रेलवे सेक्टर को भी लुटेरों के हाथों में सौंपने की तैयारी
विराट
जनता के ख़ून-पसीने से खड़े किये गये सार्वजनिक क्षेत्र को निजी हाथों में सौंपने की प्रक्रिया में अब रेलवे सेक्टर का नाम भी जुड़ गया है। रेल मन्त्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी इस बार के रेल बजट में रेलवे सेक्टर के निजीकरण की ज़ोर-शोर से वकालत की है। गृह मन्त्रालय ने तो पहले ही रेलवे में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाज़त दे दी थी, अब कैबिनेट ने भी इसकी इजाज़त दे दी है। लोकसभा चुनावों की नौटंकी के कारण फ़िलहाल चुनाव आयोग ने रेलवे में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रस्ताव को रोक लिया है लेकिन यह नौटंकी समाप्त होते ही रेलवे के निजीकरण का रास्ता पूरी तरह से साफ़ हो जायेगा। 65,000 किलोमीटर लम्बी रेलवे लाइन और करीब 8000 स्टेशनों के साथ भारतीय रेल अमेरिका, रूस एवं चीन के बाद चौथे स्थान पर है। यह विश्व का पाँचवाँ सबसे बड़ा उद्योग है। इसमें करीब 13 लाख से कुछ अधिक कर्मचारी काम करते हैं। चूँकि इतने बड़े उद्योग को एक साथ निजी हाथों में सौंपने से सरकार को काफ़ी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, इसलिए फ़िलहाल हाई-स्पीड ट्रेन सिस्टम्स, सबअर्बन कॉरिडोर, इंफ्रास्ट्रक्चर और सार्वजनिक-निजी-साझेदारी (पी.पी.पी.) के तहत क्रियान्वित किये जाने वाले डेडिकेटेड फ्रेट लाइन प्रोजेक्टों में ही प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंज़ूरी दी गयी है। डिपार्टमेण्ट ऑफ़ इण्डस्ट्रियल पॉलिसी एण्ड प्रमोशन (डी.आई.पी.पी.) ने यह भी सुझाव दिया है कि निजी कम्पनियों को उन ‘स्पेशल पर्पज़ व्हीकल्स’ में 100 फ़ीसदी हिस्सेदारी ख़रीदने की इजाज़त दी जानी चाहिए जो बन्दरगाहों, खदानों एवं औद्योगिक केन्द्रों को रेलवे नेटवर्क से जोड़ने वाली रेल लाइनें बनाने के साथ-साथ उनका रख-रखाव भी करेंगे। मास रैपिड ट्रांसपोर्ट सिस्टम में पहले ही प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए अनुमति मिली हुई है। इसके अलावा रेलवे स्टेशनों की सफ़ाई, डिब्बों की सफ़ाई, खानपान व्यवस्था, रेल पटरियों की मरम्मत, रेलवे की कई कार्यशालाओं में मरम्मत एवं उत्पादन, वातानुकूलित डिब्बों में वातानुकूलन यन्त्रों की मरम्मत एवं देखभाल का काम पहले ही पूँजीपतियों को सौंपा जा चुका है। आने वाले दिनों में जब नयी रेल पटरियों को बिछाने, रेलवे के लिए निर्माण का काम, माल की ढुलाई का प्रबन्धन भी सार्वजनिक-निजी-साझेदारी के तहत लुटेरों के गिरोह को सौंप दिये जायेंगे तो यह भारत की मेहनतकश जनता की पीठ में एक और छुरा घोंपना होगा जिसने अपने ख़ून से सींचकर इतने बड़े सार्वजनिक उद्योग को खड़ा किया है।
ये सभी क़दम उठाने के पीछे जो कारण बताये जा रहे हैं, वे वही पुराने कारण हैं जिनका बहाना लेकर एक-एक सार्वजनिक क्षेत्र को निजी लुटेरों के हाथों कौड़ियों के भाव बेचा गया। एक तर्क यह दिया जा रहा है कि रेलवे सेक्टर बेहद घाटे में चल रहा है और नक़दी की किल्लत के चलते यह काफ़ी जीर्ण-शीर्ण हो गया है। इसके जीर्णोद्धार के लिए निजी निवेश के बग़ैर काम नहीं चलेगा, और ऐसे ही तमाम मूर्खतापूर्ण तर्क। इन सभी तर्कों की नग्नता को जनता का बड़ा हिस्सा पहले ही देख चुका है। फिर भी एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा ऐसा है जो कि मानता है कि निजीकरण से सारी समस्याएँ दूर हो जायेंगी, जिसमें ख़ासकर मध्यवर्गीय आबादी शामिल है। पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय नौजवान भी इस भ्रम के शिकार हैं कि निजीकरण से सारी मौजूदा समस्याएँ दूर हो जायेंगी। वे आसानी से कहीं भी यह तर्क देते हुए मिल जाते हैं कि निजी क्षेत्रों में रखरखाव ज़्यादा बेहतर होता है और काम अधिक नियमितता से होता है। लेकिन तथ्य बेरहम होते हैं और दूध का दूध व पानी का पानी कर देते हैं। 