16 दिसम्बर को दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार काण्ड के विरुद्ध
कौन जिम्मेदार है इस पाशविकता का? कौन दुश्मन है? किससे लड़ें?

अन्तरा घोष

16 दिसम्बर को दिल्ली में एक चलती बस में एक 23 वर्षीय पैरामेडिकल की छात्रा के साथ हुई सामूहिक बलात्कार की घटना ने सारे देश की अन्तरात्मा को झकझोर कर रख दिया। 13 दिनों तक मौत से लड़ने के बाद उस छात्रा ने सिंगापुर के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया। इस घटना के खिलाफ दिल्ली ही नहीं पूरे देश में औरतें, नौजवान, छात्र और बुद्धिजीवी सड़कों पर हैं। हर संवेदनशील व्यक्ति का दिल नफरत और बग़ावत की भावना से भरा हुआ है। दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार इस मुद्दे पर दिखावटी कवायदों में लग गयी है। बलात्कारियों पर सख़्त से सख़्त और जल्द से जल्द कार्रवाई की व्यवस्था करने की बजाय वे अपनी कोर बचाने में लगी हुई हैं और राष्ट्रीय राजधानी में इस घटना के विरुद्ध प्रदर्शन कर रही जनता का ही दमन कर रही है। इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है। जिस संसद में 286 ऐसे सांसद हैं जिन पर स्त्री-विरोधी अपराधों के मुकदमे चल रहे हैं, उनसे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? कांग्रेस और भाजपा समेत तमाम चुनावी पार्टियों ने 26 बलात्कार के आरोपियों को पिछले चुनावों में टिकट दिये। जाहिर है, बलात्कारियों, शोषकों-उत्पीड़कों और भ्रष्टाचारियों की संसद यही कर सकती थी!

इस घटना के बाद स्वतःस्फूर्त ढंग से जनता का गुस्सा फूट पड़ा। रोष और गुस्से से भरे आम लोग और स्त्रियाँ सड़कों पर उतर आयीं और यह लेख लिखे जाने तक लोग सड़कों पर मौजूद हैं। दिल्ली में हर दिन इस घटना के विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं। कुछ लोग फाँसी की माँग कर रहे हैं, तो कुछ बलात्कारियों को बधिया कर देने की; तो कुछ अन्य बामशक्कत उम्रकैद की माँग कर रहे हैं। लेकिन इन माँगों को उठाते समय हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि सज़ा की मंजिल तक पहुँचते ही बेहद कम बलात्कारी हैं। बलात्कार के कुल मामलों में से 74 फीसदी मामलों में दोष-सिद्धि ही नहीं हो पाती। जिन मामलों में सज़ा मिलती भी है, उसमें पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रसित न्यायालय तय सज़ा से कहीं कम सज़ा देते हैं। इसका एक कारण यह भी होता है कि आम तौर पर इन मामलों में आरोपी समाज के धनी और प्रभावी वर्गों से आते हैं, और बलात्कृत स्त्री अक्सर ग़रीब या निम्न मध्यवर्गीय घरों से। ऐसे में न्यायालय अपने पुरुष सत्तावादी पूर्वाग्रह और वर्ग पूर्वाग्रहों के चलते कम सज़ा देते हैं, मुकदमों में दोष सिद्ध ही नहीं हो पाता। तमाम पार्टियों के मन्त्री, विधायक, सांसद और अन्य नेता ऐसी किसी भी घटना के बाद समाज में औरतों के लिए मौजूद स्पेस को और कम करने की बात करने लगते हैं। कोई कहता है कि स्त्रियाँ ही बलात्कार के लिए पुरुष को उकसाती हैं, कोई कहता है कि यदि लड़कियाँ जींस और स्कर्ट पहनना छोड़ दें तो स्त्री-विरोधी अपराध नहीं होंगे, औरतों को 8 बजे के बाद घर से नहीं निकलना चाहिए, वगैरह! पुलिस की पूरी मानसिकता क्या है यह तहलका पत्रिका द्वारा किये गये सि्ंटग ऑपरेशन में देश के सामने आ चुकी है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के आला पुलिस अधिकारियों का मानना है कि लड़कियों ने पैसों के लिए यौन सम्बन्ध बनाने का धन्धा शुरू कर दिया है, लड़कियों के कपड़े देखकर पुरुष के अन्दर बलात्कार की इच्छा जाग जाती है, वगैरह। ऐसी घिनौनी मानसिकता रखने वालों से सुरक्षा की उम्मीद करना मूर्खता होगी। जाहिर है, हम एक पूँजीवादी पितृसत्तात्मक समाज में जी रहे हैं और इस मानसिकता को जिन्दा रखने, पालने-पोसने और आगे बढ़ाने का काम सबसे पहले इस पूरी व्यवस्था के कर्ता-धर्ता करते हैं। लेकिन हम अगर वाकई इस घिनौने माहौल से मुक्ति चाहते हैं, अगर हम इस पाशविकता से आज़ादी चाहते हैं तो महज़ अपना गुस्सा निकालने और इस समाज का विश्लेषण करके छोड़ देने से कुछ नहीं बदलने वाला। सवाल यह है कि ये घटनाएँ लगातार बढ़ क्यों रही हैं?

