में तीन गुने का इजाफ़ा कर 13.5 अरब पौण्ड की सम्पत्ति के साथ यूरोप का सबसे धनी एशियाई बन बैठा है। मित्तल को अमीर बनाने में चीनी अर्थव्यवस्था का बड़ा हाथ है। समाजवाद की आड़ में चीनी हुक्मरान दुनिया के पूँजीपतियों के सामने चीन को सस्ते श्रम की ऐसी मण्डी के रूप में पेश कर रहे हैं, जहाँ बेफ़िक्र होकर मज़दूरों का ख़ून निचोड़ा जा सके। यही कारण है कि सस्ते श्रम के लिए लार टपकाती सैकड़ों कम्पनियों (जिसमें कि ‘लक्ष्मी स्टील’ भी शामिल है) ने अपने कारख़ाने यूरोप और अमेरिका से हटाकर अब चीन में स्थापित कर लिये हैं जहाँ से कम लागत में तैयार माल पश्चिम के बाज़ारों में बेचा जा सके। कारख़ानों की बढ़ती संख्या के कारण ही चीन में बिजली और कच्चे मालों की लगातार माँग बढ़ रही है। चूँकि चीन अपनी ऊर्जा के लिए बहुत हद तक कोयले पर निर्भर है इसीलिए कोयले की भारी माँग के कारण दाम चढ़े हुए हैं, अंधाधुंध कोयला खनन जारी है। खदान मालिक मुनाफ़े की हवस के तहत सभी सुरक्षा इंतज़ाम को ताक पर रखकर पागलों की तरह धरती के पेट से खनिज निकालने के लिए रात-दिन खदानों की खुदाई करवा रहे हैं।
चीन में कोयला खदानों की हालत काफ़ी ख़राब है। खदाने मौत का कुँआ बनती जा रही हैं जहाँ लगभग हर सप्ताह दुर्घटनाएँ होती हैं। हाल ही में घटी दो बड़ी खदान दुर्घटनाएँ हुईं-लिओ लिन प्रान्त की खुंजियावान कोयला खदान में भीषण विस्फ़ोट हुआ और हेनान प्रान्त की दापिंग कोयला खदान का 650 फ़ीट नीचे गैस विस्फ़ोट हुआ जिनमें क्रमशः 203 और लगभग 150 खदान मज़दूर मारे गये।
सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2004 में कुल 6300 खान दुर्घटनाएँ हुईं जिसमें 6000 खदान मज़दूर मारे गये वहीं वर्ष 2003 में 6700 लोगों ने अपनी जानें गवाईं। लेकिन कई रिपोर्टों के अनुसार यह संख्या कम से कम 20,000 होगी क्योंकि अवैध खदानों में होने वाली बहुतेरी दुर्घटनाओं की ख़बरें दबा दी जाती हैं। खदानों के खनन में रोज़ाना लगभग 28 मज़दूर मरते हैं। मुनाफ़े की हवस के तहत खदानों के सुरक्षा इतंज़ामों पर कत्तई ध्यान नहीं दिया जाता। और अवैध खदानों में खनन तब तक चलता रहता है जब तक कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हो जाती। वर्ष 2003 में जिक्सी शहर में 115 खदान मज़दूर मारे गये थे। उस खान को सुरक्षा प्रावधनों के उल्लंघन के कारण सात बार बंद करने का आदेश जारी हुआ था लेकिन भ्रष्ट अफ़सरों की मुट्ठी गरम करके खदान तब तक चलती रही जब तक दुर्घटना नहीं हो गयी। जबर्दस्त मुनाफ़े के लालच में अवैध ढंग से उन खदानों में खनन जारी है, जो पहले ख़तरे की आशंका से बंद कर दी गई थी। हज़ारों बेरोज़गारों के कारण इन खदानों में काम करने वालों की भी कमी नहीं रहती क्योंकि एक तो निजीकरण की आँधी में कोयला मंत्रालय को ही ख़त्म कर दिया गया, जिससे मज़दूरों की छँटनी हुई और अवैध खदानों का जाल बढ़ा, दूसरे समाजवाद के दौर की राजकीय व सामूहिक खेती व्यवस्था छिन्न-भिन्न करके लागू पूँजीवादी खेती के कारण देहात से लाखों की तादाद में लोग उजड़कर काम की तलाश में शहरों में आ रहे हैं। मुनाफ़ाखोरों को ऐसे मज़दूरों की कमी नहीं रहती जो बेहद कम मज़दूरी पर जान हथेली पर लेकर धरती के अँधरे गर्भ में उतर जाते हैं। पिछले साल चीनी फ़िल्म “अंधा कुआँ” में एक खदान मालिक बड़े गर्व से कहता है-“चीन में हर चीज़ की कमी हो सकती है, पर हमारे लिए मरने को तैयार लोगों की कमी कभी नहीं होगी।’’
