भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार ‘ललकार’ के साथियों से चली हमारी बहस में दोनों पक्षों की अवस्थितियाँ : एक महत्वपूर्ण याददिहानी
सम्पादक मण्डल, 3 फ़रवरी 2020
साथियो,
आपको याद होगा कि सितम्बर 2019 में पंजाब के ‘ललकार’ पत्रिका के भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावाद के शिकार साथियों से ‘आह्वान’ की एक बहस चली थी। अब भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी अपने गोलपोस्ट को शिफ़्ट करते जा रहे हैं। मिसाल के तौर पर, वे कह रहे हैं कि ‘हमने यह तो कहा ही नहीं, हमने वह तो कहा ही नहीं’, वग़ैरह। इस सूरत में भाषा और राष्ट्रीयता के इन अहम प्रश्नों पर एक स्वस्थ बहस चल सके इसके लिए हम सभी साथियों के सामने इस बात की याददिहानी कर रहे हैं कि अस्मितावादी भटकाव से ग्रस्त हमारे ‘ललकार’ के साथियों ने क्या कहा था और क्या नहीं। इसके लिए हम इनके द्वारा आयोजित ‘माँ बोली सम्मेलन’ में पारित माँगपत्रक और इनकी पत्रिका ‘ललकार’ के माँ बोली विशेषांक के लेखों को प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसकी पीडीएफ़ फ़ाइल का लिंक यहाँ है। ( https://www.scribd.com/document/445345489/Articles-Published-in-Lalkaar-Magazine ) इसके अलावा, हम ‘ललकार’ के आधिकारिक फ़ेसबुक पेज द्वारा शेयर की गयी कुछ पोस्ट्स को भी यहाँ साझा कर रहे हैं ( https://www.scribd.com/document/445345277/Posts-by-Lalkaar-and-Pratibaddh ), जिससे कि यह साफ़ हो जाये कि ‘ललकार’ की मूल अवस्थिति क्या थी। साथ ही हम अपने द्वारा पेश समूची आलोचना को भी यहाँ दुबारा शेयर कर रहे हैं, जिसकी पीडीएफ़ फ़ाइल का लिंक यहाँ है – ( https://www.scribd.com/document/445345057/Posts-by-Aahwan )।
चूंकि यह सारी सामग्री अब एक जगह पर है, इसलिए सभी साथियों को सुविधा होगी। हम याद दिला दें कि भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों ने अपनी पत्रिका के उक्त विशेषांक, अपने माँ बोली सम्मेलन और अपनी पत्रिका के फ़ेसबुक पेज से और बाद में इनके तमाम लोगों ने जो बातें कहीं हैं, उनमें निम्न अवस्थितियाँ अपनायी गयी थीं :
- पंजाब व पंजाबीभाषी बहुल इलाक़ों में समस्त शिक्षण-प्रशिक्षण, सरकारी कामकाज, यहाँ तक कि सारा ग़ैर-सरकारी कामकाज आदि सिर्फ़ पंजाबी भाषा में ही होना चाहिए। यानी कि कारख़ानों और खेतों और अन्य कार्यस्थलों में काम करने वाले लाखों प्रवासियों के लिए भी पंजाबी सीखने को एक पूर्वशर्त बना दिया जाये। हमारे अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी जोगा सिंह विर्क के पंजाबी भाषा की “सरदारी” (वर्चस्व) को सुनिश्चित करने के लिए दिये गये सुझावों का आधिकारिक तौर पर ‘ललकार’ के फ़ेसबुक पेज द्वारा अनुमोदन करते हैं, जिसमें एक माँग यह भी है कि न सिर्फ़ पंजाब सरकार के सभी दफ़्तरों में, बल्कि पंजाब में केन्द्र सरकार के भी सभी दफ़्तरों में केवल पंजाबी भाषा में कामकाज होना चाहिए। इसमें लिखा गया है, “पंजाब का सरकारी ग़ैर-सरकारी सारा काम-काज पंजाबी में करवाएँ। केन्द्र सरकार के नौकरियों/दाख़िलों की सारी परीक्षाएँ पंजाबी में करवाएँ। केन्द्र सरकार के पंजाब में स्थित सारे दफ़्तरों को पंजाबी में काम करने पर लगवाएँ।” ‘ललकार’ की यह पोस्ट जो कि जोगा सिंह विर्क के सुझावों को रखती है, पीडीएफ़ फ़ाइल में है।
- पंजाब में पंजाबी भाषा को रोज़गार के लिए पूर्वशर्त बनाया जाना चाहिए। ‘ललकार’ के अंक 1 से 15 मई 2019 में छपे लेख “पंजाबी भाषा के ख़ात्मे की हुक्मरानों की साज़िशों के विरुद्ध संघर्ष के लिए आगे आओ!” में यह कहा गया है – “पंजाबी को सरकारी कामकाज और रोज़गार की भाषा बनाने के लिए संघर्ष शुरू किया जाये। जब तक पंजाबी रोज़गार की भाषा नहीं बनती, इस संकट से बचा नहीं जा सकता।” इसके अलावा माँ-बोली कन्वेंशन के लिए तैयार की गयी दफ़्ती पर साफ़ लिखा है, “रोज़गार की भाषा पंजाबी बनाओ”। इस दफ़्ती का फ़ोटो ‘आह्वान’ के फ़ेसबुक पेज पर इस पोस्ट के नीचे क्मेंट में देखा जा सकता है।
ग़ौरतलब है कि पंजाब में राज्य स्तरीय नौकरियों में पंजाबी भाषा पहले से ही पूर्वशर्त है। “GOVERNMENT OF PUNJAB DEPARTMENT OF PERSONNEL AND ADMINISTRATIVE REFORMS (PERSONNEL POLICIES BRANCH-1) NOTIFICATION The 4th May, 1994” का यह अंश पढ़ें –
“Knowledge of Punjabi Language. – No person shall be appointed to any post in any service by direct appointment unless he has passed Matriculation Examination with Punjabi as one of the compulsory or elective subjects or any other equivalent examination in Punjabi Language, which may be specified by the Government from time to time: Provided that where a person is appointed on compassionate grounds on priority basis under the instructions issued in this behalf by the Government from time to time, the person so appointed shall have to pass an examination of Punjabi Language equivalent to Matriculation standard or he shall have to qualify a test conducted by the Language Wing of the Department of Education of Punjab Government within a period of six months from the date of his appointment: Provided further that where educational qualifications for a post in any service are lower than the Matriculation standard, then the person so appointed shall have to pass an examination of Punjabi Language equivalent to Middle standard: Provided further that where a War Hero, who has been discharged from defence service or para-military forces on account of disability suffered by him or her widow or dependent member of his family, is appointed under the instructions issued in this behalf by the Government, the person so appointed will not be required to possess aforesaid knowledge of Punjabi language: Provided further that where a ward of Defence Service Personnel, who is a bona fide resident of Punjab State, is appointed by direct appointment, he shall have to pass an examination of Punjabi Language equivalent to Matriculation Standard or he shall have to qualify a test conducted by the Language Wing of the Department of Education of Punjab Government within a period of two years from the date of his appointment.”
