पनामा पेपर लीक मामला

अनन्त

कुछ रहस्य और खुलासे सनसनी खबर बनने की क्षमता खोते जा रहे हैं। कम से कम भारत की जनता को तो काले धन सम्बन्धी खुलासों में ऐसा ही है। कारण यह कि भारत के नेताओं, मंत्रियों और कॉरपोरेट घरानों ने काले धन में इतने घपले किये हैं कि जनता को यह आम बात लगती है और वह सारे गोरखधन्धे की बारीकी व विभत्सता तथा इससे जुडे़ खूनी खेल को समझ भी नहीं पाती कि यह सारी चोरी और डाकेजनी उसी की जेबों में से हो रही है, उनके बच्चों की दवाएँ महँगी हो रही हैं, उनके पास ही लाश ढँकने तक के लिए कफन नहीं है। दुनिया भर के हुक्मरानों के कुकर्मों के उजागर होने पर तभी उनका बाल बाँका किया जा सकता है जब जनता इस बात को जानती हो कि तमाम घोटाले और घपले दरअसल उनकी गाढ़ी मेहनत के दम पर पैदा की गयी दौलत को लेकर होते हैं। मेहनतकश जनता की लूट को एक तरफ़ तो कानूनी आँकड़े बताते हैं तो दूसरी तरफ़ पनामा पेपर्स सरीखे खुलासे। पनामा पेपर ने उजागर किया कि दुनियाभर के खरबों रुपये के कालेधन को किस प्रकार से छिपाकर रखा गया है। और इनसे दुबारा लूट का धंधा संचालित किया जा रहा है।

पनामा पेपर्स के पीछे वाशिंगटन डी-सी- स्थित जासूसी पत्रकारों के अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, इण्टरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स, आई.सी.आई.जे. की भूमिका है। आई.सी.आई.जे. के अनुसार सबसे पहले जर्मनी के म्युनिख से निकलने वाले अखबार स्युड दिये चे जातुंग को किसी ‘अज्ञात व्यक्ति’ (इस अज्ञात की पड़ताल हम बाद में करेंगे) के माध्यम से मोस्सैक-फोंसेका की सारी जानकारी मिली। उन्होंने यह जानकारी आई.सी.आई.जे. के साथ साझा की। तकरीबन एक साल तक पड़ताल करने के बाद पनामा पेपरों के नाम से इस घोटाले की जाँच के दस्तावेज सामने आते हैं, जिसमें कि टैक्स हैवन में जमा पैसों के सीधे लाभार्थी का नाम उजागर होता है। टैक्स हैवन ऐसे देशों को कहते हैं जहाँ पैसे के असल मालिक की जानकारी की गोपनीयता बरती जाती है और साथ ही ऐसे देशों में कर तकरीबन नगण्य हैं, दुनिया में करीब 80 टैक्स हैवन देश हैं। दुनिया भर का काला धन ऐसे ही देशों में रखा जाता है। इन देशों में पैसे रखने के लिए कई लॉ फ़र्म हैं जोकि कालेधन को सफेद करने के लिए कानूनी दाव-पेंच मुहैया कराती हैं। ये फ़र्म अपने ग्राहकों के लिए गोपनीयता के कई तरह के खाँचे बनाने का काम करती हैं, ये उनके लिए विदेशों में बैंक अकाउंट खोलने, कम्पनी खोलने, कम्पनी खरीदने आदि-आदि में मदद करती हैं। ये कम्पनियाँ चोरों, ठगों, ड्रग-डीलरों, माफिया डॉनों, आतंकवादियों, घोटालेबाजों से लेकर नेताओं, पूँजीपतियों, सुपरस्टारों आदि सभी के लिए काम करती हैं। ग्राहक कैसे भी हों ये उनके पैसों को ठिकाने लगाने का काम इनका है। यह काम मोटे तौर पर ये कम्पनियाँ अपने विदेशी ग्राहकों के लिए अलग-अलग देशों में कम्पनियाँ खोलकर करती हैं। इन कम्पनियों की असल भूमिका यह होती है कि यह पैसे के असल मालिक को छिपाने का काम बखूबी हो। ऐसा ये कई सारी फर्जी कम्पनियों, जिन्हें कागज़ी कम्पनी या शैल कम्पनी या लेटरबॉक्स कम्पनी भी कहते हैं, की श्रृंखला बनाकर करती हैं। ये उन कागज़ी कम्पनियों के लिए शेयर धारक से लेकर डायरेक्टर तक मुहैया कराती हैं और इनके माध्यम से पैसे के मालिक एक नहीं कई परदों के पीछे बैठा होता है जिसे ढूँढना नामुमकिन तो नहीं होता किन्तु मुश्किल ज़रूर होता है। इस प्रकार से पैसे का मालिक बिरले ही सामने आता है।

