लू शुन के तीन गद्यगीत

अनुवाद: सत्यम

योद्धा और मक्खियाँ

शॉपेनहावर ने कहा है कि मनुष्य की महानता का अनुमान लगाने में, आत्मिक ऊँचाई और शारीरिक आकार को तय करने वाले नियम एक-दूसरे के विपरीत होते हैं। क्योंकि वे हमसे जितने ही दूर होते हैं, मनुष्यों के शरीर उतने ही छोटे दिखते हैं और उनकी आत्माएँ उतनी ही महान।

क्योंकि नज़दीक से देखने पर किसी भी व्यक्ति का नायकत्व कम लगने लगता है, जहाँ से उसके दाग़ और घाव साफ़ नज़र आते हैं, वह हममें से एक दिखता है, देवता, अलौकिक प्राणी या किसी नयी प्रजाति का जीव नहीं। वह बस मनुष्य होता है। लेकिन इसी में तो उसकी महानता होती है। जब कोई योद्धा युद्ध में खेत रहता है, तो मक्खियों को सबसे पहले उसके दाग़ और घाव नज़र आते हैं। वे उन पर टूट पड़ती हैं, गुनगुनाती हुई यह सोचकर बड़ी ख़ुश होती हैं कि वे परास्त योद्धा से भी महान वीर हैं। और चूँकि योद्धा मर चुका है और उन्हें भगाता नहीं, तो मक्खियाँ और भी ज़ोर से भनभनाती हैं, और कल्पना करती हैं कि वे अमर संगीत पैदा कर रही हैं, क्योंकि वे तो उससे कहीं ज़्यादा पूर्ण और दोषरहित हैं।

सच है, कोई भी मक्खियों के दाग़ों और घावों पर ध्यान नहीं देता।

फिर भी, योद्धा अपने तमाम दाग़ों के बावजूद एक योद्धा है, जबकि सबसे पूर्ण और दोषरहित मक्खी भी मक्खी ही है।

चलो भागो, मक्खियो! तुम्हारे पास पंख होंगे और तुम भनभना सकती होगी, मगर तुम कभी भी एक योद्धा का मुकाबला नहीं कर सकतीं, कीड़े कहीं के!

आशा

मेरा हृदय असाधारण रूप से एकाकी है।

लेकिन मेरा हृदय बहुत शान्त है, प्रेम और घृणा, आनन्द और उदासी, रंग और स्वर, सबसे शून्य।

शायद मैं बूढ़ा हो रहा हूँ। क्या मेरे बाल सफ़ेद नहीं होने लगे हैं? क्या मेरे हाथ काँपने नहीं लगे हैं? तब तो मेरी आत्मा के हाथ भी काँपने लगे होंगे। मेरी आत्मा के बाल भी सफ़ेद होने लगे होंगे।

लेकिन ऐसा तो कई सालों से है।

उससे पहले एक समय था जब मेरा हृदय रक्ताभ गीतों, लोहा और ख़ून, आग और विष, पुनरुज्जीवन और प्रतिशोध से लबालब होता था। फिर अचानक मेरा हृदय खाली हो गया, सिवाय उन मौकों के, जब मैं कभी-कभी इसे जानबूझकर निराधार, खुद को भुलावा देने वाली आशा से भरता था। आशा! आशा – मैं आशा की यह ढाल उठाता था ताकि खालीपन में अँधेरी रात के आक्रमण से बचाव कर सकूँ, हालाँकि इस ढाल के पीछे तब भी अँधेरी रात और खालीपन होता था। लेकिन फिर भी, मैंने धीरे-धीरे अपना यौवन बेकार कर दिया।

निश्चित ही, मैं जानता था कि मेरी नौजवानी जा चुकी है। लेकिन मैं सोचता था कि मुझसे बाहर तो यौवन अब भी मौजूद है: तारे और चाँदनी, थककर गिरी तितलियाँ, अँधेरे में धूल, उल्लुओं के मनहूस शकुन, बुलबुल का रक्तरंजित क्रन्दन, धुँधली हँसी, प्रेम का नृत्य… हालाँकि शायद यह उदासी और निश्चितता भरा यौवन हो, लेकिन फिर भी यह यौवन ही है।

लेकिन अब इतना एकाकीपन क्यों है? क्या इसलिए क्योंकि मुझसे बाहर का यौवन भी जा चुका है और दुनिया के सारे युवा लोग बूढ़े हो गये हैं?

