एक जलते हुए शहर की यात्रा
विमल कुमार
इस जलते हुए और शीशे की तरह रोज़ थोड़ा पिघलते हुए
इस मरते हुए और मरने से पहले थोड़ा पानी माँगते हुए शहर में
आपका स्वागत है।
किस तरह नुचे हैं तितलियों के पंख यहाँ
किस क़दर कुचली गयी है घास पार्कों में
किस तरह ढहाई गयी है दीवार
किस क़दर लगायी गयी है आग
लूटा गया है यहाँ किस तरह सबका विश्वास
चीखते हुए पेड़ों और रोती हुई नदियों वाले शहर में
आपका स्वागत है।
कितनी अच्छी बात है
आप टूटे हुए सपने देखने आये हैं
मासूम बच्चों के आँसू पोंछने आये हैं
विलाप करती स्त्रियों को चुप कराने आये हैं
इस कत्लगाह में लाशों पर फूल खिलाने आये हैं
कौन आता था इस शहर में अब तक
कोई भी तो नहीं
कोई सैलानी
कोई फ़कीर
यही क्या कम है कि आप कम से कम राख के ढेर देखेंगे
उठती हुई लपटें और चिंगारियाँ देखेंगे
बेजुबान गलियों और घायल सड़कों की खामोशियाँ देखेंगे
मण्डराते गिद्धों और मकानों पर बैठी चीलों वाले शहर में
आपका स्वागत है।
इस आधुनिक समय में
आप गहरी असुरक्षा और अनिश्चित भविष्य देखने आये हैं
क्योंकि यह सब भी अब देखने की चीज़ें हो गयीं हैं
सीने के अन्दर गहरे ज़ख्मों
और ज़ख्मों पर छिड़़के नमक देखने आये हैं
हमें मालूम है आप किसी की आँखों में चमक देखने आए हैं
आपका स्वागत है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2016
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ye kavita nhi,, rakt hai jo lfjon ke roop m ubal raha hai…. isski garmahat… screen k dusre tarf tak mahsoosh ke sakta hun….
apki kavita main apni website m dalna chahta hun taaki jyada se jyada logon tak pahunche ye kavita. .http://www.kagajkalam.com/cost-of-living/
sk suggestion bhi h, sir, aapki kavita ka link kafi bada hai, jisse jyada se dyada logon tak nhi panhuchati ye. aap permalink setting m jaake isse short kijiye..