दिल्ली में 16 दिसम्बर को जो कुछ हुआ उसके बाद देश भर में प्रदर्शन और विरोध हुए। लेकिन इसके बावजूद 16 दिसम्बर के बाद एक दिन भी नहीं बीता है जब देश के किसी न किसी हिस्से से बलात्कार की ख़बरें न आयीं हों। 30 दिसम्बर को ही दिल्ली की एक चलती बस में ही 16 वर्षीय किशोरी से बलात्कार का प्रयास किया गया। यह क्लस्टर बस सेवा की एक बस में हुआ जिसमें सरकार ने सरकारी बसें ‘पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप’ के नाम पर निजी मालिकों और ठेकेदारों को चलाने के लिए दी हैं। साफ है कि महज़ विरोध प्रदर्शनों और भड़ाँस निकालने से कुछ नहीं बदलेगा। हमें जो सवाल पूछने की ज़रूरत आज सबसे ज़्यादा है वह यह है कि ऐसे अपराधों के लिए जिम्मेदार कौन है? कौन हमारा दुश्मन है जिससे हमें लड़ना है? और दूसरा सवाल यह है कि हमें लड़ना कैसे है?

बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों के क्या कारण हैं? कौन-सी ताक़तें हैं इसके लिए जिम्मेदार?

स्त्री-विरोधी अपराध कोई नयी बात नहीं है। जबसे पितृसत्तात्मक समाज अस्तित्व में आया है, तबसे ये अपराध लगातार होते रहे हैं। पहले इनका रूप अलग था और आज इनका रूप अलग है। सामन्ती समाज में तो स्त्रियों के उत्पीड़न को एक प्रकार की वैधता प्राप्त थी; जिस समाज में कोई सीमित पूँजीवादी अधिकार भी नहीं थे, वहाँ परदे के पीछे और परदे के बाहर स्त्रियों के खिलाफ अपराध होते थे और वे आम तौर पर मुद्दा भी नहीं बनते थे। पूँजीवादी समाज में इन स्त्री-विरोधी अपराधों ने एक अलग रूप अख्तियार कर लिया है। अब कानूनी तौर पर, इन अपराधों को वैधता हासिल नहीं है। लेकिन इस पूँजीवादी समाज में एक ऐसा वर्ग है जिसके जेब में कानून, सरकार और पुलिस सबकुछ है। यह वर्ग ही मुख्य रूप से वह वर्ग है जो ऐसे अपराधों को अंजाम देता है। पूँजीवादी समाज के अधिक से अधिक रुग्ण और लम्पट होते जाने के साथ ये अपराध भी अधिक से अधिक घिनौने और बीमार किस्म के बनते गये हैं। और ऐसे अपराधों की बारम्बारता में भी वृद्धि हुई है।