मोस्सैक-फोंसेका ऐसी ही एक कम्पनी है, जो कि पनामा में स्थित है, जिसने दुनिया भर के बहुत सारे अमीरजादों की काली कमाई को छिपाने और सफेद करने का काम किया है। यह कम्पनी सन 1977 में रेमन फोंसेका और जुरगेन मोस्सैक द्वारा स्थापित की गयी थी। फोंसेका पनामा का एक ताकतवर नेता और लेखक है। मोस्सैक-फोंसेका दुनिया के अग्रणी 4-5 लॉ फर्मों में से एक है जो ‘कानूनन’ लोगों के खाते खुलवाने का काम करती है। इन्होंने पश्चिम एशिया में सक्रिय आतंकवादियों और युद्ध अपराधियों के फाइनैन्सरों के लिए कागज़ी कम्पनी बनाने का काम भी किया है।

पूँजी के चाकरों के दागदार चेहरे

पनामा पेपर्स के माध्यम से पैसों को टैक्स हैवन देशों में ठिकाना लगाने वाले नामों में दुनिया के कई नामी-गिरामी लोग शामिल हैं। दुनियाभर के नेताओं, थैलीशाहों, कलाकारों, खिलाड़ियों के नाम इस खुलासे से सामने आये हैं। फार्च्यून की 500 बड़े निगमों की सूची में से 29 का नाम सामने आया है। दुनिया के 72 मौजूदा या पूर्व-राष्ट्र प्रमुखों ने फ़र्जी कम्पनी बनाकर काला धन छिपाया। भारत से ही तकरीबन 500 लोगों का नाम है जिसमें अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या राय, डी.एल.एफ. के के.पी. सिंह और उनके परिवार के 9 अन्य सदस्य, मोदी के विशेष यार गौतम अदानी के बड़े भाई विनोद अदानी, इण्डिया बुल्स के चेयरमैन समीर गहलोत, बंगाल के पूँजीपति और भाजपा नेता शिशिर बजोरिया, लोकसत्ता पार्टी के अनुराग केजरीवाल, अंडरवर्ल्ड डॉन इकबाल मिर्ची आदि आदि महानुभवों का नाम है।

