मुन्नाभाई के लगे रहने से कुछ नहीं होने वाला….
हमें लगना होगा परिवर्तन की अपनी तैयारियों में

प्रसेन

आजकल चारों तरफ ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्म की चर्चा हो रही है। यह फिल्म 2006 की सबसे सफल फिल्मों में से एक फिल्म बनती जा रही है। देश के लगभग सभी हिस्सों में यह अच्छा व्यवसाय कर रही है। ख़ासकर मध्यम वर्ग के तमाम खित्तों में यह फिल्म काफी पसन्द की जा रही है। यहाँ तक कि तमाम वामपन्थी लेखकगण और समीक्षक इस फिल्म की प्रशंसा करते–करते लहालोट हो रहे हैं। भारी पैमाने पर उत्पादन, माफ कीजियेगा, लेखन करने वाले एक अख़बारी कॉलम लेखक और विश्वविद्यालय शिक्षक इस बात पर निहाल हैं कि कैसे ‘पॉप कल्चर’ के जरिये एक विचारधारा को इसने जीवन्त बना दिया है और गाँधीवाद की जगह ‘गाँधीगीरी’ को स्थापित करके इसने किस तरह गाँधी को आम लोगों तक पहुँचा दिया है।

Lage raho munnabhai

इसमें कोई शक़ नहीं है कि यह फिल्म बहुत ही कुशलता के साथ बनाई गई है। फिल्म के निर्देशन की तारीफ करनी होगी। फिल्म में कसावट है और फिल्म जो कहना चाहती है कह देती है। फिल्म के कलाकारों ने भी अपने–अपने किरदार ठीक ढंग से निभाए हैं। लेकिन विचारणीय मुद्दा यह है कि यह फिल्म कहना क्या चाहती है।

देहाती इलाकों में एक कहावत प्रचलित है ‘आन के लोखड़ी सगुन बतावे, अपना कुकुरे से नोचवाये’। ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ फिल्म देखते समय यह कहावत दिमाग में गूँजने लगती है। पर्दे पर जब यह फिल्म चल रही होती है तो एक दूसरी फिल्म दिमाग में चलने लगती है। जब मुन्नाभाई यानी संजय दत्त किसी समस्या का समाधान निकाल रहे होते हैं और तमाम मध्य वर्गीय दर्शक अपनी पनीली आँखें लिये पिक्चर हॉल में भावुक–से बैठे होते हैं, तो मन यह सोच रहा होता है कि अगर इन समाधानों को वास्तविक जीवन में लागू किया जाता तो क्या होता। फिल्म में सुझाये गये “समाधानों” को वास्तव में लागू करने पर क्या होता ? आइये, जरा देखते हैं।

पहला सीन

अपना बंगला हड़प लिये जाने पर फिल्म के नायक और नायिका के साथ कुछ बुजुर्ग लोग, जिनके लिए वह बंगला वृद्धाश्रम के समान है, उस बिल्डर के घर के सामने सत्याग्रह करते हैं जिसने वह बंगला कब्जा किया होता है और नायिका रेडियो एंकर होने का लाभ उठाकर श्रोताओं से बिल्डर के घर फूल भिजवाना शुरू करती है।

परिणाम : फिल्म में

सरदार बिल्डर जिसका किरदार बोमन ईरानी ने निभाया है, उहापोह और हैरानी की स्थिति में आ जाता है और उसे काफी दिक्कत होती है।

परिणाम : वास्तविकता में

पुलिस की गाड़ी आती और “सत्याग्रह टीम–टाम” उठाकर ले जाती। टीम की नजदीक के किसी थाने में शारीरिक समीक्षा होती और उसे 10–15 दिन के लिए नया वृद्धाश्रम मिल जाता-हवालात! दूसरी सम्भावना यह है कि गेट पर ही दरबानों और पाले गये कुत्तों द्वारा सारे ‘गाँधीगीरों’ की अच्छी तरह मरम्मत होती। इस बीच जितने फूल उस बिल्डर के पास पहुँच चुके होते, उन्हें वह अपने रिश्तेदारों में गुलदस्ता बनवाकर भेंट कर आता। और ज़्यादा होते तो अगले दिन अपने बंगले के बाहर एक फ्लोरिस्ट की दुकान लगवाकर सारे फूल बिकवा देता और इससे भी मुनाफा कमा लेता। कम–से–कम असलियत में एक पंजाबी सरदार गुण्डे बिल्डर से तो यही उम्मीद की जा सकती है।