मौजूदा तौर पर, पूरे देश में बलात्कार व अन्य स्त्री-विरोधी अपराधों की संख्या हर साल बढ़ रही है। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान इस तरह के मामलों में सबसे आगे हैं। पिछले बीस वर्षों में स्त्री-विरोधी अपराधों में हुई असामान्य बढ़ोत्तरी के कारणों को समझना भी ज़रूरी है। 16 दिसम्बर को दिल्ली में जो हुआ वह कोई एक अकेली घटना नहीं, बल्कि एक लगातार बढ़ते रुझान की प्रतीक घटना है। ये कौन-सी सामाजिक ताक़तें हैं जो इन अपराधों के लिए जिम्मेदार हैं? वह कौन-सी मानसिकता है जो इनके लिए जिम्मेदार है और कौन-से वर्ग इस मानसिकता को खाद-पानी दे रहे हैं?

अगर हम ऐसे अपराधों के आँकड़े उठाकर देखें तो हम पाते हैं कि ऐसे अपराधों के लिए सबसे ज़्यादा जिम्मेदार है नवधनाढ्यों का वह वर्ग जो नयी आर्थिक नीतियों के बीस वर्षों में गाँवों और शहरों में अस्तित्व में आया है। यह वह नवधनाढ्य वर्ग है जिसे नयी आर्थिक नीतियों ने जन्म दिया है, पाला-पोसा है और इसके अन्दर पैसे की ताक़त का अहंकार भरा है। शहरों में प्रापर्टी डीलरों, टटपुंजिया व्यापारियों, ट्रांसपोर्टरों, शेयर मार्केट के दलालों, तरह-तरह के कमीशनखोरों और सट्टेबाज़ों, और यहाँ तक कि तरह-तरह के नये किस्म के उद्योगों, जैसे आई.टी. सेक्टर आदि, में काम करने वाला पढ़ा-लिखा उच्च मध्य वर्ग, आम तौर पर इन अपराधों में आरोपी होता है। गाँवों में धनी कुलकों और फार्मरों का एक पूरा वर्ग अस्तित्व में आया है जिसके पास अचानक काफी पैसा आ गया है। कुछ के पास यह पैसा खेती के ज़रिये आया है, तो कुछ के पास रियल एस्टेट के बाज़ार में तेज़ी आने और ज़मीनों की कीमतें बढ़ने के साथ आया है। ये दूसरी किस्म आम तौर पर महानगरों के आस-पास और राजमार्गों के पास पड़ने वाले गाँवों में ज़्यादा पायी जाती है, मिसाल के तौर पर, दिल्ली, गुड़गाँव, फरीदाबाद, नोएडा, ग़ाजियाबाद, आदि के आस-पास बसे गाँव। ये ही वे इलाके हैं जिनमें बड़े पैमाने पर स्त्री-विरोधी अपराध हो रहे हैं। यहाँ पूँजीवादी विकास के पहले से ही खाप पंचायतों का ज़ोर रहा है। ये वे संस्थाएँ हैं जिनके घनघोर स्त्री-विरोधी चरित्र के बारे में ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। पूँजीवादी विकास के बाद प्राक्-पूँजीवादी निरंकुशता के साथ पूँजी का अहंकार और पैसे के दम पर कुछ भी पा लेने की हवस मिल गयी है, और इसने एक भयंकर मानवद्रोही, स्त्री-विरोधी और घटिया किस्म का वर्ग पैदा किया है। यदि आँकड़ों पर निगाह डालें तो शहरों और गाँवों में नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से अस्तित्व में आया यह लोभी-लालची, स्त्री-विरोधी मानवद्रोही वर्ग सबसे ज़्यादा जिम्मेदार है। इनमें धनी किसानों, व्यापारियों, छोटे और मँझोले उद्योगपतियों, प्रापर्टी डीलरों, ट्रांसपोर्टरों, शेयर बाज़ार के दलालों का वर्ग सबसे प्रमुख है।