मुझे खालीपन में अँधेरी रात से अकेले ही जूझना है। मैंने आशा की ढाल रख दी जब मैंने शैंडोर पेतौप़फ़ी (1823-49) का आशा का गीत सुना:

आशा क्या है? एक वेश्या!

सबको लुभाती है, सबकी हो जाती है,

जब तक तुम न्योछावर नहीं कर देते अपना अनमोल ख़ज़ाना –

अपनी जवानी – फिर वह तुम्हें छोड़ जाती है।

हंगरी के इस महान कवि और देशभक्त को अपनी पितृभूमि के लिए कज़्ज़ाकों से लड़ते हुए शहीद हुए पचहत्तर साल बीत चुके हैं। उसकी मृत्यु दुखद है, पर यह और भी दुखद है कि उसकी कविता की मृत्यु अब भी नहीं हुई है।

लेकिन जीवन इतना कमबख़्त है कि पेतौप़फ़ी जैसे निडर और दृढ़ व्यक्ति को अन्त में अँधेरी रात के सामने ठहरना और सुदूर पूरब की ओर देखना पड़ा।

उसने कहा, “हताशा भी आशा की तरह, बस एक मिथ्याभास है।“

फिर भी अगर मुझे इस मिथ्याभास में जीना है, जो न प्रकाश है न अन्धकार, तो मैं उदासी और अनिश्चितता भरा वह यौवन पाना चाहूँगा जो मुझे छोड़कर जा चुका है लेकिन मुझसे बाहर मौजूद है। क्योंकि जैसे ही मुझसे बाहर का यौवन भी ग़ायब हो जायेगा, मेरी यह बूढ़ी उम्र भी मुरझा जायेगी।

लेकिन न तारे हैं न चाँदनी, न थककर गिरी तितलियाँ, न धुँधली हँसी, न प्रेम का नृत्य। युवा लोग बड़ी शान्ति से हैं।

इसलिए मुझे खालीपन में अँधेरी रात से अकेले ही जूझना है। भले ही मैं अपने बाहर के यौवन को न पा सकूँ, कम से कम मैं अपने बुढ़ापे में जवानी की एक आखि़री झोंक तो ला ही सकता हूँ। लेकिन कहाँ है अँधेरी रात? अब न तो तारे हैं न चाँदनी, न धुँधली हँसी, न प्रेम का नृत्य।

युवा लोग बड़ी शान्ति से हैं, और मेरे सामने वास्तविक अँधेरी रात भी नहीं है।

हताशा भी आशा की तरह, बस एक मिथ्याभास है।

नववर्ष दिवस, 1925

जागना

स्कूल जाते विद्यार्थियों की तरह रोज़ सुबह बमवर्षक विमान पीकिघ के ऊपर से उड़ान भरते हैं।* और हर बार जब मैं उनके इंजनों को हवा पर हमला बोलते सुनता हूँ तो मुझे हल्के से तनाव का अहसास होता है, जैसे मैं मौत के आक्रमण का प्रत्यक्षदर्शी हो रहा हूँ, हालाँकि इससे जीवन के अस्तित्व की मेरी चेतना बढ़ जाती है।

एक-दो दबे-दबे धमाकों के बाद जहाज़ भनभनाते हुए धीमी रफ्तार से वापस उड़ जाते हैं। शायद कुछ लोग हताहत होते हैं, पर दुनिया सामान्य से ज़्यादा शान्त लगने लगती है। खिड़की के बाहर पॉपलर की नाज़ुक पत्तियाँ धूप में गाढ़े सोने-सी चमकती हैं; फूलों से भरा आलूचे का पेड़ कल से भी ज़्यादा भव्य लगता है। जब मैं अपने बिस्तर पर चारों ओर बिखरे अख़बारों को समेट देता हूँ और पिछली रात मेज़ पर जमा हो गयी हल्की धूसर धूल को पोंछ देता हूँ तो छोटा-सा चौकोर कमरा वैसा लगने लगता है जिसके लिए कहते हैं, “उजास भरी खिड़कियाँ और बेदाग मेज़।”

किसी कारणवश, मैं यहाँ जमा हो गयी युवा लेखकों की पाण्डुलिपियों को सम्पादित करने लगता हूँ। मैं उन सबको पढ़ना चाहता हूँ। मैं उन्हें कालक्रमानुसार पढ़ता हूँ और इन युवा लोगों की आत्माएँ बारी-बारी से मेरे सामने आने लगती हैं जो किसी भी तरह की मुलम्मेबाज़ी से नफ़रत करते हैं। वे बहुत अच्छे हैं, उनमें ईमानदारी है – लेकिन, आह! वे कितने उदास हैं, ये मेरे प्यारे युवा, वे शिकायत करते हैं, गुस्सा होते हैं और अन्ततः रूखे बन जाते हैं।