दूसरा सीन

पेंशन का काम फाइनल करने के लिए पैसा माँगने पर एक बूढ़ा आदमी एक–एक करके अपने सारे कपड़े उतारने लगता है।

परिणाम : फिल्म में

दफ़्तर का बाबू “लोक लाज” से डरकर तुरत–फुरत उसका काम कर देता है।

परिणाम : वास्तविकता में

इस विशेष घटना का दफ़्तर के सभी बाबू–कर्मचारी मजा लेते। बोर हो जाने पर उसे बुजुर्ग को धक्के मारकर बाहर फेंक देते और फिर काम करने के लिए रिश्वत की डिमाण्ड भी बढ़ जाती। जैसा कि होता है, पैसा खिला–पिलाकर कुछ महीने बाद दफ़्तर का चक्कर काटने के बाद ही वह बुजुर्गवार अपना काम करवा पाते। असलियत तो यह है कि वह बुजुर्ग व्यक्ति अगर अपने कपड़े खुद नहीं उतारते तो बाबू और कर्मचारी ही मिलकर उतार लेते।

तीसरा सीन

शेयर के चक्कर में एक नौजवान अपने बाप की समूची बचत को गँवा बैठता है। इसके बाद मुन्नाभाई की शह पर बाप के सामने सच्चाई बयान करता है।

परिणाम : फिल्म में

बाप मुन्नाभाई के एक छोटे से उपदेश के बाद अपने सट्टेबाज बेटे को गले से लगा लेता है और टैक्सी ड्राइवर बनने में उसकी मदद भी करता है।

परिणाम : वास्तविकता में

पहले तो कर्ज पूरा करने के लिए मुन्नाभाई के ‘मेहनत और बचत करो’ मार्का समाधान पर वह नौजवान मुन्नाभाई की ही अच्छी तरह ‘रिमाण्ड’ लेता और अपने शब्दकोश की सारी गालियों को फिल्म के नायक पर ख़र्च कर देता। लेकिन चलिए मान लेते हैं कि लड़का किसी तरह मुन्नाभाई के समाधान पर सहमत हो जाता है। ऐसे में बाप क्या करता इसका अनुमान भी आसानी से लगाया जा सकता है। बाप रेडियो पर मुन्नाभाई के नेक वचन सुनने से पहले ही उसे उठाकर एक तरफ फेंकता और अपने नवाब साहब की जमकर कुटाई करता। अगर आदमी अति– संवेदनशील या कमजोर दिल का होता तो पैसे डूबने की ख़बर के बाद आये हार्ट अटैक के बाद म्यूनिसपैलिटी के किसी अस्पताल में पड़ा होता। फिल्म में सुझाया गया समाधान इस मरम्मत के बाद तो कोई भी मध्यमवर्गीय बाप अपने बेटे के लिए करता ही। लेकिन पैसे न होने पर क्या करता, इसके बारे में मुन्नाभाई कुछ नहीं कहते।

इसके अलावा फिल्म में पुलिस को भी काफी मानवीय दिखाया गया है। रेडियो पर मुन्नाभाई द्वारा समस्याओं का समाधान होते देख पुलिस इंस्पेक्टर जार–जार रोने लगता है; अरे साहब, एकदम बच्चों की तरह। कसम से, अगर इस देश में पुलिस की ट्रेनिंग पुलिसवालों को इतना मानवीय और भावुक रहने देती, तो फिर बात ही क्या थी। असल में जो पुलिस करती है उसके बारे में बताने की शायद कोई आवश्यकता नहीं है।

इसी तरह अन्य समाधानों का भी वास्तविक जीवन में क्या होता इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। हर कोई जानता है कि इस समाज में जहाँ जिसकी लाठी उसकी भैंस का नियम चलता है और जहाँ ‘हृदय परिवर्तन’ जैसे शब्द बोलने पर लोग आपको हिब्रू–भाषी समझ लेते हैं, ऐसे रूमानी, भावुकतापूर्ण समाधानों का क्या हश्र होगा। फिर भी यह फिल्म काफी सफल हो रही है और लोग इसे पसन्द कर रहे हैं। क्यों ? यह एक महत्वपूर्ण सवाल है और इसी का जवाब देने की प्रक्रिया में हम इस फिल्म की समीक्षा करने का प्रयास करेंगे।