एक दूसरा वर्ग है जो इसी नवधनाढ्य वर्ग द्वारा फेंके गये टुकड़ों पर पलता है और इसी की संस्कृति में ढला हुआ है। यह वर्ग है लम्पट टटपुंजियों और लम्पट सर्वहाराओं का वर्ग जो तमाम छोटे उद्योग-धंधों, दुकानों, व्यापारिक प्रतिष्ठानों आदि में काम करता है, या ट्रांसपोर्टरों और प्रापर्टी डीलरों का कारकून होता है। यह कोई मज़दूरी का काम नहीं करता, बल्कि मालिक का निजी चमचा, कारकून और दासवृत्ति का शिकर व्यक्ति होता है। इसमें खलासी, कण्डक्टरों, हेल्परों का भी एक वर्ग है जो निजी मालिकों की बसों में चलता है। जाहिर है, हम यहाँ समस्त चालकों और परिचालकों की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनके एक अमानवीकृत हिस्से की बात कर रहे हैं, जो आम तौर पर निजी ट्रांसपोर्टर माफ़ि‍याओं के मातहत काम करता है। इसे हम उदाहरण से स्पष्ट करना चाहेंगे। दिल्ली के उदाहरण पर नज़र डालें तो यह बात और अच्छी तरह से साफ हो जाती है। दिल्ली में पहले ब्लू लाइन बसें चलती थीं। ट्रांसपोर्टर माफ़ि‍याओं के बीच दिल्ली में भारी प्रतिस्पर्द्धा है। ऐसे में, कोई भी ट्रांसपोर्टर जिसे दिल्ली में बसें चलवानी हो वह इस बात के लिए बाध्य है कि वह अपनी बसों में अपराधी मानसिकता के लम्पटों को चालक और कण्डक्टर के तौर पर रखे। अन्यथा, उसकी बस दिल्ली की सड़कों पर चल ही नहीं सकती। क्योंकि जिस ट्रांसपोर्टर के पास अपराधी किस्म का स्टाफ होगा, वह उसकी बस को किसी सड़क के कोने में खड़ा करवा देगा। मालिक अगर मुनाफा चाहता है, तो वह बस चलाने का ठेका किसी अमानवीकृत अपराधी गिरोह को देने के लिए बाध्य है। अब ब्लू लाइन बसें बन्द हो गयी हैं और सरकार पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप’ (जिसका मतलब है जनता पैसा लगाये, पूँजीपति मुनाफा कमाये!) के नाम पर अपनी बसों को निजी मालिकों को ठेके पर दे रही है। इन बसों को ऑरेंज बस सेवा या क्लस्टर बस सेवा कहा जाता है। यह पूरी योजना ही नवधनाढ्य, और आम तौर पर, जाट कुलकों को लाभ पहुँचाने के लिए बनायी गयी है। दिल्ली में चाहे शीला दीक्षित की सरकार रहे या भाजपा की सरकार आ जाये, वे धनिक जाटों की लॉबी को कभी नाराज़ नहीं कर सकती है। नतीजतन, निजी ब्लू लाइन सेवा बन्द करने के बाद दिल्ली सरकार ने जनता को धोखा देते हुए उसे दूसरे नाम से शुरू कर दिया है। आपको शायद याद होगा कि आज से चार-पाँच साल पहले दिल्ली में ब्लू लाइन बसों द्वारा की गयी दुर्घटनाओं में कई जानें गयी थीं, और जनता के विरोध और आन्दोलन के फलस्वरूप दिल्ली सरकार को यह सेवा बन्द करनी पड़ी थी। लेकिन अब जो सेवा क्लस्टर बस सेवा के नाम पर चल रही है उसमें तो मालिकों और ट्रांसपोर्टरों को और फायदा है, क्योंकि इसमें बस भी सरकार की है और मुनाफे का बड़ा हिस्सा भी उन्हीं का है। ये निजी मालिक इस नयी सेवा में उन्हीं अपराधी और पाशविक मानसिकता वाले लोगों को लगा रहे हैं जो ब्लू लाइन सेवा में लगाये जाते थे। इस सेवा के अलावा दिल्ली में सरकार की आज्ञा से चार्टर्ड बसें भी चलती हैं, जो कि ऐसे ही मालिकों और ऐसे ही अपराधी किस्म के स्टाफ द्वारा चलायी जाती है। 16 दिसम्बर को हुई घटना एक चार्टर्ड बस में ही हुई थी। स्पष्टतः, निजी परिवहन की व्यवस्था के रहते दिल्ली की बसें स्त्रियों के लिए सुरक्षित नहीं हो सकतीं। इसके अलावा, दिल्ली की सड़कों पर लड़कियों के कार में उठा लिये जाने आदि की घटनाओं के लिए भी यही वर्ग जिम्मेदार है।