इस खुलासे में दुनिया के कई देशों में राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है। चीन, रूस, आइसलैंड, पाकिस्तान जैसे देशों के प्रमुखों के नाम घेरे में हैं। आइसलैंड के प्रधानमंत्री ने विरोध प्रदर्शनों के कारण इस्तीफ दे दिया है। परन्तु अमरीका के एक भी नेता या सरमायेदार का नाम इस खुलासे में नहीं है। वहीं खुलासा करनेवाली संस्था अमेरिका स्थित आई.सी.आई.जे. को फण्ड देनेवाले समूहों में फोर्ड, केल्लोग, कार्नेगी, रोकफेलर फाउण्डेशन्स जैसी कुख्यात संस्थाओं, जो अमेरिकी शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, का नाम प्रमुख है। इन सबसे ऊपर आई.सी.आई.जे. को यू.एस. एजेंसी फॉर इण्टरनेशनल डेवलपमेण्ट से सहायता प्राप्त है जिसका काम अमेरिका के विदेशी हितों की रक्षा के लिए दुनिया भर में आर्थिक तथा अन्य किस्म की सहायता करना है। असल में यह अमेरिकी सरकार की ही एक इकाई है जिसके सीआईए के साथ नजदीकी सम्बन्ध हैं। दरअसल अमरीका में चुनावी दंगल चल रहा है इसलिए अमेरिकी नामों का खुलासा इस पर असर डाल सकता था। ब्लूमबर्ग की हालिया पड़ताल के मुताबिक दुनिया का नया पसन्दीदा टैक्स हैवन अमेरिका है। दुनिया भर के अमीरजादे अब अपना खाता स्विट्जरलैण्ड, बहमास, ब्रिटिश वेर्जेनिया आइलैंड से हटा कर नेवडा (लॉस वेगास), व्योम्बिंग, साउथ डकोटा जैसी जगहों पर स्थानान्तरित कर रहे हैं। अमरीका हर किस्म के पैसा का बाहें फैला कर स्वागत कर रहा है, किसी किस्म का कोई सवाल नहीं, और दुनिया में और किसी भी जगह से मुफ़ीद कर-गोपनीयता मुहैया करा रहा है। इसके साथ फटका (एफएटीसीए) कानून के पारित होने के साथ अमरीका का काला धन बाहर रखना अब मुश्किल है। तब सवाल उठता है कि इसका काला धन कहाँ जायेगा? जवाब है यहीं रहेगा और कहाँ जायेगा। स्विट्जरलैण्ड, पनामा, वर्जिनिया आइलैंड से अमरीका में खाते स्थानान्तरित करने में जिस फर्म की भूमिका है वह है रोथ्स्चाइल्ड। जहाँ पनामा लीकेज से मोस्सैक-फोंसेका के बर्बाद होने के आसार हैं, तो वहीं लाजमी रूप से उसकी खाली जगह को भरने की होड़ है और इस होड़ में रोथ्स्चाइल्ड का नाम सबसे आगे है। यही वह ‘अज्ञात’ था जिसका हमने जिक्र किया था। पनामा पेपर लीकेज, जिसे कि विश्व इतिहास का सबसे बड़ा खुलासा कहा जा रहा है, जिसे कुछ लोग बड़े उत्साहित होकर खोजी पत्रकारिकता का नया मोड़ बता रहे हैं, यह असल में पूँजीवाद की नग्नता का सूचक है, कालेधन की काली मण्डी की होड़ का नतीजा है।

वर्ल्ड बैंक, आई.एम.एफ., यू.एन. और 139 देशों के केन्द्रीय बैंकों के आँकड़ों के मुताबिक तकरीबन 210 से लेकर 320 खरब डॉलर की राशि टैक्स-हैवन देशों में छिपी हुई है। इसमें वह राशि शामिल नहीं है जोकि धोखेबाजी, तस्करी और अन्य अपराधिक गतिविधियों से जुड़ी हुई हैं, उसे भी उन्हीं टैक्स हैवन देशों में छिपाया जाता है।

सीरिया से लेकर दुनिया में हर जगह आतंकवदियों की गतिविधियों के लिए पैसा भेजने का काम टैक्स हैवंस के माध्यम से किया जाता है ताकि सीधे-सीधे यह पता ही न चले कि यह पैसा किसने और किसको भेजा है। टैक्स हैवंस का इस्तेमाल पैसे को एक जगह से दूसरी जगह स्थानान्तरित करने का काम होता है ताकि कालेधन को सफेद धन में तब्दील किया जा सके। जैसे मान लीजिये कि भारत में हुए घोटले का पैसा ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड में किसी कम्पनी को खोलने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। फिर वह कम्पनी पनामा या किसी भी अन्य टैक्स हैवन देश में कोई और कम्पनी खोलती है, और इसी प्रकार से कम्पनिओं की श्रंखला खोली जाती है। यह कम्पनियाँ महज कागज़ पर होती हैं, फ़िर वो पैसा घूमकर वापिस इन कम्पनियों द्वारा दान के स्वरूप में घोटालेबाज के हाथ में आ जाता है। और इस तरह से पैसा कई चक्कर लगाता है और कालाधन सेफेद धन बन जाता है।