यानी कि पंजाब राज्य सरकार की नौकरियों में पंजाबी भाषा का ज्ञान पहले ही एक पूर्वशर्त है। ऐसे में, ‘ललकार’ के भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावाद के शिकार साथियों द्वारा ‘रोज़गार की भाषा को पंजाबी बनाओ’ की माँग का क्या अर्थ है? इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं : पहला, इसे निजी क्षेत्र की नौकरियों और केन्द्र सरकार की नौकरियों पर भी लागू करो, और दूसरा, पंजाब में रहना और काम करना है, तो पंजाबी भाषा का ज्ञान अनिवार्य बना दिया जाये। अब स्वयं सोचें कि क्या किसी भी दृष्टिकोण से यह माँग सर्वहारा माँग हो सकती है? यह भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावाद नहीं है, तो और क्या है?
- ‘ललकार’ के भाषाई अस्मितावाद के शिकार साथियों का अस्मितावाद किस स्तर पर पहुँच गया है, उसकी एक बानगी आपको इस मिसाल से मिल जायेगी। 2017 में पंजाब के एक पूर्व गैंगस्टर और अब राजनीति में अपना सिक्का चमकाने के आकांक्षी लक्खा सिधाना के संगठन “माँ बोली सतिकार कमेटी” द्वारा पंजाब में हाइवे पर लगे साइनबोर्डों पर हिन्दी और अंग्रेज़ी में लिखे जगह के नामों पर कालिख पोतने की मुहिम चलायी गयी। ‘ललकार’ के 1 से 15 नवम्बर 2017 अंक के सम्पादकीय में यह कहते हुए इसे जायज़ ठहराया गया –
“…इस भेदभाव के विरुद्ध कालिख पोतने के रूप में असन्तोष का इज़हार एक स्वागतयोग्य क़दम है। यह बात सही है कि भाषाई ज़ुल्म के विरुद्ध लड़ाई केवल इन्हीं रोड-साइनों तक महदूद नहीं होनी चाहिए बल्कि आगे भी बढ़नी चाहिए। पर केवल इसी नुक़्ते के कारण इस पूरी मुहिम का विरोध नहीं किया जाना चाहिए बल्कि लोगों की भावनाएँ इसी तरह ही अचानक किसी घटना के रूप में फूटती हैं जिन्हें आगे सही दिशा देना और आगे बढ़ाना समाज के चेतनासम्पन्न तबक़े की ज़िम्मेदारी होती है।…” अब ज़रा कल्पना करें। दिल्ली में हिन्दीभाषी बहुसंख्या में हैं, इस वजह से क्या दिल्ली के साइनबोर्डों पर पंजाबी में लिखे गये निर्देशों पर कालिख पोत देनी चाहिए? क्या अंग्रेज़ी में लिखे गये निर्देशों पर कालिख पोत देनी चाहिए? फिर नॉर्थईस्ट से आने वाले हज़ारों प्रवासी किस प्रकार इन्हें पढ़ पायेंगे? क्या किसी बहुभाषी और भारी आन्तरिक प्रवास (30 प्रतिशत!) वाले देश में इस प्रकार की भाषाई कट्टरता का कोई कम्युनिस्ट समर्थन कर सकता है?