शहर और गाँव का ऐसा मध्यम वर्ग इस फिल्म को काफी पसन्द कर रहा है जो बहुत खुश तो नहीं है और दिक्कतों से परेशान है, लेकिन भूखों नहीं मर रहा है, खा–पी ले रहा है। साथ ही पढ़ा–लिखा शहरी मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग भी इस फिल्म को काफी सराह रहा है। इसकी वजहों को समझा जा सकता है। मध्यम वर्ग समस्याओं से त्रस्त तो रहता है, लेकिन उनसे सीधे टकराने से डरता है। वह हमेशा ऐसे रास्ते की तलाश में रहता है जिसमें लड़ना भी न पड़े और हल भी निकल आये। वह हमेशा यह सोचता है कि ‘काश कोई ऐसा रास्ता होता जिसमें शोषक–उत्पीड़क हमारी दिक्कतों को समझ जाते और उनसे लड़ने की जरूरत नहीं पड़ती। अब क्या हड़ताल, चक्का जाम और दंगा–फसाद करना!’ ऐसे में इस ‘काश’ का दीन–हीन भाव लिये जब वह इस फिल्म में पेश किये गये काल्पनिक हल को देखता है तो खुशी के मारे चीख पड़ता है, ‘यही तो, यही तो!’ यह दरअसल उसकी वर्ग कायरता है जिसके कारण उसे यह फिल्म और इसके समाधान काफी ‘सूदिंग’, ‘स्मूद’ और ‘स्वीट’ लगते हैं। समस्या के समाधान के लिए उसे सींग से पकड़ने का साहस इस मध्यम वर्ग में नहीं बचा रह गया है। आज से दो दशक पहले शायद यह बात इस मध्यम वर्ग के बारे में इस तरह नहीं कही जा सकती थी। लेकिन नब्बे के दशक की शुरुआत से जो आर्थिक नीतियाँ लागू हुईं और जिस किस्म की राजनीतिक हवा चली उसमें इस वर्ग का चरित्र काफी बदला है। उसे काफी “घूस” मिली है। वह सारी समस्याओं से उबर गया हो ऐसा नहीं है। लेकिन इस व्यवस्था ने उसे काफी गुलाबी ख़्वाब दिखाए हैं और कुछ ऐसी सुविधाओं को उसकी पहुँच के भीतर ला दिया है जो पहले सिर्फ़ उच्च वर्ग का विशेषाधिकार थीं। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान उसका ‘रैडिकलिज़्म’ कम हुआ है और उसकी क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ भी क्षीण हुई हैं और यहाँ तक कि इस वर्ग का एक हिस्सा अपनी तमाम समस्याओं के बावजूद इस व्यवस्था के ‘सोशल प्रॉप’ जैसा नजर आ रहा है। ऐसे में समस्याओं के समाधान के तौर पर जब बताया जाता है कि फूल भेजकर, सच बोलकर, शान्तिपूर्ण सत्याग्रह करके, और हृदय परिवर्तन आदि करके समस्याओं का समाधान हो सकता है और संघर्ष, संघर्ष के ख़तरों और कड़वाहट और तकलीफों से बचा जा सकता है, तो जाहिरा तौर पर वह समाधान उसे पसन्द आता है और वह इस फिल्म को देखकर गद्गद हो जाता है। हालाँकि जल्दी ही उसे इस उल्लास की निरर्थकता समझ में आ जाएगी पर अभी तो यह कपासी मेघों में पानी की बूँदें तलाश कर रहा है!