जब हम लम्पट सर्वहारा कहते हैं, तो हमारा अर्थ उस व्यक्ति से है जिसकी चेतना सर्वहारा चेतना नहीं रह गयी है। वह शायद सर्वहारा वर्गीय परिवार में जन्मा हो, लेकिन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक तौर पर वह अपने वर्ग मूल और वर्ग चेतना से पूरी तरह कट चुका है। इसलिए वास्तव में हम सिर्फ लम्पट टटपुंजिया वर्ग की ही बात कर रहे हैं। फर्क करना और लम्पट सर्वहारा का जिक्र करना सिर्फ इसलिए ज़रूरी है कि इस पूरे वर्ग में अपने सर्वहारा वर्ग मूल और चेतना से कट चुके और निम्नपूँजीवादीकृत हो चुके लम्पट सर्वहारा भी शामिल हैं।

हमारा विश्लेषण साफ तौर पर बताता है कि नयी आर्थिक नीतियों द्वारा जन्मा और पाला-पोसा गया यह अपराधी प्रवृत्तियों से भरा नवधनाढ्य वर्ग और उसके टुकड़ों पर पलने वाला लम्पट टटपुंजिया वर्ग जो इंसान होने की बुनियादी पूर्वशर्तों को खो चुका है, स्त्री-विरोधी अपराधों के लिए विशेष तौर पर जिम्मेदार है। हमारा मानना है कि स्त्री-विरोधी अपराधों और विशेष तौर पर बलात्कार की घटनाओं के पीछे मौजूद कारकों का वर्ग विश्लेषण करना बेहद ज़रूरी है। समूची पुरुष जाति इन अपराधों के लिए जिम्मेदार नहीं है, भले ही उनमें से अधिकांश के मन में पितृसत्तात्मक मूल्यों का प्रभाव क्यों न हो। लेकिन अगर पितृसत्तात्मक मूल्यों के प्रभाव की ही बात करें तो हमें लगता है कि रूढ़िवादी महिलाएँ उसकी ज़्यादा ख़तरनाक वाहक होती हैं, सिर्फ पुरुषों की ही बात क्यों करें? कुछ लोग इन घटनाओं के बाद तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिख रहे हैं जो इस समस्या के वर्ग मूल को देखने से इंकार करते हैं, जैसे, ‘बलात्कार की संस्कृति’, ‘पुरुष होने की शर्म’, ‘बलात्कारियों का देश’ आदि-आदि। हमें लगता है कि ऐसे लेखों के लेखकों ने न तो कभी किसी स्त्री आन्दोलन में शिरकत की है और न ही वे इस समस्या के समाधान के बारे में सोच रहे हैं। इस किस्म के अनैतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और मूर्खतापूर्ण सामान्यीकरण और अतिमूलकरण (एसेंशियलाइज़ेशन) से हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँचेंगे और न ही इन लेखों में कोई विश्लेषण है। बस कुछ नारीवादी प्रतीत होती नारेबाजियाँ हैं। हम यह कहने से डरते क्यों हैं कि कौन-से वर्ग के लोग आम तौर पर इन अपराधों के लिए जिम्मेदार हैं? हम स्पष्ट पहचान क्यों नहीं करते अपने शत्रुओं की? शत्रुओं की स्पष्ट पहचान के बिना कोई लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। इन अपराधों का एक स्पष्ट वर्ग चरित्र है और उसे पहचानना होगा।