- इनका मानना है कि जीन्द, हिसार, सिरसा, फतेहाबाद ज़िले मूलतः पंजाबी भाषी हैं, और उन्हें पंजाब में शामिल करने के लिए 1966 के भाषाई पुनर्गठन को रद्द करके फिर से भाषाई पुनर्गठन किया जाना चाहिए। ‘ललकार’ के अंक 16 अक्टूबर 2019 में छपे लेख “हरियाणा में पंजाबी लोग और पंजाबी मातृभाषा का मसला” का एक अंश – “1966 में पंजाब का भाषाई आधार पर फिर से विभाजन हुआ तो इस विभाजन का आधार भी भाषाई न होकर साम्प्रदायिक हो गया। राजनीतिक जोड़-तोड़ के कारण बहुत सारे अब के पंजाब के साथ लगते पंजाबी बोलते इलाक़े हरियाणा में शामिल कर लिये गये। अलग पंजाब बनाने के लिए मोर्चा लगाने वाले अकाली दल ने भी जानकारी होते हुए भी इन पंजाबी बोलते इलाक़ों पर दावा नहीं जताया। दरअसल 1966 का विभाजन ज़िलों के हिसाब से हुआ था। जो ज़िलों की बहुसंख्या की भाषा थी, उसे उस हिसाब से पंजाब या हरियाणा में मिला दिया गया। हरियाणा के ज़िला सिरसा (जोकि 1975 में ज़िला बना) और ज़िला फतेहाबाद (जोकि 1997 में ज़िला बना) 1966 के विभाजन के समय ज़िला हिसार का हिस्सा थे। उस समय के हिसाब से ज़िले में आधी से ज़्यादा आबादी पंजाबी बोलती थी, भारत सरकार बागड़ी को पंजाबी की उपभाषा मानती है। अगर जिनकी मातृभाषा बागड़ी है उन्हें भी पंजाबी के दायरे में रखें तो उस समय के हिसार ज़िले में पंजाबी भाषाई आबादी तीन-चौथाई से बढ़ जाती है, पर फिर भी उसे हरियाणा में मिलाया गया। अकालियों ने भी इस पर विरोध ज़ाहिर नहीं किया क्योंकि ज़िला हिसार की बहुसंख्या हिन्दू थी और अकालियों को राजनीति जोड़-तोड़ के इधर-उधर हो जाने का डर था। उस समय का ज़िला करनाल जोकि आज के ज़िले कुरुक्षेत्र, कैथल आदि को मिलाकर बनता था उसका विभाजन भी ज़िला हिसार की तरह ही हुआ था। पर हैरानी की बात है कि उस समय का पेपसू का इलाक़ा (जिसमें आज के ज़िला संगरूर, जीन्द आदि पड़ते हैं) मुख्य तौर पर पंजाबी बोलता था और करनाल व हिसार ज़िले को हरियाणा में शामिल किये जाने के आधार पर पेपसू का पूरा इलाक़ा पंजाब का हिस्सा बनता था पर इसे पंजाब और हरियाणा के दरमियान दो हिस्सों (पंजाब में संगरूर और हरियाणा में जीन्द) में विभाजित कर दिया गया। या तो करनाल और हिसार के लिए भी यही पैमाना अपनाया जा सकता था या फिर सही ढंग से देखा जाये तो ये ज़िले पंजाब का हिस्सा बनते थे पर भारतीय हुक्मरान पंजाब राज्य को कम से कम इलाक़े तक सीमित कर देना चाहते थे। भारतीय हुक्मरानों की घटिया चालों और अकालियों के राजनीतिक जोड़-तोड़ के कारण पंजाबी बोलता बड़ा इलाक़ा हरियाणा का हिस्सा बना दिया गया जहाँ से हिन्दी थोपे जाने का सिलसिला शुरू हुआ और बदस्तूर जारी है।” इसी लेख का एक और अंश – “…अन्तिम बात यह है कि इस सब का बुनियादी कारण 1966 का अन्यायपूर्ण विभाजन है, इसलिए भाषाई आधार पर इलाक़ों का सही ढंग से विभाजन हो।” हम ‘आह्वान’ द्वारा पेश की गयी गयी आलोचना में सन्दर्भों समेत दिखा चुके हैं कि बागड़ी पंजाबी की बोली नहीं है बल्कि हरियाणवी, राजस्थानी व पंजाबी की सेतु बोली है, जिसमें लेक्सिकल निकटता सर्वाधिक हरियाणवी के साथ है। दूसरी बात, इस प्रकार की बात ही करना कि “भारतीय हुक्मरान पंजाब राज्य को कम से कम इलाक़े तक सीमित कर देना चाहते थे” ‘ललकार’ के गम्भीर अस्मितावादी और राष्ट्रीय विचलन को दिखलाता है। इससे यह भी ज़ाहिर होता है कि ‘ललकार’ के हमारे राष्ट्रीय अस्मितावाद के शिकार साथी पंजाब को दमित राष्ट्रीयता मानते हैं। उस सूरत में इन्हें राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की लाइन को मानना चाहिए और पंजाब के अलग देश बनाये जाने की हिमायत करनी चाहिए।
- ‘ललकार’ के अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों का मानना है कि पंजाब में रह रहे प्रवासी मज़दूरों को पंजाबी भाषा सिखायी जानी चाहिए। 17 अप्रैल 2019 को इनकी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के फ़ेसबुक पेज पर डाली गयी एक पोस्ट का अंश – “पंजाब में रहने वाले हर व्यक्ति के साथ पंजाबी भाषा में ही बात करने की कोशिश की जाये। प्रवासियों को पंजाबी सीखने के लिए प्रेरित किया जाये।” भाषा के प्रश्न पर इस कार्यदिशा और राज ठाकरे के अर्द्धफ़ासीवादी मनसे की कार्यदिशा में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है। जिस प्रवासी को अपने जीवनयापन और सामाजिक-आर्थिक क्रिया-व्यापार हेतु पंजाबी सीखने की आवश्यकता होगी, वह स्वयं ही सीख लेगा। न तो पंजाब के कुलक-फ़ार्मर और न ही औद्योगिक पूँजीपति ऐसी पूर्वशर्त रख रहे हैं कि प्रवासी पंजाबी में ही लिखें-बोलें। ऐसे में, ‘बेगाने की शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ बनकर ऐसी बात करना इनके भाषाई अस्मितावादी विचलन को पूरी तरह अनावृत्त कर देता है। लेनिन ने स्वयं ही कहा था कि जब लोगों को अपने सामाजिक-आर्थिक अर्न्तक्रिया हेतु कोई भाषा सीखना अनिवार्य लगता है तो वे उसे स्वयं स्वेच्छा से अपनाते और सीखते हैं। किसी भाषा को इस प्रकार थोपना उस भाषा को ही हानि पहुँचाता है। जिस प्रकार कोई भी अस्मितावादी अपनी ही अस्मिता के जनसमुदायों को हानि पहुँचाता है और उसी प्रकार हमारे भाषाई अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी भी सर्वाधिक हानि पंजाबी भाषा को ही पहुँचायेंगे।