आज चीनी अर्थव्यवस्था की चमत्कारिक उछाल के चर्चे जोरों पर है। वहीं लक्ष्मी मित्तल जैसों का अरबपति बनना उसी चीनी अर्थव्यवस्था की पोल खोलता है, जहाँ करोड़ों लोगों को भयंकर ग़रीबी व बदहाली में धकेला जा रहा है, जहाँ हर साल बीसियों हज़ार खदान मज़दूर मुनाफ़े की भेंट चढ़ जाते हैं।
समाजवादी चीन में उद्योगों का विकास आज से कहीं ज़्यादा तेज रफ़्तार से हुआ था लेकिन तब दुर्घटनाएँ न के बराबर थीं, क्योंकि तब सारी नीतियों के केन्द्र में मुनाफ़ा नहीं बल्कि मेहनतकश इंसान था।
मगर आज, समाजवाद के दौर में मिले तमाम अधिकार छीन लिये गये हैं। सगंठित होने व आवाज़ उठाने के अधिकार समाप्त कर दिये गये हैं।
यह अमीर.ग़रीब और अरबपति-कौड़ीपति भेद केवल चीन में ही नहीं है, बल्कि हिन्दुस्तान में भी है। आज भारत के औसत आम आदमी की आमदनी और कुल आर्थिक औकात से भारत के अरबपति की आमदनी और औकात 90 लाख गुना ज़्यादा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक उड़ीसा के कालाहांडी में रहने वाले एक किसान की औसत वार्षिक आय 3000 रूपये थी। वहीं दूसरी तरफ़ रिलायंस ग्रुप के संस्थापक धीरूभाई अम्बानी ने अपने निधन से पूर्व 9 करोड़ रूपए का वार्षिक वेतन उठाया था। विश्व पूँजीवाद के चौधरी अमेरिका में भी हालात भिन्न नहीं है। वहां पर सबसे ज्यादा 341 अरबपति आँके गये हैं। अमेरिका के अरबपति और औसत आम आदनी की आयों के बीच का फ़र्क 80 हज़ार गुना है।
आज के यह हालात केवल गिने-चुने देशों के ही नहीं है बल्कि पूरे विश्व में ही यही हाल है कि ग़रीब और ग़रीब हो रहा है, अमीर और अमीर हो रहा है। राष्ट्र संघ की विकास रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 20 साल से यह अमीर और ग़रीब की खाई सभी देशों में बढ़ी है जिसने आज अरबपति और कौड़ीपति की खाई का रूप धारण कर लिया है।
अमीर-ग़रीब की यह बढ़ती खाई पूँजीवादी विकास की कलई खोलती है। पूँजीवादी विकास स्वाभाविक रूप से असमान विकास होता है। ऐसे में यह सोचने की बात है कि “पूँजीवाद की अन्तिम विजय”और “इतिहास के अंत” के दावों में कितना दम है। यह मानना मुश्किल है कि लगातार ग़रीब से ग़रीब होती, दबाई जाती बहुसंख्यक आबादी हमेशा चुपचाप निराशा की गर्त में पड़ी रहेगी, वह निश्चित तौर पर बग़ावत करेगी। उसी मौके के लिए इंकलाबी नौजवानों को अपने आपको तैयार करना है, ताकि वे ऐसे जनउभार को परिवर्तनकारी क्रान्ति में बदल सकें।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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