जहाँ तक कानून की बात की जाये तो भारत में काफ़ी लम्बे समय तक रुपये की परिवर्तनियता की अनुमति नहीं थी, यानी कि रुपये को डॉलर में बदलकर विदेशों में निवेश नहीं किया जा सकता था। फरवरी 2004 में रिजर्व बैंक ने लिबरलाईज द रेमिटेंस स्कीम के तहत एक साल में 25,000 डॉलर तक की राशि को भारत से बाहर ले जाने की अनुमति दी। यह राशि दस साल में दस गुना बढ़ कर 2,50,000 डॉलर तक हो गयी। 2010 में काफी भ्रमों के बीच रिजर्व बैंक ने यह बात कही कि विदेशों में भारतीय पूँजीपति कारखानों के शेयर खरीद सकते हैं किन्तु वहाँ कारखाने नहीं लगा सकते। यानी वहाँ कारखाने नहीं लगा सकते किन्तु बने-बनाये कारखानों का मालिकाना हासिल कर सकते हैं। फिर 2013 में आर.बी.आई. ने ओवरसीज डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट (ओ.डी.आई.) की खिड़की खोली जिसके तहत अब पूँजीपति विदेशों में जॉइण्ट वेन्चेर्स में निवेश कर सकते हैं या सीधे विदेशों में साझा फैक्ट्रियाँ लगा सकते हैं। ऊपर लिखे तथ्यों से एक बात साफ-साफ सामने आ रही है कि पूँजी के नियमों के अनुसार ही कायदे कानून बनते हैं। साथ ही मोस्सैक-फोंसेका ‘कानूनी’ रूप से ही कारखानों को खोलने में मदद करता है। इस तथ्य में कहीं किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि विदेशों में कारखाने सन 2000 से भी पहले से खुले हैं। खुद अमिताभ बच्चन की शिपिंग कम्पनियों के दस्तावेज 1994 के हैं। अरुण जेटली ने कहा है कि बेनामी सम्पत्तियों के खिलाफ़ ग्लोबल अभियान 2017 तक अमल में आने के बाद किसी के लिये अपनी सम्पत्ति छुपा कर रखना बहुत मुश्किल हो जायेगा, अगर इसका यह मतलब समझा जाये कि 2017 के बाद सम्पति छिपाने की आवश्यकता ही खत्म हो जायेगी तो कोई गलत नहीं होगा। यानी कहीं भी कोई कालाधन रहेगा ही नहीं, और इस लिहाज से भाजपा को 2019 में फिर से हर खाते में 15 लाख रुपये देने की बात दुहरानी नहीं पड़ेगी। पहले भी जब 1600 कालाधन खाताधारकों का नाम आया था तो उन्हीं से ‘निवेदन’ किया गया कि वही बता दें कि उनके पास कितनी रकम है।

जरा एक नज़र देखें कि कैसे-कैसे लोगों ने अनाप शनाप पैसों को विदेशों में छिपाया हुआ है। नवाज शरीफ, पुतिन, आइसलैंड के प्रधानमंत्री, चीन के राष्ट्रपति ज़ई ज़िनपिंग आदि-आदि। आइसलैंड के प्रधानमंत्री सिग्मुन्दुर डेविड गुन्न्लौग्स्सों एक टेलीविजन इण्टरव्यू में बेनामी कम्पनियों के बारे में पूछे जाने के बाद शो छोड़ कर भाग गये, उसके बाद जनता के दबाव के आगे उसे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। वहीं इन नामों के साथ कुछ ‘महानायकों’, ‘सितारों’ का भी नाम इस सूची में है। भारतीय सिनेमा जगत के सदी के ‘महानायक’ अमिताभ बच्चन, उनकी पुत्रवधू ऐश्वर्या राय, कुंग-फू मास्टर जैकी-चैन, मशहूर फुटबॉलर लियॉन मेस्सीउ आदि आदि। इन सभी ने मोस्सैक-फोंसेका की मदद से टैक्स-हैवन देशों में पैसे रखे। हालाँकि अमिताभ बच्चन ने सफ़ाई देते हुए कहा की उन्होंने कोई ‘‘गैर-कानूनी’’ काम नहीं किया है। उनका पनामा पेपर में आये खुलासे से कोई ताल्लुक नहीं है, उन्होंने कहा कि हो सकता है कि किसी ने उनका नाम इस्तेमाल किया हो। किन्तु तथ्य कुछ और हकीकत बयान करते हैं। तथ्य बताते हैं कि अमिताभ बच्चन 1994 में बनी बहमास और ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड की शिपिंग कम्पनियो के निदेशक थे और बोर्ड की बैठक में फोन के माध्यम से इन्होंने हिस्सा लिया था। श्रीमान महोदय का नायक कौन है – पैसा।