- आज पंजाब के हमारे अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी सीएए के विरुद्ध अभियान चला रहे हैं। लेकिन जब सीएए के विरोध में असम में प्रदर्शन शुरू हुए थे, तो इन्होंने ‘ललकार’ के पेज पर असमिया राष्ट्रवादियों के स्टैण्डप्वाइन्ट से पोस्ट डाली थी। यह पोस्ट है, जो ललकार के पेज पर 11 दिसम्बर 2019 को डाली गयी थी (पोस्ट का लिंक – https://www.facebook.com/lalkaar.mag/photos/a.1795834380445290/3157822760913105 ) इनकी अवस्थिति यह है कि असम में असमिया अस्मितावादियों द्वारा सीएए का विरोध इसलिए हो रहा है कि असम में असमिया लोग ही अल्पसंख्या हो जायेंगे जो कि वहाँ के “मूल निवासी” हैं और उनकी ये चिन्ताएँ वाजिब हैं! इससे उनकी भाषा और राष्ट्रीय संस्कृति ख़तरे में पड़ जायेंगे। इसका हमने आह्वान पर जो जवाब दिया वह इस लिंक पर देखा जा सकता है। (हमारे जवाब का लिंक – https://www.facebook.com/muktikamiahwan/posts/3195174193832200 )
- पूरे उपमहाद्वीप के विभाजन को रद्द करने की बजाय, केवल पाकिस्तान के पंजाबी सूबे और भारत के पंजाब के पुनःएकीकरण की बात करना और वियतनाम, जर्मनी के एकीकरण और कोरिया के सम्भावित एकीकरण से उसकी तुलना करना ‘ललकार’ के हमारे भाषाई व राष्ट्रीय अस्मितावाद के शिकार साथियों की एक और विचित्र खोज थी। ‘ललकार’ के पेज पर 4 नवम्बर 2019 को डाली गयी पोस्ट का अनुवाद – “मानव इतिहास शोषण-उत्पीड़न रहित समाज के सृजन के लिए जद्दोजहदों से भरा पड़ा है। मानव इतिहास अन्यायपूर्ण युद्धों, बर्बर क़त्लेआमों का भी गवाह है। साम्राज्यवादियों-पूँजीवादी शासकों द्वारा क़ौमों के अन्यायपूर्ण बँटवारों और क़त्लेआम भी इतिहास की छाती पर अंकित हैं। इसके साथ ही इतिहास ने इन अन्यायपूर्ण बँटवारों को ख़त्म होते हुए भी देखा है। दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी पूर्वी और पश्चिमी दो देशों में बँट गया। पर यहाँ के लोगों ने इस बँटवारे को कभी भी मंज़ूर नहीं किया। 1990 में बर्लिन की दीवार गिर गयी। जर्मनी के लोग फिर से एक हो गये। इस तरह उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों में बँटा वियतनाम 1976 में एक हो गया। 1945 में कोरिया भी उत्तरी और दक्षिणी कोरिया में बँट गया। पर यह बँटवारा कोरिया के लोगों के दिलों को नहीं बाँट सका। इसलिए कोरिया के फिर से एकीकरण की बात लगातार चलती रहती है। भविष्य में इसके एक होने की सम्भावना है। पंजाब ने भी 1947 की त्रासदी झेली है। अंग्रेज़ शासकों ने यहाँ साम्प्रदायिकता के जो बीज बोये थे उन्होंने 1947 में 10 से 12 लाख पंजाबियों की बलि ले ली। कोई डेढ़ करोड़ पंजाबियों को उजड़ना पड़ा। पर यह सब भी पंजाब के दिलों को न बाँट सका। दोनों पंजाबों के लोगों में फिर से मिलने की प्रबल इच्छा है। देखना यह है कि क्या यहाँ भी जर्मनी, वियतनाम दोहराया जायेगा। अगर पंजाब का फिर से एकीकरण होता है तो इससे किसे तकलीफ़ हो सकती है? सबसे ज़्यादा तकलीफ़ तो साम्प्रदायिक लोगों को ही हो सकती है। या क़ौमों, क़ौमी भावनाओं के प्रति संवेदनहीन रवैया रखने वाले बौने बुद्धिजीवियों को हो सकती है। दिल्ली और इस्लामाबाद के शासकों को वाहगा के दोनों तरफ़ के लोगों के आपसी प्यार से तकलीफ़ हो सकती है। कम्युनिस्ट जो पूरी दुनिया के लोगों की एकता चाहते हैं, वे भला पंजाब और बंगाल या अन्य टुकड़े-टुकड़े की गयी क़ौमों की एकता क्यों नहीं चाहेंगे? (हाँ इस चाहत का हक़ीक़त बन सकना या न बन सकना भविष्य की बात है)। वे दोनों पंजाबों के लोगों के फिर इकट्ठा होने के जज़्बों की क़द्र क्यों नहीं करेंगे? अगर दुनिया में ऐसे अजूबे कम्युनिस्ट हैं तो उन पर तरस ही किया जा सकता है, हँसा भी जा सकता है।”