इस समीक्षक का यह विचार है कि तमाम महान अखबारनवीसों को यह फिल्म पसन्द क्यों आ रही है, इसका विश्लेषण भी उनके वर्ग चरित्र पर निगाह डालकर किया जा सकता है। ये लेखकगण जो अक्सर ‘तथाकथित, कथित, भूतपूर्व, उत्तर, या विश्लेषणात्मक मार्क्सवादियों के नाम से जाने जाते हैं, आम मेहनतकश जनता के साथ कहीं भी खड़े नजर नहीं आते हैं। उल्टे अपने जीवन स्तर से और जीवन गुणवत्ता से वे कहीं से भी किसी ऊँचे नौकरशाह, अधिकारी से उन्नीस नहीं पड़ते, शायद बीस ही पड़ते हों। तो अगर तथाकथित भारतीय मनीषी “अतिसंवेदनशील लेखकों”, “युगदृष्टा विचारकों” और तथाकथित वामपन्थी बुद्धिजीवियों की तमाम किस्में इस फिल्म की वाह–वाही में तमाम दैनिक अखबारों में पोंक मारा है, तो इसमें ताज़्जुब की क्या बात ? ‘गाँधीगीरी’ के समक्ष चरण वन्दना करने में लोक–संस्कृति, जन साहित्य, आमजन की इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाले साहित्य का सृजन का दावा करने वाले “बौद्धिकों” की कायरता और नपुंसकता का अखिल भारतीय प्रदर्शन होता नजर आया। वैसे इस तर्क से तो इन मनीषियों को अब चिन्तन करने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए कि जिस ‘गाँधीगीरी’ ने गाँधी को आम लोगों तक पहुँचा दिया और पॉप कल्चर का हिस्सा बना दिया उसकी खोज एक मुम्बइया फिल्म निर्देशक ने की जिसका मकसद ऐसी मसाला फिल्म बनाना था ताकि अच्छी तरह नोट बटोरे जा सके। सोचने की बात है कि सारे गाँधीवादी क्या आज तक घास छील रहे थे ? क्या अब उन्हें विधू विनोद चोपड़ा की कोचिंग की जरूरत है ? यह फिल्म तमाम बुद्धिजीवियों को क्यों पसन्द आ रही है इसे एक “अति भावुक बुद्धिजीवी” ने गलती से अपने अख़बारी कॉलम में बता दिया। उन्होंने बताया कि कैसे उनका नौकर जो एक अनपढ़ बच्चा है इस फिल्म को देखकर पछता रहा था कि वह मालिक के डाँटने–डपटने पर उनके लिए नफरत का भाव लिये रहता था। इस पछतावे पर मालिक, अर्थात् हमारे “जनपक्षधर” बुद्धिजीवी लेखक हर्षातिरेक का शिकार हैं। यहीं पर वह अपना असली चरित्र दिखा जाते हैं। यह फिल्म बहुत कुशलता से एक निरक्षर बच्चे को सिखलाती है कि अपने हालात पर सोचने की बजाय अपने मालिक के प्रति वफादार बनो। और इस पर मध्यम वर्ग बिल्कुल इस फिल्म के साथ जाकर खड़ा होता है। यही बात उसे सबसे अच्छी लगती है। मजदूर वर्ग और आम मेहनतकश वर्गों की उग्रता उसे भाती नहीं है, उसके मन को डराती है। हड़ताल, बन्द, चक्का जाम, प्रदर्शन, आदि से कोई उसके घर में नहीं घुसा जाता है, लेकिन फिर भी उसे बहुत असुविधा होती है, उसे अज्ञात का भय सताने लगता है। प्रशासन बताता है कि कानून–व्यवस्था गड़बड़ हो गयी और उसके पेट में तितलियाँ उड़ने लगती हैं। ऐसे में मुन्नाभाई बताते हैं कि यह सब करने की कोई जरूरत नहीं है; बस टेंशन नई लेने का, और फ्लावर भेजने का! एक न एक दिन गलत करने वालों को यह यक़ीन आ जाएगा कि वह गलत कर रहा है। तब तक फूल भेजते रहिए (तब तक खाने के लिए और फूल के लिए मुन्नाभाई तो पैसा दे ही रहे हैं!)।

