जातिवाद को जड़ से खत्म करने की जरूरत है
प्रिय साथी,
मैने ‘आह्वान’ का जनवरी-जून, 2013 अंक पढ़ा, चण्डीगढ़ में जाति प्रश्न पर हुए सेमिनार के बारे में जानकर काफी अच्छा लगा कि इस महत्वपूर्ण विषय पर बातचीत हुई। हमारे साथियों ने जातिवाद के प्रश्न को जिस तरह पेश किया मुझे लगा समाज को पतन की ओर ले जाने में जातिवाद, धर्मवाद बहुत बड़ा मुद्दा है क्योंकि भारत के अन्दर जातिवाद, धर्मवाद लोगों की नस-नस में घुस गया है। इस तरह समाज को जातिवाद और धर्म के आधार पर बाँटा गया है ताकि कुछ लोग इससे शासन कर सकें, आज समाज में लोगों के साथ भेदभाव हो रहा है। ग़रीबी-अमीरी की जड़ भी है जो यहीं से शुरू हुई और समाज में आज जितना भेदभाव होता है वह देखकर ऐसा लगता है कि समाज में इंसान ने इंसान की पहचान खो दी है। वह आदमखोर जानवर बन चुका है।
समाज में हर जगह भेदभाव किया जाता है चाहे वे कोई भी जगह हो और समाज में ज़रूरत इस खाई, भेदभाव को खत्म करने की है। इसे ख़त्म करने के लिए हम लोगों को एक साथ काम करने की ज़रूरत है। ज़रूरत इस बात की है कि नौजवान सबसे पहले जाति और धर्म के बन्धनों को तोड़ें। यहीं से शुरुआत हो सकती है। जो पुराना है और सड़ चुका है वहाँ पर सिर मारने से कोई फ़ायदा नहीं है। नवयुवकों को इन विचारों के विष से मुक्त किया जाना चाहिए।
इस व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए एक नया समाज बनाने के लिए सभी को एकजुट होकर लड़ना होगा, तभी एक नया समाज बनेगा।
निकेत, करावल नगर, दिल्ली
जाति के ज्वलन्त मुद्दे पर बहस होना लाज़िमी है
प्रिय सम्पादक महोदय,
काफी समय बाद ‘आह्वान’ का नया अंक प्राप्त हुआ। हर बार की तरह सामग्री काफ़ी महत्वपूर्ण थी। ‘आप’ के घोषणापत्र पर आया लेख अच्छा लगा। इसकी एक प्रति सीधे केजरीवाल साहब के पास भी भेज देनी चाहिए। जाति के सवाल पर सेमिनार की रिपोर्टिंग भी पढ़ी, भाषा थोड़ी कठिन थी किन्तु समझ आ गयी। जाति के ज्वलन्त मुद्दे पर बहस होना लाज़िमी है। पढ़े गये पेपरों का कोई लिंक नहीं दिया गया था, कृपया बता दें। ‘दुनिया के सबसे बड़े और महँगे पूँजीवादी जनतंत्र की तस्वीर’ नामक लेख वास्तव में एक सही तस्वीर प्रस्तुत करता है। पाठन सामग्री तो ठीक थी किन्तु एक-दो शिकायत भी है। एक तो पत्रिका में अधूरे लेखों के बाद दिये गये पेज क्रमांक में गड़बड़ थी, इससे थोड़ी दिक्कत हुई, दूसरी बात पत्रिका काफी लम्बे इन्तजार के बाद प्राप्त हुई, आशा है इन चीजों को दुरूस्त किया जायेगा। शुभकामनाओं के साथ,
सुरेश कुमार, उन्नाव, उ.प्र.
मज़दूर संघर्षों को क्रान्तिकारी नेतृत्व देने के लिए आलोचनात्मक नज़रिये की ज़रूरत
प्रिय सम्पादक,
पिछले अंक में मारुति मज़दूर आन्दोलन पर चल रही बहस पर लिखा गया लेख काफ़ी ज्ञानवर्द्धक था। न सिर्फ़ मारुति मज़दूरों के संघर्ष के मामले में, बल्कि अन्य मज़दूर संघर्षों के मामले में भी क्रान्तिकारी वामपंथी संगठनों का नज़रिया पिछले लम्बे समय से अनालोचनात्मक रहा है। नतीजतन, इन संघर्षों को कोई दिशा देने की बजाय वे उनके पीछे ही चलते रह जाते हैं। यदि संघर्ष गड्ढे में जाता है तो वे भी गड्ढे में जाते हैं, और बाद में विश्लेषण पर लेख और पुस्तिकाएँ निकालते हैं, यह बताते हुए कि आन्दोलन में कहाँ क्या ग़लत था। क्या इससे बेहतर नहीं कि आन्दोलनों के जारी रहते ही इनकी कमियों के बारे में विचार किया जाय और उन्हें दूर किया जाय। जहाँ तक मारुति संघर्ष के बारे में कुछ नववामपंथी बुद्धिजीवियों के विचार की बात है, जिनकी आलोचना लेख में की गयी है, तो वह शेखचिल्लीवाद के सिवा और कुछ भी नहीं है। इस प्रकार के बुद्धिजीवियों के प्रभाव से मज़दूर आन्दोलनों को बचाया जाना चाहिए और सतत् इनके विचारों की आलोचना होनी चाहिए।
जाति प्रश्न पर सेमिनार की रपट से वहाँ चली बहस की एक स्पष्ट तस्वीर सामने आयी। निश्चित ही सेमिनार में प्रस्तुत आलेखों को पढ़ने का प्रयास करूँगा। ‘आह्वान’ के नियमित बनाया जाय तो इसकी निरन्तरता का ज़्यादा प्रभाव पड़ेगा। बीच में लम्बे अन्तराल पड़ जाने से सिलसिला टूट-सा जाता है। यह जानते हुए भी कि पत्रिका निकालने वाले नौजवानों की टीम लगातार जनान्दोलनों में भी सक्रिय रहती है, आग्रह करूँगा कि पत्रिका को शीघ्रतम सम्भव नियमित बनाने का प्रयास किया जाय। पत्रिका जहाँ भी जाती है, अपना काम करती है। आगे के लिए शुभकामनाएँ।
वीरेन्द्र, पटना
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2013
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