1991 से जो निजीकरण की प्रक्रिया में तेज़ी आयी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बाढ़ आयी, उसका जनता पर क्या असर पड़ा है यह तो ख़ुद सरकारी आँकड़ों से ही देखा जा सकता है। चाहे वह बेरोज़गारी, भूख, कुपोषण का लगातार बढ़ते जाना हो या चाहे जनता के जीवन स्तर में भारी गिरावट का आना हो, पिछले 25 वर्षों ने यह साफ़ कर दिया है कि निजीकरण-उदारीकरण से जनता को केवल बर्बादी ही मिली है। हालाँकि निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को अपनाने के लिए तर्क यही दिये गये थे कि निजी निवेश से जनता को रोज़गार के अवसर मिलेंगे, जब ऊपर समृद्धि आयेगी तो वह रिस-रिसकर नीचे पहुँचेगी (ट्रिकल डाउन थ्योरी)। लेकिन कितने रोज़गार के अवसर मिले और कितनी समृद्धि आयी यह जनता के सामने है- समृद्धि की मलाई केवल पूँजीपतियों ने चाटी और बची-खुची खुरचन उच्च-मध्यवर्ग डकार गया।
दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि उपनगरीय इलाक़ों में सबअर्बन कॉरिडोर बनाने की बेहद ज़रूरत है, क्योंकि इन इलाक़ों में आबादी का घनत्व अधिक है और परिवहन सुचारू रूप से नहीं चल पाता। लेकिन हक़ीक़त में तो यह पूँजीवाद की ही खड़ी की हुई एक समस्या है। पूँजीवादी समाज में गाँवों और शहरों का असमान विकास होता है और शिक्षा, चिकित्सा आदि की सुविधा ग्रामीण आबादी को आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती जिसके कारण ग्रामीण आबादी को रोज़-ब-रोज़ काम, इलाज, शिक्षा, चिकित्सा आदि के लिए शहरों में आना पड़ता है। दूसरी बात कि एक पूँजीवादी समाज में जब कृषि में पूँजीवादी विकास होता है तो गाँवों में लगातार ग़रीब किसान, अर्द्ध-सर्वहारा आबादी अपनी घर-ज़मीन से उजड़कर शहरों में विस्थापित होती रहती है, जिसके कारण शहरों और उनके निकटवर्ती इलाक़ों में आबादी के घनत्व का बढ़ना स्वाभाविक है। लेकिन इस समस्या को किसी सबअर्बन कॉरिडोर बनाने जैसे नीम-हक़ीमी नुस्खे से दूर नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसके कारण तो नरभक्षी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के भीतर छिपे हुए हैं। देखा जाये तो ये सभी तर्क जो रेलवे सेक्टर का निजीकरण करने के लिए दिये जा रहे हैं, इनमें से किसी में भी दम नहीं है और यह पूँजीपतियों के हित में सरकार का, जोकि पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती है, उठाया गया एक और क़दम है।
अब सवाल यह आता है कि भारतीय रेल जो इतना विशाल उद्योग है, क्या इसकी हालत सुधारने के लिए निजीकरण के अलावा कोई रास्ता बचता है या नहीं। इतिहास यह दिखाता है कि सोवियत संघ में रेलवे का जो विकास हुआ वह रेलवे को निजी ठेकेदारों के हाथों में सौंपकर नहीं बल्कि सोवियत जनता के ख़ून-पसीने की मेहनत और उसकी फ़ौलादी एकता के कारण हुआ। क्रान्तिपूर्व रूस में रेलवे नेटवर्क बेहद पिछड़ा हुआ था। 1914 से 1920 में मची भारी उथल-पुथल के दौरान रेलवे नेटवर्क बेहद क्षतिग्रस्त हो चुका था। चार साल के विश्वयुद्ध और फिर गृहयुद्ध के कारण रेलवे नेटवर्क लगभग नष्ट ही हो गया था। अक्टूबर क्रान्ति के बाद लम्बे समय तक प्रतिक्रान्तिकारी अन्य चीज़ों के साथ रेलवे लाइनों को भी नुक़सान पहुँचाते रहे। प्रथम विश्वयुद्ध के शुरू होने तक रूस में फ्रेट ट्रैफ़िक (मालभाड़ा यातायात) 100 अरब टन-किलोमीटर था। विश्वयुद्ध और गृहयुद्ध के दौरान यह घटकर केवल 20 अरब टन-किलोमीटर ही रह गया। इस दौरान लगभग 90 प्रतिशत रेल-इंजन और लगभग 80 प्रतिशत बोगियाँ बेकार या नष्ट हो गयी थीं। 7,762 रेलवे के पुल टूट चुके थे। 