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जहाँ तक आम मेहनतकश आबादी का प्रश्न है, उसे भी यह फिल्म पसन्द आ रही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसे यह फिल्म अपने वर्ग स्वभाव से अच्छी लग रही है। वह जानता है कि इसमें सुझाए गए समाधान असल जिन्दगी में कहीं भी काम आने वाले नहीं हैं। लेकिन अपनी जिन्दगी में वह परेशान है, तंग है। ऐसे में एक हल्की–फुल्की कॉमेडी फिल्म की तरह उसे यह फिल्म पसन्द आती है। दूसरे इस फिल्म का नायक एक सड़क छाप आदमी है और सड़क छाप भाषा बोलता है। ऐसे में आम आदमी को, जो रईसों की अंग्रेजीदाँ औलादों से चिढ़ा रहता है, यह ‘जमीनी’ भाषा बोलने वाला नायक अच्छा लगता है। यह फिल्म मेहनतकश वर्ग को गाँधीगीरी की नौटंकी में फँसा नहीं सकती। लेकिन यह फिल्म मेहनतकश वर्ग की नफरत और गुस्से को, या कहें कि उसकी स्वाभाविक वर्ग चेतना को भोथरा और कुन्द बनाती है। यह शोषकों–उत्पीड़कों और इस व्यवस्था के प्रति उसके गुस्से को नपुंसक बनाने का प्रयास करती है। इस रूप में यह फिल्म एक ख़तरनाक फिल्म है। दरअसल, ऐसी गाँधीगीरी की देश के हुक्मरानों को जरूरत है। यह सीधे–सीधे कहती है कि जालिमों के ख़िलाफ लड़ो मत, उन्हें फूल भेजो और एक दिन वह शर्माकर तुम्हें लूटना–खसोटना छोड़ देंगे। अब हड़ताल आदि करने की जरूरत नहीं है। बस सत्याग्रह कीजिये और मालिक आपकी तनख्वाह बढ़ा देगा, आपको काम से नहीं निकालेगा। आज तक फालतू में मजदूरों ने इतना हंगामा किया अपने हक़ों के लिए। जबकि गाँधीगीरी करने को माँगता था! इतना सीधा–सा रास्ता किसी को समझ में क्यों नहीं आया ? इसलिए क्योंकि सभी जानते हैं कि यह कोई रास्ता नहीं है। यह सिर्फ़ धोखे की टट्टी है। भयाक्रान्त शासक वर्ग के सांस्कृतिक दलालों द्वारा जनता को दी जा रही सीख है कि संघर्ष, लड़ाई छोड़ दो; गुलाब भेजो!

पिछले दिनों एक और फिल्म चर्चित हुई थी-‘रंग दे बसन्ती’। यह फिल्म और ‘लगे रहो–––’ दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ‘रंग दे बसन्ती’ बताती है कि क्या नहीं हो सकता और ‘लगे रहो–––’ बताती है कि क्या हो सकता है। ‘रंग दे बसन्ती’ में क्रान्तिकारियों के चरित्र, व्यक्तित्व और विचारों को विकृत करके यह कहा गया था कि क्रान्तिकारियों के रास्ते कुछ नहीं होने वाला। देश की व्यवस्था को व्यवस्था के भीतर घुसकर बदला जा सकता है। तो नौजवानों को सेना, पुलिस या प्रशासनिक सेवा में जाना चाहिए। भगतसिंह के रास्ते से आज के समय में कुछ नहीं होने वाला। तो फिर किस रास्ते से होने वाला है ? – “गाँधीगीरी” से! फूल देकर और ग्रीटिंग कार्ड भेजकर! इस पर भी सोचने की जरूरत है कि अगर ऐसा करके समाधान सम्भव होता तो भी जिस देश में रोजगार कुछ लाख हो और बेरोजगार 27 करोड़, तो बाकी के 26 करोड़ किसको फूल दें ? क्या करें ? आम मेहनतकश आबादी, जिसके बेरोक–टोक शोषण के लिए ‘सेज’ बनाए जा रहे हैं किसके पास जाए ? सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र) में कोई कानून तो लागू होंगे नहीं तो वैसे भी लुटेरों को, कफनखसोटों को फूल ही देना बाकी बचता है! या फिर संगठित होकर उनके ख़िलाफ और उनकी इस व्यवस्था के ख़िलाफ बगावत। मेहनतकश आबादी को इसी पर सोचना है और साथ ही उन परिवर्तनकामी नौजवानों और छात्रों को भी जो इस व्यवस्था के विकल्प के बारे में सोचते हैं।

लेकिन आम मेहनतकश आबादी की वर्ग चेतना पर यह हमला बहुत सफल नहीं हो सकता। मध्यमवर्ग जरूर इस फिल्म से लम्बे समय तक अभिभूत रहेगा। आम आदमी तो अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी के तजुरबे से जानता है कि बिना लड़े कुछ नहीं मिलता। अगर उसे एक इज़्जतदार इंसानी जिन्दगी जीनी है तो उसे कदम–कदम पर शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ अपने जैसे करोड़ों–करोड़ लोगों के साथ संगठित होना होगा और लड़ना होगा। और जब व्यवस्था, पुलिस, प्रशासन, नेता, नौकरशाह दादागीरी पर आमादा हों तो अपना हक “गाँधीगीरी” से नहीं मिलेगा। अपना हक उसे सिर्फ़ एक तरीके से मिलेगा-इंकलाब! पूरे शोषक वर्ग का हृदय परिवर्तन नहीं होता, जिसका होता है, वह मरता है। इसलिए वे हृदय परिवर्तन अफोर्ड नहीं कर सकते। और हम फूल, ग्रीटिंग कार्ड और जादू की झप्पी देना अफोर्ड नहीं कर सकते।