पूँजीवादी पितृसत्तात्मक मूल्य, मानसिकता और संस्कृति

इन दो सामाजिक स्रोतों के अतिरिक्त एक तीसरा स्रोत भी है जो स्त्री-विरोधी मनोविज्ञान को लगातार खाद-पानी दे रहा है और वह आज से नहीं बल्कि सदियों से समाज में मौजूद रहा है। हर नयी उत्पादन व्यवस्था और सामाजिक ढाँचे के आने के साथ उसका स्वरूप बदल जाता है। यह तीसरा स्रोत है पितृसत्तात्मक मानसिकता, मूल्य और संस्कृति। पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष स्त्री मुक्ति आन्दोलन का एक अहम मुद्दा है। लेकिन यह भी समझना होगा कि इन पितृसत्तात्मक मूल्यों और मान्यताओं के खिलाफ संघर्ष समूची पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष का एक हिस्सा है, ठीक उसी प्रकार जैसे सामन्तवाद के दौर में पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष सामन्तवाद-विरोधी संघर्ष का एक अभिन्न अंग था। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि हम पितृसत्ता-विरोधी संघर्ष की स्वायत्तता को नहीं मानते और ऐसा समझते हैं कि पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष स्वतः ही पितृसत्ता का नाश कर देगा। निश्चित तौर पर, पूँजीवाद के नाश तक पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष को स्थगित नहीं किया जा सकता है। उसके खिलाफ लगातार सांस्कृतिक धरातल पर और सामाजिक ‘स्पेस’ में संघर्ष करना होगा, प्रचार अभियान चलाने होंगे क्योंकि यह पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ने वाली मेहनतकश आबादी को भी बाँट देता है, स्त्रियों को गुलाम बनाता है और उन्हें संघर्ष की ताक़त से काट देता है। लेकिन यह भी समझना होगा कि समूची पुरुष आबादी को दुश्मन मानकर और उसे ही कठघरे में खड़ा करके स्त्रियों की मुक्ति का आन्दोलन भी कहीं नहीं जायेगा। यह भी समझना ज़रूरी है कि पितृसत्ता कोई अपरिवर्तनीय चीज़ नहीं है, बल्कि हर नयी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था इसे अपनी ज़रूरतों के मुताबिक सहयोजित करती है। पूँजीवादी व्यवस्था ने स्त्रियों की मुक्ति की बात की और पुरानी सामन्ती पितृसत्ता के कुछ रूपों पर चोट की, जो उसके कार्य करने में बाधा डालती थी। लेकिन साथ ही उसने स्त्रियों की गुलामी को ख़त्म नहीं किया है बल्कि उसे एक नया पूँजीवादी रूप दिया है। उसने स्त्रियों को भोग की वस्तु से उपभोग की वस्तु में तब्दील कर दिया है। उसने स्त्रियों को माल में बदल दिया है। पुरुषों की श्रम शक्ति भी पूँजीवादी समाज में एक माल होती है, लेकिन स्त्रियों का पूरा वजूद ही पूँजीवादी समाज में एक माल में तब्दील कर दिया जाता है। स्त्रियों का एक हद तक, सीमित समाजीकरण हुआ है, लेकिन यह समाजीकरण एक माल के रूप में है। उसे भावनाओं, दुख, दर्द, तकलीफ, खुशी और हर प्रकार के मानवीय गुण से रिक्त एक माल में तब्दील कर दिया जाता है। हनी सिंह जैसे घटिया स्त्री-विरोधी गायक इसी सामाजिक-आर्थिक परिघटना को एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति देते हैं; पूँजीवादी फिल्में, टीवी कार्यक्रम और प्रचार स्त्रियों के इसी वस्तुकरण या मालकरण को बढ़ावा देते हैं।