अलग-अलग प्रान्तों के एकीकरण की बात करना लेकिन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में विभाजन की त्रासदी को ‘अनडू’ करने की बात न करना किस राजनीतिक कार्यक्रम की ओर ले जाता है, आप स्वयं समझ सकते हैं। दूसरे शब्दों में, ‘ललकार’ के अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों की ही भाषा में “दिल्ली और इस्लामाबाद” के शासकों के ख़िलाफ़ उन्हें ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ ग्रेटर पंजाब’ बनानी चाहिए और दोनों के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति और एकीकरण हेतु संघर्ष की शुरुआत करनी चाहिए! बंगाल के लोगों को भी ऐसा ही करना चाहिए! उन्हें “दिल्ली और ढाका” के शासकों के विरुद्ध “कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ ग्रेटर बंगाल” बनानी चाहिए और उसी प्रकार की राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति और एकीकरण के लिए लड़ना चाहिए! इस अस्मितावादी विचलन के अज्ञान की हास्यास्पदता यहीं ख़त्म नहीं होती। उसकी असली मिसाल सामने आती है जर्मनी और वियतनाम के एकीकरणों की और उनसे पंजाब के इनके प्रस्तावित एकीकरण की तुलना करने में। वैसे तो शुरू में इन्होंने इस बात से इन्कार किया था कि ये ग्रेटर पंजाब यानी महापंजाब नहीं माँग रहे। लेकिन इनके भटकाव अस्मितावादी विचलन की फटी झोली से बार-बार गिर ही जा रहे थे।
- ‘ललकार’ के हमारे अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों की राजनीति ही नहीं, गणित भी कमज़ोर है। इनके अनुसार हरियाणा में 30 प्रतिशत पंजाबीभाषी हैं! इसका कोई ठोस भरोसेमन्द आँकड़ा पेश किये बिना ‘कुछ मानिन्द लोगों के इम्प्रेशन्स’ के आधार पर ऐसा दावा किया गया है! ‘ललकार’ के अंक 16 अक्टूबर 2019 में छपे लेख “हरियाणा में पंजाबी लोग और पंजाबी मातृभाषा का मसला” का एक अंश – “2011 की जनगणना के अनुसार हरियाणा में तक़रीबन 10 फ़ीसदी लोगों की मातृभाषा पंजाबी है पर असल में पंजाबी बोलने वाले लोगों की संख्या कहीं ज़्यादा है। कुछ माहिर पंजाबी बोलने वाले लोगों की आबादी 30 फ़ीसदी के आसपास बताते हैं।” हमने पहले ही इन ग़लत और झूठे आँकड़ों की सच्चाई अपनी पुरानी पोस्टों में रखी है।
- ‘ललकार’ के अनुसार, हर बोली भाषा बनायी जानी चाहिए और इसके लिए हमें सचेतन तौर पर काम करना चाहिए। हरियाणवी को एक स्वतंत्र भाषा क़रार दिया गया है। लेकिन पंजाबी की बोलियों को अलग भाषा बनाने के हमारे अस्मितावादी पक्षधर नहीं हैं। यह परियोजना केवल हिन्दी भाषा पर लागू करनी है। हमारे भाषाई अस्मितावाद के शिकार साथियों का मानना है कि पंजाबी की बोलियों के साथ ऐसा नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि सभी पंजाबी बोलियांँ बोलने वाले एक-दूसरे को और साथ ही मानकीकृत पंजाबी भाषा को समझ लेते हैं, लेकिन हिन्दी की बोलियों के साथ ऐसा नहीं है। पहली बात तो यह है कि भाषा और बोली में फ़र्क़ करने का यह कोई आधार ही नहीं है। दुनिया में ऐसी कई भाषाएँ हैं, जिनकी सभी बोलियाँ बोलने वाले एक-दूसरे को नहीं समझ पाते या फिर बेहद मुश्किल से समझ पाते हैं। दरअसल, हमारे अस्मितावादी ‘डायलेक्ट कॉण्टीनुअम’ (dialect continuum) के सिद्धान्त से परिचित नहीं हैं, जो ठीक यही बताता है कि एक ही भाषा की बोलियाँ हो सकती हैं, जिनको बोलने वाले एक-दूसरे की बोलियों को नहीं समझ पाते या मुश्किल से और आंशिक तौर पर समझ पाते हैं। (देखें, चैम्बर्स एण्ड ट्रडगिल, ‘डायलेक्टॉलजी’, सेकेण्ड एडीशन, केम्ब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 4) दूसरी बात, यह बात ही ग़लत है कि हरियाणवी बोलने वालों और भोजपुरी या मागधी बोलियाँ बोलने वालों को मानकीकृत हिन्दी समझ में नहीं आती है। अभी इसको तो हम छोड़ ही दें कि बोली और भाषा के बीच स्तालिन द्वारा किये गये विभाजन के बारे में इन लोगों की कोई समझदारी ही नहीं है। और बोलियों के बीच से किसी एक बोली को मुख्य तौर पर आधार बनाते हुए कोई भाषा किस प्रकार विकसित होती है, इस पर स्तालिन की समझदारी को पूरी तरह से अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों ने ग़ायब कर दिया है।
- इनके अनुसार, हिन्दी एक “हत्यारी” और “साम्राज्यवादी” भाषा है, जिसे पहले अंग्रेज़ों ने और बाद में भारतीय पूँजीपति वर्ग की सत्ता ने भाषा बना दिया, अन्यथा यह अपने आप में किसी विचारणीय आकार के जनसमुदाय की भाषा ही नहीं है। फिर इसे अन्य बोलियों की “हत्या” करके तथाकथित हिन्दी पट्टी की जनता पर थोप दिया गया! इनके अनुसार, भोजपुरी, मागधी, अवधी, ब्रज, कौरवी, अहीरी, सभी बोलियों को अलग-अलग भाषा बना दिया जाना चाहिए। हम ‘आह्वान’ द्वारा पेश आलोचना में, जो कि संलग्न है, दिखला चुके हैं कि यह तर्क किस प्रकार अनैतिहासिक और अवैज्ञानिक है। लेकिन अस्मितावाद के शिकार हमारे ‘ललकार’ के साथी मानते हैं कि सभी बोलियों को भाषाएँ बनाने का यही काम पंजाबी भाषा की उपभाषाओं और बोलियों के साथ नहीं किया जाना चाहिए! इसके पीछे तर्क है कि सभी पंजाबी बोलियाँ बोलने वाले मानकीकृत पंजाबी को अच्छी तरह समझ लेते हैं, लेकिन हिन्दी की बोलियाँ बोलने वाले हिन्दी नहीं समझ पाते हैं, हालाँकि यह बात ही तथ्यतः ग़लत है। इसका हम पिछले बिन्दु में खण्डन दे चुके हैं।
