हमारी बातों के मुख्य बिन्दु

सम्पादक मण्डल, 4 नवम्बर 2019

जब बहस में तर्क समाप्त हो जायें और किसी तार्किक बात का जवाब न रह जाये तो तर्क में हार चुके और बहस से भागने वाले पक्ष के पास एक ही विकल्प होता है – विरोधी पक्ष के बारे में झूठ बोलना, कुत्सा-प्रचार करना और उसके तर्कों को विकृत करना। कुछ ऐसा ही भाषा के प्रश्न पर जारी इस बहस में भी किया जा रहा है। बहस से देर से परिचित होने वाले या हमारी सारी पोस्टों को पूरा न पढ़ सकने वाले पाठकों के लिए हम अपने मुख्य तर्कों को फिर से संक्षेप में, बिन्दुवार रख दे रहे हैं।

कल (28 अक्टूबर) आह्वान के पेज पर राज्यों के भाषाई पुनर्गठन को दोबारा करने की माँग, हरियाणा में भाषाई समुदायों के अनुपात और वहाँ आम तौर पर भाषा के प्रश्न पर एक पोस्ट डाली गयी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोग पोस्ट को पूरा पढ़े बग़ैर अपनी भावनाओं को आहत कर बैठे हैं और यह आरोप लगा बैठे हैं कि इस पोस्ट में अमित शाह की सोच झलक रही है (‘एक देश, एक भाषा’)। ऐसे आधारहीन आरोप पर तो सफ़ाई देना भी बेकार है, क्योंकि हम अमित शाह के हालिया बयान के आते ही सबसे पहले निन्दा करने वाले राजनीतिक समूहों में से एक थे। कुछ अन्य लोग भी हैं जो इसे पंजाबी और हिन्दी के वर्चस्व के बीच संघर्ष के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं। उनसे आग्रह है कि एक बार पूरी पोस्ट को दोबारा संजीदगी से आद्योपान्त पढ़ें और उसके बाद टिप्पणी करें। पूरी पोस्ट पढ़ने का धैर्य न रखने वाले साथियों के लिए हम इस पोस्ट के मुख्य बिन्दु संक्षेप में यहाँ रख दे रहे हैं, ताकि यह स्पष्ट रहे कि हम क्या कह रहे हैं और क्या नहीं।

1) हर व्यक्ति को, चाहे वह किसी भी राज्य में हो, अपनी मातृभाषा में शिक्षण-प्रशिक्षण व सभी प्रकार के सरकारी कामकाज का अधिकार होना चाहिए। जहाँ पर भी ऐसा नहीं हो रहा है, या किसी भी रूप में भाषा के आधार पर भेदभाव हो रहा है, वहाँ उसके विरुद्ध संघर्ष करना कम्युनिस्टों का कर्तव्य है।

2) हम यह ग़लत मानते हैं कि किसी देश या किसी प्रान्त में भी किसी भाषा के वर्चस्व को स्थापित किया जाये। एक भाषा के वर्चस्व का अर्थ ही है अन्य भाषाओं का दमन। यानी किसी राज्य में सारा शिक्षण-प्रशिक्षण व सरकारी कामकाज सिर्फ़ बहुसंख्यक आबादी की भाषा में करने की माँग उठाना ही ग़ैर-कम्युनिस्ट है और एक विशिष्ट प्रकार के राष्ट्रवादी विचलन को प्रदर्शित करता है।

3) लेकिन इस प्रश्न को एक पूँजीवादी देश के भीतर प्रान्तों की प्रशासनिक सीमाओं से जोड़कर आज यह माँग उठाना कि भाषाई आधार पर राज्यों का फिर से पुनर्गठन किया जाये, अनैतिहासिक और अप्रासंगिक है, विशेष तौर पर तब जबकि यह आम मेहनतकश जनता की कोई माँग ही नहीं है। ऐसा नहीं कि आम जनता हमेशा स्वतःस्फूर्त रूप से सही माँग ही उठाती है, कई बार वह प्रतिक्रियावादी माँग भी उठा सकती है, जिस सूरत में क्रान्तिकारी अगुवा तत्वों का कार्यभार होता है धैर्य के साथ जनता का राजनीतिक शिक्षण करना। लेकिन इस मामले में तो यह स्वतःस्फूर्त माँग भी नहीं है। ऐसे में यह माँग उठाना आम मेहनतकश जनता को आपस में एक ग़ैर-मुद्दे पर लड़ायेगा और पूँजीपति वर्ग को अवसर देगा कि वह इस बँटवारे को और हवा दे।

4) बागड़ी बोली की सापेक्षिक रूप से अधिक निकटता पंजाबी नहीं बल्कि हरियाणवी व राजस्थानी से बनती है, हालाँकि यह तीनों के बीच की सेतु बोली भी कही जाती है। इस बारे में हमारे नोट (28 अक्टूबर) में सन्दर्भ समेत ब्यौरे दिये गये हैं।