अब सवाल यह है कि इसको लेकर क्या हो-हंगामा मचा हुआ है, और उस शोर-शराबे के पीछे आखिर कौन सवाल दबा हुआ है। दुनियाभर का बुर्जुआ मीडिया इस मामले को भ्रष्टाचार का मसला और कर चोरी का मसला बता रही है। हर जगह से महानुभावों की सफाई आने लगी है कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है सब कुछ ‘कानून’ के दायरे में किया है। रघुरामराजन ने भी कहा की ये कम्पनियाँ कानूनी भी हो सकती हैं, विदेशों में पैसा रखना गैर-कानूनी नहीं है। अगर भ्रष्टाचार का मतलब कानून तोड़ना है तो देखा जा सकता है कि पूँजी की गति खुद कानून का दायरा तोड़ती है। 2004 में विदेशों में निवेश की अनुमति के बाद जिस रफ़्तार से इस निवेश की जाने वाली राशि की वृद्धि हुई है, यह बताता है कि नियम कायदे पूँजी की सीमा को तय नहीं करते बल्कि मनचली पूँजी इस व्यवस्था के नियम-कानूनों को तय करती है। इसीलिए यहाँ असल सवाल यह है ही नहीं कि पूँजीवादी कानून के दायरे में क्या कानूनी है और क्या गैरकानूनी। पूँजीवादी लूट, मुनाफे की हवस किसी नियम कानून की बेड़ियों में नहीं बँधते। पूँजीवादी नियम-कानून का बुनियादी आधार ही निजी सम्पत्ति की रक्षा करना है। और मज़दूर की मेहनत लूटकर मालिक को अमीर बनाना है। सबसे बड़ा भ्रष्टाचार यही है। पूँजीवाद अपने-आप में भ्रष्टाचार है, ‘भ्रष्टाचार मुक्त पूँजीवाद’ एक कोरी कल्पना है जिसका वास्तविक जीवन से कोई ताल्लुक नहीं है। यह एक छलावा है। पूँजीवाद व्यापक मेहनतकश जनता की लूट पर टिका होता है। विदेशों में जमा यह खरबों की राशि आम जनता के ही खून और पसीने की उपज है।

असल सवाल यह नहीं है की कितना पैसा छुपाया गया या टैक्स से बचाया गया, असल सवाल यह है कि व्यवस्था का चरित्र ऐसा क्यों है जहाँ कोई व्यक्ति इतनी संपत्ति का मालिक हो सकता है कि उसे पैसे छिपाने पड़े, जबकि दूसरी तरफ़ वैश्विक अर्थव्यवस्था के संकट में होने की दुहाई दी जाती है, पूरी दुनिया में जनता को मितव्ययिता के सुझाव दिये  जा रहे हैं, पूरी दुनिया में जनता के ऊपर खर्च की जानेवाली राशि में कटौती की जा रही है। यह रिपोर्ट तो महज पूँजीवाद की उस आम सच्चाई को उजागर करती है जो मेहनतकश जनता अपने ज़िन्दगी के अनुभव से जानती है। अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई, समाज का बड़ी तेजी से होता ध्रुवीकरण, यह पूँजीवाद के आम नियम हैं। जहाँ एक तरफ 3.5 अरब जनता के पास जितनी सम्पत्ति है, यानी पूरी दुनिया की आधी आबादी, वहीं दूसरी तरफ 100 से भी कम लोगों के पास उतनी सम्पत्ति है। एक तरफ जहाँ विजय माल्या जैसा ऐय्याश 9,000 करोड़ रुपये गटक कर भाग जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ चन्द हजार का लोन न चुका पाने के कारण किसान आत्महत्या करते हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2016

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