- पंजाबी भाषा की “सरदारी” (वर्चस्व) को पंजाब में सुनिश्चित करने के लिए जोगा सिंह विर्क द्वारा सुझाये गये क़दमों की ‘ललकार’ के आधिकारिक पेज से हिमायत की गयी है। 26 सितम्बर 2019 को ‘ललकार’ के पेज पर जोगा सिंह विर्क की एक पोस्ट साझा की गयी, जिसका शीर्षक था – “पंजाबी की सरदारी (वर्चस्व) के लिए ज़रूरी काम”। वैसे मार्क्सवादी-लेनिनवादी कभी भी किसी भाषा के वर्चस्व को स्थापित करने की बात नहीं करते, बल्कि सभी भाषाओं व राष्ट्रों की पूर्ण समानता की बात करते हैं। भारत जैसे बहुराष्ट्रीय देश में इस बात की प्रासंगिकता विशेष तौर पर है।
- कुछ पोस्टें ‘ललकार’ के साथियों ने हमारे द्वारा की जा रही आलोचना की प्रक्रिया में ही बिना किसी आत्मालोचना के हटा दीं। जैसे कि ‘ललकार’ द्वारा शेयर किये गये एक वीडियो में पंजाबी को सिख धर्म और गुरुओं और देश की भाषा क़रार दिया गया था। एक अन्य पोस्ट में ज़ायनवादी हत्यारों के सबसे बड़े समर्थकों में से एक जस्तिन त्रूदो को कनाडा की संसद की कार्रवाई के पंजाबी में प्रसारण करने पर बधाई दी गयी थी, कि पंजाबियों के कनाडा में अल्पसंख्या होने के बावजूद त्रूदो ने ऐसा किया। हालाँकि, इसी सिद्धान्त को पंजाब में हमारे अस्मितावादी लागू नहीं करते हैं। वहाँ पर सारी शिक्षा व सरकारी कामकाज केवल पंजाबी में होना चाहिए, और प्रवासियों को पंजाबी सीखनी चाहिए! इन हटा दी गयी पोस्टों का मैटर भी संलग्न फ़ाइल में शामिल है।
- हिमाचल प्रदेश की भी कई बोलियों को पंजाबी की बोलियाँ होने का दावा किया जाता रहा है। मिसाल के तौर पर, इनके ही एक साथी ने अपनी एक पोस्ट “पंजाबी और बिलासपुरी भाषा के आपस में जुड़े तार” में दावा किया है कि बिलासपुरी वास्तव में पंजाबी के क़रीब पड़ती है। सच्चाई यह है कि बिलासपुरी बोली भाषाविज्ञानी तौर पर पश्चिमी पहाड़ी भाषा परिवार में आती है, पंजाबी में नहीं।
- चण्डीगढ़ को पंजाब में शामिल किये जाने की माँग को भी ‘ललकार’ के भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावादियों ने पुरज़ोर तरीक़े से बार-बार उठाया है। इसके लिए आज चण्डीगढ़ में रहने वाली आबादी की राय कोई मायने नहीं रखती! बस हमारे अस्मितावादियों की राय मायने रखती है! इस पूरे तर्क का खण्डन भी हम पहले ही अपने आलोचनात्मक निबन्धों में पेश कर चुके हैं। (इनमें से कुछ इस अंक में संलग्न हैं – सम्पादक)
- जब अस्मितावाद का कैंसर फैलता है तो वह एक अंग में रुकता नहीं है। हमारे ‘ललकार’ के अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों का अस्मितावाद भाषा और राष्ट्र के सवाल पर शुरू हुआ है लेकिन इस बात के स्पष्ट संकेत हैं कि यह जल्द ही अन्य रूपों में भी प्रकट हो सकता है। मिसाल के तौर पर, दिल्ली में एक सिख ऑटो चालक के साथ पुलिस द्वारा मारपीट की घटना को इन्होंने यह कहते हुए धार्मिक रंग देने की कोशिश की कि उसे पुलिस ने इसलिए पीटा था क्योंकि वह सिख था। इस पर पंजाब के ही तमाम तर्कसंगत लोगों ने इनका विरोध किया था। सभी जानते हैं कि हर धर्म के ऑटो ड्राइवरों के साथ आये-दिन पुलिस मारपीट करती है, इसलिए क्योंकि वे मेहनतकश तबक़े से आते हैं। इसकी फ़ेसबुक पोस्ट का लिंक संलग्न फ़ाइल में है। इस मसले को धार्मिक रंग देना वास्तव में इनके अस्मितावादी रुझान को ही दिखलाता है। इसी प्रकार क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक शहीद की तुलना भाई सती दास व भाई मती दास से भी की गयी थी। यह भी इसी आम अस्मितावादी रुझान को ही दिखलाता है।
इसी प्रकार की अन्य कई बातें कहीं गयीं जो कि किसी भी रूप में एक सर्वहारा लाइन नहीं है। अब हमारे भाषाई अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी इनमें से कई बातों से मुकर रहे हैं कि उन्होंने तो ऐसी बात ही नहीं कही, इसलिए हमने उनके द्वारा अपनी पत्रिका, फ़ेसबुक पेज आदि पर प्रस्तुत किये गये विचारों को भी यहाँ पर शेयर कर दिया है, ताकि गोलपोस्ट शिफ़्ट न किया जा सके। क्योंकि गोलपोस्ट शिफ़्ट करने की वजह से कोई भी बहस स्वस्थ रूप से नहीं चल पाती है।
दूसरी बात, ‘ललकार’ के साथी यह दलील दे रहे हैं कि उन्होंने तो यह बातें बस कहीं हैं, लेकिन उनका इस पर आन्दोलन खड़ा करने या मोर्चा निकालने का कोई इरादा नहीं है। हमारा कहना है कि मार्क्सवादियों के लिए सिद्धान्त कर्मों का मार्गदर्शक होता है, बस ‘कह देने’ के लिए नहीं होता है। हर विवरण एक निर्देश होता है (every description is always-already a prescription)। हर विश्लेषण में एक कार्रवाई का कार्यक्रम भी होता है। यदि ऐसा नहीं है, तो आप मार्क्सवादी नहीं माने जायेंगे। यदि हमारे अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों का ऐसा मानना है, तो उन्हें इन बातों पर आन्दोलन जरूर करना चाहिए!