5) हरियाणा में 30 प्रतिशत आबादी की भाषा किसी भी आँकड़े के अनुसार पंजाबी नहीं है। बिना किसी स्रोत के, कुछ लोगों के इम्प्रेशन्स के आधार पर ऐसा आँकड़ा पेश करना ग़लत है। सरकारी आँकड़ों की सटीकता में कुछ कमी-बेशी हो सकती है, मगर 7 से 10 प्रतिशत और 30 प्रतिशत का अन्तर सम्भव नहीं है। यह मनोगतवाद है, जो कि इस मामले में बिग नेशन शॉविनिज़्म से प्रभावित है।

6) हर बोली को भाषा के रूप में विकसित नहीं किया जा सकता है। वास्तव में, विभिन्न भाषाएँ कई बोलियों के ऐतिहासिक और वैज्ञानिक अमूर्तीकरण से जन्म लेती हैं और बाद में वे बोलियाँ उन भाषाओं के साथ-साथ अस्तित्वमान रह सकती हैं। लेकिन यह तर्क ही अनैतिहासिक और प्रतिक्रियावादी है कि ऐतिहासिक प्रक्रिया में जो बोलियाँ भाषा के रूप में विकसित नहीं हो सकीं, उन सभी को आज कम्युनिस्ट बैठकर भाषा के रूप में विकसित करें। दूसरी बात, जिन कतिपय कॉमरेडों पर यह टिप्पणी की गयी है, वे अपने इस ग़लत तर्क को भी केवल हिन्दी भाषा की तमाम बोलियों पर लागू कर रहे हैं, लेकिन पंजाबी भाषा की तमाम बोलियों पर नहीं। ईमानदारी का तकाज़ा होता कि वे पंजाबी भाषा की सभी बोलियों को भी स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित करने की बात उठाते और इस काम में दिलोजान से लग जाते। तब उन्हें शायद ख़ुद ही समझ आ जाता कि उनका यह तर्क कितना बेतुका है।

7) पंजाबीभाषी समुदाय हरियाणा में कोई दमित समुदाय/राष्ट्रीयता नहीं है। इसके बारे में, ठोस तर्क व तथ्य नोट में मुहैया कराये गये हैं।

8) ये कतिपय कॉमरेड मातृभाषा के प्रति अपना प्रेम केवल पंजाबी भाषा के सन्दर्भ में ही रखते प्रतीत होते हैं, क्योंकि यदि आम तौर पर सभी नागरिकों को मातृभाषा में शिक्षण-प्रशिक्षण और सरकारी काम-काज की हिमायत की जा रही होती, तो यह माँग ही नहीं उठायी जा सकती कि पंजाब में केवल पंजाबी भाषा में ही हर कामकाज होना चाहिए। पंजाब में आज प्रवासी मज़दूरों की तादाद क़रीब 27 लाख पहुँच रही है; साथ ही अबोहर-फाजिल्का और चण्डीगढ़ आदि में हिन्दीभाषी या तो विचारणीय अल्पसंख्या हैं या बहुसंख्या। उनके लिए हिन्दी भाषा में पढ़ने-लिखने व सरकारी कामकाज के विकल्प को मौजूद रखने की माँग क्यों नहीं की जा रही है? यह वास्तव में भाषाई वर्चस्ववाद के सिद्धान्त की ओर ले जाता है।

9) अन्त में, नोट में कतिपय कॉमरेडों की इस प्रवृत्ति पर टिप्पणी की गयी है जो पहले महापंजाब (1947 के पहले वाला, या 1966 के पहले वाला) के नक़्शे पर आँसू बहा रही थी, फिर 1966 के राज्यों के पुनर्गठन को ग़लत ठहरा रही थी और अब नये सिरे से राज्यों के पुनर्गठन की बात कर रही है, जो कि न तो आज जनता की कोई माँग है और न ही इस पर कोई स्वतःस्फूर्त आन्दोलन है। ऐसे में, यह अपवादस्वरूप स्थिति में सम्भव है कि अस्मितावादी तरीक़े से इस माँग को हवा दे दी जाये और फिर पूँजीवादी चुनावी दल इसे ले उड़ें और जनता के बीच बँटवारा पैदा कर दें। क्योंकि यदि वर्गीय अन्तरविरोध सही राजनीतिक अभिव्यक्ति नहीं पाते, तो उन्हें ग़लत अभिव्यक्ति देना या उन्हें भाषाई, जातिगत, नस्ली या राष्ट्रीय स्वरूप में मिसआर्टिक्युलेट करने की एक सम्भावना हमेशा मौजूद ही रहती है, चाहे क्षीण रूप में ही सही। लेकिन यह कार्य यदि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी करें, तो निहायत अफ़सोसनाक बात होती है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020

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