इसलिए आज जब पितृसत्ता की बात होगी तो हमें पूँजीवादी पितृसत्ता की बात करनी होगी। भारत का पूँजीवाद किसी जनवादी क्रान्ति के जरिये नहीं पैदा हुआ, बल्कि एक रुग्ण, क्रमिक और गैर-क्रान्तिकारी प्रक्रिया के जरिये विकसित हुआ। इसने सामन्तवाद से भी समझौते किये और साम्राज्यवाद से भी। नतीजतन, यहाँ पूँजीवाद ने तमाम सामन्ती पितृसत्तात्मक मूल्यों को भी अपने में समाहित किया, लेकिन उनमें भी तमाम तब्दीलियाँ ला दीं। इसलिए आज जब हम पितृसत्तात्मक मूल्यों, मान्यताओं और संस्कृति के विरुद्ध संघर्ष की बात करते हैं, तो उसकी स्वायत्तता को समझते हुए भी, उसे पूँजीवाद से काटकर किसी निरपेक्ष प्रश्न के तौर पर नहीं देख सकते। ऐसा करना वास्तव में बुर्जुआ नारीवाद के गड्ढे में गिरना और पूँजीवाद के ट्रैप में फँसने के समान होगा। दिल्ली में 16 दिसम्बर को जो घटना हुई उसकी शिकार एक मध्यवर्गीय छात्र थी और वह घटना राजधानी में घटित हुई थी। इन कारणों से वह सुर्खियों में जल्दी आ गयी। निश्चित तौर पर, इस घटना का पुरज़ोर विरोध किया जाना चाहिए और इस पर जनता के असन्तोष का सड़कों पर फूट पड़ना एक स्वागत-योग्य बात है। लेकिन जो भी संवेदनशील और न्यायप्रिय नागरिक, छात्र, स्त्रियाँ और नौजवान इसके खिलाफ सड़कों पर उतरे उन्हें यह भी सोचना पड़ेगा कि वे कश्मीर और उत्तर-पूर्व में राष्ट्र की अखण्डता को बरकरार” रखने के नाम पर सेना द्वारा दमित राष्ट्रीयताओं की महिलाओं के साथ किये गये बलात्कारों के खिलाफ सड़कों पर उतरने से चूक क्यों गये? वे हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पूरे देश में दलित महिलाओं के साथ किये जाने वाले बलात्कारों के खिलाफ चुप क्यों रह गये? वे हर रोज़ मज़दूर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के विरुद्ध क्यों नहीं लड़े? यह कुछ बेहद अहम सवाल हैं जिनका जवाब देना स्त्रियों के पूरे आन्दोलन के लिए बेहद ज़रूरी है।

