भगतसिंह ने कहा…
‘’क्रान्ति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है। इस शताब्दी में इसका सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है-जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रान्ति’ बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूँजीवादी सड़ाँध को ही आगे बढ़ाते हैं। किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं। भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को-भारत में साम्राजरूवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं-आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयाँ, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने को तैयार हैं।
साम्राज्यवादियों को गद्दी से उतारने के लिए भारत का एकमात्र हथियार श्रमिक क्रान्ति है। कोई और चीज़ इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकती। सभी विचारों वाले राष्ट्रवादी एक उद्देश्य पर सहमत हैं कि साम्राज्यवादियों से आज़ादी हासिल हो। पर उन्हें यह समझने की भी ज़रूरत है कि उनके आन्दोलन की चालक शक्ति विद्रोही जनता है और उसकी जुझारू कार्रवाइयों से ही सफलता हासिल होगी।…
…हमें याद रखना चाहिए कि श्रमिक क्रान्ति के अतिरिक्त न किसी और क्रान्ति की इच्छा रखनी चाहिए और न ही वह सफल हो सकती है।’‘
(क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा)
‘‘जिस धरती पर हर अगले मिनट एक बच्चा भूख या बीमारी से मरता हो, वहाँ पर शासक वर्ग की दृष्टि से चीज़ों को समझने की आदत डाली जाती है। लोगों को इस दशा को एक स्वाभाविक दशा समझने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। लोग व्यवस्था को देशभक्ति से जोड़ लेते हैं और इस तरह से व्यवस्था का विरोधी एक देशद्रोही अथवा विदेशी एजेण्ट बन जाता है। जंगल के कानूनों को पवित्र रूप दे दिया जाता है ताकि पराजित लोग अपनी हालत को अपनी नियति समझ बैठें।’‘
‘‘हमारे युग में हर वस्तु अपने गर्भ में अपना विपरीत गुण धारण किये हुए प्रतीत होती है। हम देख रहें हैं कि मानव श्रम को कम करने और उसे फलदायी बनाने की अद्भुत शक्ति से सम्पन्न मशीनें लोगों को भूखा मार रही हैं, उन्हें थकाकर चूर कर रही हैं। सम्पदा के नूतन स्रोतों को किसी अजीब जादू-टोने के जरिये अभाव के स्रोतों में परिणत किया जा रहा है। तकनीक की विजयें चरित्र के पतन से ख़रीदी जाती लगती हैं। मानवजाति जिस रफ्तार से प्रकृति पर अपना प्रभुत्व कायम करती जा रही है, मनुष्य दूसरे लोगों का अथवा अपनी ही नीचता का दास बनता लगता है। विज्ञान का शुद्ध प्रकाश तक अज्ञान की अँधेरी पार्श्वभूमि के अलावा और कहीं आलोकित होने में असमर्थ प्रतीत होता है। हमारे सारे आविष्कार तथा प्रगति का यही फल निकलता प्रतीत होता है कि भौतिक शक्तियों को बौद्धिक जीवन प्रदान किया जा रहा है तथा मानव जीवन को प्रभावहीन बनाकर भौतिक शक्ति बनाया जा रहा है। एक ओर आधुनिक उद्योग तथा विज्ञान के बीच और दूसरी ओर आधुनिक कंगाली तथा अधःपतन के बीच यह वैरविरोध; हमारे युग की उत्पादक शक्तियों तथा सामाजिक सम्बन्धों के बीच यह वैविरोध स्पृश्य दुर्दमनीय तथा अकाट्य तथ्य है। कुछ पार्टियाँ इस पर विलाप कर सकती हैं; कुछ आधुनिक संघर्षों से छुटकारा पा सकने के लिए आधुनिक तकनीकों से छुटकारा पाने की दुआएँ माँग सकती हैं। या वे यह कल्पना कर सकती हैं कि उद्योग में इतनी विशिष्ट उन्नति राजनीति में उतनी है विशिष्ट अवनति से पूर्ण होनी चाहिए। अपनी ओर से हम उस चतुर शैतान की प्रकृति को पहचानने में भूल नहीं करते जो इन तमाम अन्तरविरोधों में निरन्तर प्रकट होता रहा है। हम जानते हैं समाज की नूतन शक्तियों को ठीक तरह से काम करने के लिए जिस चीज़ की ज़रूरत है, वह है उन्हें नूतन लोगों द्वारा वश में लाया जाना-और ये हैं मेहनतक़श लोग।’‘
(‘पीपुल्स पेपर’ की जयन्ती पर भाषण, 1856)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010
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