 जब मुन्नाभाई डॉक्टर थे तो उन्होंने क्या सन्देश दिया था

मुन्नाभाई श्रृंखला की पहली फिल्म भी काफी सफल हुई थी। इसका नाम था ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’। इस फिल्म में मुन्नाभाई एक नकचढ़े सनकी डॉक्टर द्वारा अपने पिता की हुई बेइज़्जती का बदला लेने के लिए डॉक्टर बनने चल पड़ते हैं। इसके लिए वह साम, दाम, दण्ड, भेद का सहारा लेते हैं। और मेडिकल कॉलेज में दाखिला ले भी लेते हैं। फिर उस कॉलेज में वह सारे डॉक्टरों को यह पाठ पढ़ाते हैं कि यह पेशा ऐसा है जिसमें मानवीय होना चाहिए। ज़्यादा मानवीय होने पर जीने की इच्छा पैदा करके मरीज को ठीक किया जा सकता है। इसके साथ–साथ वह फिल्म में वर्ग सद्भाव का सन्देश देते चलते हैं। जैसे गफूर नामक सफाई कर्मचारी जो अस्पताल में अपने शोषण से तंग है और काफी गुस्से में है, उसे मुन्नाभाई गले लगाते हैं और उससे कहते हैं-‘धन्यवाद’। आप चुपचाप इतना घिसते रहते हैं, लोगों की गन्दगी साफ  करते हैं। कोई आपको थैंक्यू नहीं बोलता। मैं आपको थैंक्यू बोलता हूँ। लेकिन देखिये आप हैं तो स्वीपर ही, इसलिए आपको यह काम तो करना ही है, इसलिए ज़्यादा गुस्सा मत कीजिये। मैं आपसे इतनी अच्छी तरीके से पेश आ रहा हूँ, इसलिए आपको गुस्सा नहीं करना चाहिए। यानी मालिक वर्ग रहेगा तो मालिक ही। बस उसे एक नैतिक शिक्षा यह है कि अगर अपने कामगारों से ढंग से बिना सिरदर्द पैदा किये काम लेना है तो उनके साथ अच्छा बर्ताव कीजिये, नरमी से पेश आइये। फिर देखिये, वे आपका काम भी टूटकर करेंगे और आपको देवता भी मानेंगे और आपका हमेशा मुस्कराकर स्वागत करेंगे। यानी वर्ग सहयोग। इस सहयोग का चरित्र जाहिरा तौर पर असमानतापूर्ण रहेगा। कहीं हाथ की पाँचों उंगलियाँ बराबर होती हैं भला! ?

Munna hug

तो हम कह सकते हैं कि ‘लगे रहो…’ दरअसल उसी परम्परा या उसी दिशा में बनी एक फिल्म है और डॉक्टर मुन्नाभाई भी दरअसल गाँधीगीरी ही कर रहा था। गाँधीगीरी मतलब वर्ग चेतना कुन्द करो। मुन्नाभाई श्रृंखला की दोनों फिल्मों की एक ख़ासियत और है। आप किसी चरित्र से नफरत नहीं कर सकते। चाहे वह पहली वाली फिल्म का डा. अस्थाना हो या फिर दूसरी फिल्म का गुण्डा बिल्डर लक्की सिंह। यह भी मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों को बहुत सुहावना लगता है। कोई बुरा नहीं या इतना बुरा नहीं कि उससे नफरत की जाए। क्योंकि नफरत करेंगे तो लड़ना भी पड़ेगा। लड़ें चाहे भले ही नहीं, दिमाग में द्वन्द्व तो रहेगा। फालतू की टेंशन! लेकिन मुन्नाभाई कहते हैं कि टेंशन नहीं लेने का! कोई इतना बुरा होता ही नहीं कि उससे लड़ा जाय। थोड़ा बहुत बीमार होता है कोई–कोई, इसलिए उसे ‘गेट वेल सून’ का कार्ड भेजा जाय और गुलाब भेजा जाय या ‘जादू की झप्पी’ दे दी जाय। बस! इत्ती सी बात थी, जो अपुन के समझिच में नई आ रही थी!

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स, जुलाई-सितम्‍बर 2006

 

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