दिल्ली की घटना ने जनता के आक्रोश को बर्दाश्त की हद के बाहर पहुँचा दिया और लोग सड़कों पर उतरे। लेकिन इन विरोध प्रदर्शनों को हम गुस्सा और नफरत को निकालने वाले प्रदर्शन ज़्यादा कह सकते हैं। इसमें लोगों ने अपनी भड़ाँस निकाली, अपना गुस्सा निकाला। निश्चित तौर पर, यह गुस्सा केवल 16 दिसम्बर की घटना को लेकर नहीं था, बल्कि समूचे भारतीय शासक वर्ग और उसकी पार्टियों के खिलाफ था, जो कि हद से ज़्यादा पतित, नंगा, व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी और बलात्कारी हो चुका हैं। लेकिन यह समझ अभी इन प्रदर्शनों में शामिल भारी युवा आबादी के पास नहीं है कि ऐसी घटनाएँ संयोग से नहीं होतीं; ये मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का विचलन या भटकाव नहीं हैं, बल्कि उसका नियम हैं। मौजूदा व्यवस्था ऐसी घटनाओं को अपनी नैसर्गिक गति से जन्म देती है, और संरचनात्मक रूप से उन्हें पुनरुत्पादित करती हैं। ऐसे में, इस पूरी व्यवस्था को ही तबाह करने का संघर्ष शुरू करना होगा, एक नयी व्यवस्था निर्मित करने का संघर्ष शुरू करना होगा। इसके लिए एक परिवर्तनकारी विचारधारा, राजनीति और उसे लागू करने वाले क्रान्तिकारी संगठन की ज़रूरत होगी, जो चुनावी रास्ते से नहीं बल्कि इंक़लाबी रास्ते से एक नये समाज, एक नयी व्यवस्था का निर्माण करे। लेकिन मौजूदा प्रदर्शनों में राजनीति के प्रति ही एक एलर्जी की भावना है। यह अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने के समान है। भ्रष्ट पूँजीवादी चुनावी राजनीति के खिलाफ नफरत होना लाजिमी है। लेकिन वह राजनीति का एकमात्र मॉडल नहीं है। जब तक हम इस पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था का एक क्रान्तिकारी राजनीतिक विकल्प नहीं पेश करेंगे, जब तक हम एक वैकल्पिक इंक़लाबी राजनीति का निर्माण नहीं करेंगे, तब तक हमारा आन्दोलन एक कदम भी आगे नहीं जा पायेगा। हम अपना गुस्सा निकालकर घर बैठ जायेंगे और कुछ भी नहीं बदलेगा। इसलिए बेबी टब के गन्दे पानी के साथ बेबी को फेंक देने की भूल करने से बचना होगा। जब तक हम ‘अराजनीतिक’ होने की नादान जिद पाले रखेंगे, तब तक हमारे प्रदर्शनों पर दक्षिणपंथी राजनीतिक ताक़तों, जैसे कि संघी गिरोह का कब्ज़ा होने की सम्भावना बनी रहेगी। या तो यह आन्दोलन क्रान्तिकारी राजनीति का केन्द्र बनेगा या फिर पूँजीवादी राजनीति का। इसलिए सभी युवाओं को समझना होगा कि हम अराजनीतिक हो ही नहीं सकते हैं। वास्तव में, अराजनीतिक होना एक मिथक है। अराजनीतिक कोई भी आन्दोलन, व्यक्ति या संगठन नहीं होता। हर किसी की एक राजनीति होती है और विराजनीतिकरण की राजनीति भी एक राजनीति ही है। और असलियत यह है कि इससे ख़तरनाक कोई राजनीति नहीं है। यह हमारे भीतर मौजूद भितरघाती है, आस्तीन का साँप है। हमें मौजूदा भ्रष्ट चुनावी राजनीति (जिसमें केजरीवाल जैसे मदारी भी शामिल हैं) के बरक्स भगतसिंह की क्रान्तिकारी राजनीति का रास्ता चुनना होगा। इसके बिना, हम एक अन्धी गली में भटकते रहेंगे और शासक वर्ग को ज़्यादा से ज़्यादा हमारे प्रदर्शनों आदि से कुछ असुविधा होगी। बदलेगा कुछ भी नहीं।

अन्त में यही कहा जा सकता है कि 16 दिसम्बर की घटना निठारी की घटना के समान ही एक प्रतीक घटना थी। इसने एक बार फिर से दिखला दिया है कि मौजूदा पूँजीवादी समाज और व्यवस्था किस हद तक मानवद्रोही, पतित और अन्यायपूर्ण हो चुके हैं और सड़ाँध मार रहे हैं। इस घिनौनी व्यवस्था और समाज का एक-एक दिन हमारे वजूद के लिए भारी है। एक हज़ार एक कारण है कि हम बग़ावत करें और उनमें से कुछेक ही काफी हैं कि हम आज ही तैयारियाँ शुरू कर दें! विद्रोह करना सीखें और विद्रोह से क्रान्ति की ओर आगे बढ़ें!

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्‍बर 2012

 

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