ख़ैर, हमने इन बातों के जवाब में मुख्यतः निम्न बातें कहीं हैं, जिन्हें आप साथ में शेयर किये गये दस्तावेज़ों में भी पढ़ सकते हैं :
- पंजाब में शिक्षण-प्रशिक्षण व सरकारी कामकाज पंजाबी में तो अवश्य होना चाहिए, लेकिन सिर्फ़ पंजाबी में हो, ऐसी माँग करना सर्वहारा वर्ग के ख़िलाफ़ जाता है। हमें ऐसी भाषा नीति की माँग करनी चाहिए कि हर राज्य में हर नागरिक को अपनी मातृभाषा में पढ़ने-लिखने व सरकारी कामकाज का विकल्प मुहैया किया जाना चाहिए। यह तो कोई ऐसी माँग भी नहीं है जो केवल समाजवादी व्यवस्था में ही पूर्ण हो सकती है, बल्कि कई यूरोपीय देशों ने समस्त शिक्षण-प्रशिक्षण व सरकारी कामकाज में अपनी सीमाओं के भीतर बोली जाने वाली कई या सभी भाषाओं का विकल्प मुहैया करके दिखला दिया है। दूसरी बात, ऐसी माँग एक ऐसे देश में मज़दूर-विरोधी माँग है, जहाँ 2001 की जनगणना के आधार पर आन्तरिक प्रवासी आबादी कुल आबादी का 30 प्रतिशत है। कहने की आवश्यकता नहीं है, इन प्रवासियों का 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा मज़दूर वर्ग से आता है। ऐसे में, किसी भी राज्य के कम्युनिस्टों द्वारा ऐसी माँग उठाया जाना यही दिखलाता है, कि वे भाषा और राष्ट्रीयता के सवाल पर बुर्जुआ अस्मितावाद के विचलन का शिकार हैं।
- इससे भी ज़्यादा प्रतिक्रियावादी माँग हमारे भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार के साथियों की यह है कि पंजाब में रोज़गार के लिए पंजाबी भाषा को पूर्वशर्त बनाया जाये। राज्य के मातहत आने वाली सरकारी नौकरियों में पहले से यह शर्त है, लेकिन सभी नौकरियों में ऐसी माँग करना ही सर्वहारा दृष्टिकोण से एक प्रतिक्रियावादी माँग है। न तो पंजाब के पूँजीपति ये माँग कर रहे हैं और न ही कुलक-फ़ार्मर, कि सभी प्रवासी मज़दूर पंजाबी सीखें तो कोई सर्वहारा संगठन ऐसी माँग क्यों उठायेगा? यह किसी भी मानक से सर्वहारा माँग नहीं है। उल्टे यह मज़दूरों के प्रवास में बाधा पैदा करने वाली एक राष्ट्रवादी माँग है, जिसका लेनिनवादी मानकों से पुरज़ोर विरोध किया जाना चाहिए। कल्पना करें कि यही माँग महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा, बंगाल, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आदि सभी राज्यों में उठा दी जाये, तो इसका क्या नतीजा होगा? और इसका उन राज्यों में रह रहे पंजाबी प्रवासियों पर क्या असर होगा?
- हरियाणा में मौजूदा तौर पर केवल एक ज़िला है जिसमें पंजाबी भाषी बहुसंख्या में हैं, और वह है सिरसा। हम पहले भी तथ्यों व तर्कों समेत ‘आह्वान’ द्वारा अस्मितावादी विचलन के शिकार ‘ललकार’ के साथियों की आलोचना में यह दिखला चुके हैं कि किसी भी मानक से जीन्द, हिसार व फतेहाबाद पंजाबीभाषी बहुल नहीं हैं। हम ऐसे दावे पर यही कहेंगे कि पंजाब के हमारे भाषाई अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों को पंजाबी भाषा की “सरदारी” स्थापित करने का अपना अभियान जीन्द और हिसार तथा फतेहाबाद में आकर चलाना चाहिए! जनता ही अपने रचनात्मक तरीक़ों से उन्हें इस दावे के बेतुकेपन का मतलब समझा देगी। दूसरी बात, हमें सिरसा में पंजाबी भाषी आबादी के बहुसंख्या में होने के आधार पर उनकी मातृभाषा में शिक्षण-प्रशिक्षण व सरकारी कामकाज का अधिकार माँगना चाहिए। लेकिन यदि पंजाब राज्य में शामिल होने की जनता के बीच कोई माँग ही नहीं है, तो इस प्रकार की माँग को उठाकर गोलबन्दी करने का कोई तुक नहीं बनता है, क्योंकि यह मेहनतकश जनता के बीच ही विभाजन की दीवारें खड़ी करेगा। मूल बात यह है कि राज्यों के पुनर्गठन की माँग आज जनता की जीवन्त और ज्वलन्त माँग है ही नहीं और यह सर्वहारा माँग तो क़तई नहीं है। लेकिन अगर ‘ललकार’ के भाषाई और राष्ट्रीय अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी ऐसा मानते हैं तो उन्हें सिर्फ़ बोलना नहीं चाहिए, बल्कि इसके लिए जनान्दोलन भी खड़ा करना चाहिए। बागड़ी, बांगरू, आदि सभी बोलियों को पंजाबी भाषा की बोलियाँ क़रार देने का तथ्यों व तर्कों समेत जवाब हम ‘आह्वान’ की पोस्टों में दे चुके हैं जिन्हें हमने कालानुक्रम से मौजूदा नोट के साथ शेयर किया है। ऐसा ही दावा हमारे ‘ललकार’ के अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी तमाम हिमाचली बोलियों के लिए भी करते रहे हैं।
- हमारे अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों का मानना है कि पंजाब के प्रवासी मज़दूरों व आम तौर पर प्रवासियों को पंजाबी भाषा सिखायी जानी चाहिए। हमारा यह कहना है कि सामाजिक व आर्थिक क्रिया-व्यापार की आवश्यकता के आधार पर जो प्रवासी पंजाबी सीखना चाहेगा वह अवश्य सीखेगा और उसे सीखने में मदद भी की जानी चाहिए। लेकिन सभी प्रवासियों के लिए आप ऐसा फ़ैसला लेने वाले कौन हैं? क्या आप इसका भी समर्थन करेंगे कि यदि हरियाणा या उत्तराखण्ड के ज़िलों में रहने वाले पंजाबी प्रवासियों को ज़बरन हिन्दी या वहाँ की बोली सिखायी जाये? इसका पंजाब के हमारे ‘बिग नेशन शॉविनिस्ट’ भटकाव से ग्रस्त साथी समर्थन नहीं करेंगे! वह तो कनाडा में भी पंजाबी प्रवासियों को उनकी मातृभाषा का हक़ दिलाना चाहते हैं! लेकिन पंजाब में आते ही ग़ैर-पंजाबी भाषी प्रवासियों के बारे में उनके सारे मानक बदल जाते हैं!