1919 तक केवल 4 हज़ार इंजन ही सही हालत में बचे थे। इस तरह 60 प्रतिशत से भी ज़्यादा रेलवे नेटवर्क नष्ट हो गया था। इतना सब होने के बाद शायद किसी भी पूँजीवादी देश की अर्थव्यवस्था भरभराकर ढह जाती लेकिन जो समाजवादी अर्थव्यवस्था में सोवियत जनता ने कर दिखाया वह किसी चमत्कार से कम नहीं था। बुर्जुआ अर्थशास्त्री भी इस सत्य को स्वीकार करते हैं। अनेकों उपन्यासों व पुस्तकों में सोवियत जनता के कठोर परिश्रम और जीवट को दिखाया गया है जिसके कारण उसने समाजवादी व्यवस्था का निर्माण किया। निकोलाई ऑस्त्रेव्स्की अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘अग्निदीक्षा’ में और अन्ना लुई स्ट्रांग अपनी पुस्तक ‘स्तालिन युग’ में बड़े बेहतर ढंग से दिखाते हैं कि किस अटूट मेहनत से सोवियत जनता ने जीर्ण-शीर्ण रेल व्यवस्था को फिर से खड़ा कर दिया। जहाँ भारत में पिछले 20 वर्षों में रेलवे सेक्टर में कर्मचारियों की संख्या 16.50 लाख से घटकर केवल 13 लाख ही रह गयी है, वहीं सोवियत रूस में 1923-24 में रेलवे में काम करने वालों की संख्या जो 7 लाख 15 हज़ार थी, वह 1927 तक बढ़कर 8 लाख 65 हज़ार हो चुकी थी। जहाँ औसत मासिक मज़दूरी 1923-24 में 32.80 रूबल थी, वह 1926-27 तक बढ़कर 69.39 रूबल हो चुकी थी, यानी कि तीन वर्षों में दोगुनी से भी अधिक की बढ़ोत्तरी।
1928-32 में पहली पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत तुर्किस्तान-साइबेरियाई रेलवे लाइन का निर्माण किया गया। इस 1,481 किलोमीटर लम्बी रेलवे लाइन ने मध्य एशिया के कपास उगाने वाले क्षेत्रों को साइबेरिया के अनाज उगाने वाले क्षेत्रों से जोड़ दिया। इससे पहले जो रास्ता था उससे 1200 किलोमीटर की अधिक दूरी तय करनी पड़ती थी। बुर्जुआ इतिहासकार भी इस रेलवे लाइन के निर्माण को चमत्कार से कम नहीं मानते। 1930 के दशक में भी रेल का विकास लगातार चलता रहा, क्योंकि यह औद्योगिक विकास के लिए बेहद ज़रूरी था। 1941 तक फ्रेट ट्रैफ़िक जो 1919-20 में केवल 20 अरब टन-किलोमीटर था, वह बढ़कर 400 अरब टन-किलोमीटर हो चुका था। लेकिन इसके तुरन्त बाद द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान रूस में हत्यारे हिटलर की सेनाओं ने भीषण तबाही मचा दी और रेल व्यवस्था को भी भयंकर नुक़सान पहुँचा दिया। सोवियत जनता ने हिटलर की सेना को हराने के साथ-साथ ही युद्ध के अन्त तक आधे से अधिक रेलवे के नुक़सान की भरपाई भी कर ली थी। विश्वयुद्ध के बाद फिर से रेलवे के विकास को गति मिली और 1954 आते-आते फ्रेट ट्रैफिक 850 अरब टन-किलोमीटर तक पहुँच गया और सोवियत रेल व्यवस्था ने अमेरिकी रेल व्यवस्था को पीछे छोड़ दिया। 1960 तक रूस विश्वभर के रेल से ढोये जाने वाले कुल माल का आधा हिस्सा ढोने लगा था और जबकि उसके पास पूरे विश्व की कुल रेलवे लाइन का केवल 10वाँ हिस्सा ही था। इस तरह से सोवियत संघ ने पूरे विश्व में सबसे शानदार और किफ़ायती रेलवे नेटवर्क का निर्माण किया।
माल ढोने के अलावा यात्रियों की सुविधाओं को भी ध्यान में रखा जाता था। सोवियत रेलों में यात्री किस तरह से आराम के साथ सफ़र करते थे, इसके बारे में अनेकों विदेशी पत्रकारों ने भी काफ़ी कुछ लिखा है। वहीं दूसरी ओर भारत की लोकल ट्रेनों की हालत कौन नहीं जानता। भेड़-बकरियों की तरह लोगों को सफ़र करना पड़ता है। सरकार को लोगों के दुःख-तकलीप़फ़ों से कोई मतलब नहीं है। विकास की नौटंकी करके जिस तरह से रेलवे सेक्टर को निजी लुटेरों के हाथों में सौंपने की तैयारी की जा रही है, उससे यह फिर साफ़ होता है कि यह सरकार पूँजीपतियों के ही तलवे चाटती है और अब अपने आकाओं के लिए उसने रेलवे के दरवाज़े भी खोल दिये हैं, ताकि अब वे यहाँ भी जमकर मुनाफ़ा कमा सकें। सोवियत संघ में जिस तरह से रेलवे का विकास हुआ है उससे यह देखा जा सकता है कि एक समाजवादी व्यवस्था में ही वास्तव में रेलवे का विकास इस तरह से हो सकता है कि जनता की ज़रूरतों को ध्यान में रखा जाये न कि पूँजीपतियों और ठेकेदारों की।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2014
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