आज़ादी के 67 वर्ष के मौके पर सांस्कृतिक कार्यक्रम “किस्सा-ए-आज़ादी उर्फ़ 67 साला बर्बादी” का आयोजन
दिल्ली संवाददाता
आज़ादी की 67वीं वर्षगाँठ के अवसर पर करावलनगर में आज़ादी की पूर्वसंध्या पर नौजवान भारत सभा, दिशा छात्र संगठन, बिगुल मज़दूर दस्ता व करावलनगर मज़दूर यूनियन के सयुंक्त बैनर तले एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। उपरोक्त कार्यक्रम का का शीर्षक “किस्सा-ए -आज़ादी उर्फ़ 67 साला बर्बादी” थी। कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए के.एम.यू. के नवीन कुमार ने बताया कि इस कार्यक्रम का मकसद आज़ादी के स्याह पहलुओं को उजागर करना है। पिछले 67 वर्षों की आज़ादी की कुल जमा बैलेंस शीट यह है कि देश के 90 फीसदी संसाधनों पर मुट्ठीभर लोगों का कब्ज़ा है तथा बहुसंख्यक नागरिक आबादी मूलभूत नागरिक सुविधाओं से भी महरूम है। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि ये किसकी आज़ादी है? कार्यक्रम की शुरूआत क्रान्तिकारी गीत ‘तोड़ो बन्धन तोड़ो’ से हुई। इसके बाद मौजदूा संसदीय व्यवस्था की वास्तविकता को उजागर करते हुए गुरुशरण सिंह का प्रसिद्ध नाटक ‘हवाई गोले’ के संशोधित संस्करण ‘देख फकीरे लोकतन्त्र का फूहड़ नंगा नाच’ विहान सांस्कृतिक मंच द्वारा प्रस्तुत किया गया जिसमें देश की संसदीय व्यवस्था व भ्रष्ट राजनेताओं के चरित्र को उजागर करते हुए यह दिखलाया गया कि मौजूदा संसद सिर्फ बहसबाज़ी का अड्डा बनकर रह गयी है। इसके बाद ‘मेहनतकश औरत की कहानी’ नाटक का मंचन किया गया। फैज़ के गीत ‘हम मेहनतकश जगवालों से’ की प्रस्तुति भी की गयी।
कार्यक्रम में बिगुल मज़दूर दस्ता के अजय ने सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि 15 अगस्त, 1947 को भारत आज़ाद तो हुआ लेकिन ये आज़ादी देश के चन्द अमीरज़ादों की तिजोरियों में कैद होकर रह गयी है। वास्तविक आज़ादी का अर्थ यह कत्तई नहीं है कि एक तरफ तो भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में अनाज सड़ जाता है वहीं दूसरी तरफ रोज़ाना 9000 बच्चे भूख व कुपोषण से दम तोड़ देते हैं। भगतसिंह के शब्दो में आज़ादी का अर्थ यह कत्तई नहीं था कि गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज आकर हम पर काबिज़ हो जायें। देश की जनता पिछले 66 सालों के सफ़रनामे से समझ चुकी है कि ये आज़ादी भगतसिंह व उनके साथियों के सपनों की आज़ादी नहीं है जहाँ पर 84 करोड़ आबादी रु. 20 प्रतिदिन पर गुज़ारा करती हो तथा पिछले 15 वर्षों में ढाई लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हों, वहीं संसद- विधानसभाओं में बैठने वाले नेताओं-मंत्रियों न सिर्फ़ ऊँचे वेतन उठा रहे हैं बल्कि उन्हें हर सुविधा लगभग निशुल्क प्राप्त है और ऊपर से कारपोरेट घरानों के साथ मिलकर किये जाने वाले भ्रष्टाचार से होने वाली करोड़ों की कमाई।
सांस्कृतिक कार्यक्रम में आगे क्रान्तिकारी कवि गोरख पाण्डेय का भोजपुरी गीत ‘गुलमिया अब नाहीं बजईबो’ को यूनियन के मज़दूर साथियों ने प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का समापन करते हुए ‘दिशा छात्र संगठन’ के सनी ने बताया कि आज आज़ादी का जश्न वे लोग मनायें जिनको इस व्यवस्था ने सारी सुख-सुविधाएँ आम मेहनतकश जनता की कीमत पर मुहैया कराई हैं। देश की बहुसंख्यक छात्र युवा आबादी के लिए वास्तविक अर्थों में आज़ादी एक ऐसे समाज में ही सम्भव है जहाँ उत्पादन, राजकाज व समाज के पूरे ढाँचे पर मेहनतकश वर्गों का कब्ज़ा हो। एक ऐसा समाज जो शहीद-ए-आज़म भगतसिंह के सपनों का समाज होगा जिसके लिए लोकस्वराज्य पंचायतों का गठन करते हुए फैसला लेने की ताकत जनता के हाथों में देनी होगी न की मुट्ठीभर धानपतियों के हाथों में। तभी सही मायनों में मुकम्मल आज़ादी आयेगी। ‘नौजवान भारत सभा’ के मिथिलेश ने नागार्जुन की कविता ‘किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है’ का पाठ भी किया। कार्यक्रम का संचालन नवीन कुमार ने किया। कार्यक्रम में इलाके के करीब 500 नौजवानों, नागरिकों व मज़दूरों ने शिरकत की। कार्यक्रम का समापन ‘तस्वीर बदलो दो दुनिया की’ गीत से किया गया।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2013
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