- पाकिस्तान के राज्य पंजाब और भारत के राज्य पंजाब के एकीकरण की बात करना और समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन को ख़त्म करने की बात न करना न केवल सैद्धान्तिक तौर पर ग़लत है, बल्कि व्यावहारिक तौर पर भी विचित्र राजनीतिक कार्यक्रम पर पहुँचता है। इनके अनुसार पंजाबियों को पाकिस्तान और भारत दोनों ही जगह क़ौमी दमन का सामना करना पड़ रहा है। तो इस कार्यदिशा के अनुसार एक ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ ग्रेटर पंजाब’ की स्थापना करके हमारे पंजाब के अस्मितावादी विचलन के शिकार साथियों को भारत और पाकिस्तान की बुर्जुआज़ी के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई लड़नी चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे उत्तरी वियतनाम और दक्षिणी वियतनाम ने लड़ी थी! सच तो यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप में भारत हो या पाकिस्तान, दोनों ही जगहों पर जो क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट हैं, वे पूरे उपमहाद्वीप के ही साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन को एक त्रासदी मानते हैं और इसे ‘अनडू’ करने की ऐतिहासिक परियोजना को वांछनीय मानते हैं। इसके लिए ज़ाहिरा तौर पर भारत और पाकिस्तान में समाजवादी क्रान्ति एक बुनियादी पूर्वशर्त है। इसी के ज़रिये मुख्य तौर पर पंजाब और बंगाल और इसके अलावा उन सभी क़ौमों के साथ हुए विभाजन के अन्याय को भी समाप्त किया जा सकता है, जो कि मौजूदा सीमा पर बसती हैं।
- हिन्दी के “हत्यारी” और “साम्राज्यवादी” भाषा होने पर भी हमने अपनी पोस्टों में तर्कों व तथ्यों समेत विस्तृत आलोचना पेश की थी। वह भी यहाँ अटैच फ़ाइल्स में शेयर की गयी है। (इनमें से कुछ मौजूदा अंक में शामिल हैं – सम्पादक) साथ ही, बोली और भाषा के बीच फ़र्क़ न करने और हर बोली को भाषा के रूप में विकसित करने की अवैज्ञानिक और अनैतिहासिक सोच पर भी हमने क्लासिकीय मार्क्सवाद के सन्दर्भों के साथ आलोचना की है। वह भी शेयर की गयी फ़ाइलों में मौजूद है।
- आख़िर में, किसी एक भाषा की “सरदारी” स्थापित करने की पूरी सोच के ग़ैर-मार्क्सवादी चरित्र पर भी हमने अपनी पोस्टों में विचार पेश किये हैं, वे भी यहाँ पेश फ़ाइलों में शामिल हैं।
अन्य बिन्दुओं पर हमारे विचार इस नोट के पहले हिस्से में ‘ललकार’ के अस्मितावादी भटकाव के शिकार साथियों की अवस्थिति पर चर्चा करते हुए रखे गये हैं और आह्वान द्वारा पेश की गयी आलोचनात्मक पोस्ट्स में शामिल हैं, जिन्हें पाठक अब एक स्थान पर संलग्न पीडीएफ़ में पढ़ सकते हैं।
ये याददिहानी इसलिए ज़रूरी थी कि अपनी इन मूल अवस्थितियों में थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन करते हुए राष्ट्रीय व भाषाई अस्मितावादी विचलन के शिकार साथी अपना गोलपोस्ट शिफ़्ट करते जा रहे हैं, जिससे कि भ्रम की स्थिति पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है। हमने जो फ़ाइलें साथ में शेयर की हैं, उनसे उनके द्वारा अपनायी गयी अवस्थितियाँ भी साफ़ तौर पर देखी जा सकती हैं और हमारे द्वारा पेश आलोचनाएँ भी एक स्थान पर कालानुक्रम के साथ पढ़ी जा सकती हैं।
आगे हम इन सभी सवालों पर आह्वान की अवस्थिति को एक स्थान पर क्लासिकीय लेनिनवादी अवस्थितियों के सन्दर्भों समेत दो अवस्थिति पत्रों में रखेंगे जिनमें से एक भारत में भाषा के प्रश्न पर होगा और दूसरा भारत में राष्ट्रीयताओं के सवाल पर। फ़िलहाल, पाठकों से आग्रह है कि आह्वान की सभी आलोचनात्मक पोस्टों को पढ़ लें, जिन्हें हमने एक स्थान पर कर दिया है। वे इस नोट के साथ ही संलग्न है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020
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