उनकी आत्माएँ हवा और धूल के थपेड़े सहकर रूखी हो जाती हैं क्योंकि उनकी आत्मा मनुष्य की आत्मा है, ऐसी आत्मा जो मुझे प्यारी है। मैं ख़ुशी-ख़ुशी इस रूखेपन को चूमूँगा जिससे ख़ून टपक रहा है पर जो आकारहीन और रंगहीन है। ख़ूबसूरत, दूर तक मशहूर दुर्लभ फूलों से भरे बागीचों में शर्मीली और नाज़ुक लड़कियाँ अलसाती हुई समय गुज़ार रही हैं, बगुले चीखते हुए गुज़र रहे हैं और घने, सप़फ़ेद बादल उठ रहे हैं… यह सब बेहद लुभावना है लेकिन मैं नहीं भूल सकता कि मैं मनुष्यों की दुनिया में रह रहा हूँ।

और यह अचानक मुझे एक घटना की याद दिलाता है: दो या तीन साल पहले, मैं पीकिघ विश्वविद्यालय के स्टाफ़ रूम में था कि एक विद्यार्थी, जिसे मैं नहीं जानता था, भीतर आया। उसने मुझे एक पैकेट दिया और एक भी शब्द बोले बिना चला गया। और जब मैंने उसे खोला तो ‘छोटी घास’** पत्रिका की एक प्रति मिली। उसने एक शब्द भी नहीं कहा था लेकिन वह मौन कितना मुखर था, और यह तोहफ़ा कितना अनमोल! मुझे दुख है कि ‘छोटी घास’ अब नहीं प्रकाशित हो रही है; लगता है इसने बस ‘डूबी घण्टी’*** के पूर्वगामी की भूमिका अदा की। और ‘डूबी घण्टी’ इंसानी सागर में नीचे गहराई में, हवा और धूल की कन्दराओं में अकेली बज रही है।

जंगली घास को कुचल डालने पर भी उसमें एक नन्हा सा फूल उगता है। मुझे याद आता है कि तॉल्सतॉय इससे इतने उद्वेलित हो उठे थे कि उन्होंने इस पर एक कहानी लिख दी। निश्चित रूप से, जब सूखे, बंजर रेगिस्तान में पौधे अपनी जड़ें ज़मीन के नीचे गहराई में ले जाकर पानी खींच लाते हैं और एक हरा जंगल खड़ा कर देते हैं तो वह महज़ अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे होते हैं। लेकिन थके-हारे, प्यासे मुसाफिरों के दिल उन्हें देखकर उछल पड़ते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि वे ऐसी जगह पहुँच गये हैं जहाँ थोड़ी देर आराम किया जा सकता है। निश्चित ही, यह गहरी कृतज्ञता और उदासी का भाव पैदा करता है।

पाठकों को सम्बोधित करते हुए “बिना शीर्षक” शीर्षक से ‘डूबी घण्टी’ के सम्पादकों ने लिखा है:

कुछ लोग कहते हैं, हमारा समाज एक रेगिस्तान है। अगर ऐसा होता, तो सूनेपन से भरा ही सही पर आपको शान्ति का अहसास होता, वीरानगी ही सही पर आपको अनन्तता का अहसास होता। यह इतना अराजक, विषादपूर्ण और सबसे बढ़कर इतना परिवर्तनशील नहीं होता, जैसा कि यह है।

हाँ, युवा लोगों की आत्माएँ मेरे सामने उभरी हैं। वे रूखी हो गयी हैं या रूखी हो जाने वाली हैं। लेकिन मैं इन आत्माओं को प्यार करता हूँ जो चुपचाप ख़ून के आँसू रोती हैं और बर्दाश्त करती हैं, क्योंकि वे मुझे यह अहसास कराती हैं कि मैं मनुष्यों की दुनिया में हूँ – मैं मनुष्यों के बीच जी रहा हूँ।

मैं सम्पादन के काम में जुटा हूँ; सूरज ढल गया है और मैं लैम्प की रोशनी में काम करता रहता हूँ। हर तरह के युवा मेरी आँखों के सामने से कौंध जाते हैं, हालाँकि मेरे चारों ओर शाम के झुटपुटे के सिवा कुछ भी नहीं है। थका हुआ, मैं एक सिगरेट सुलगाता हूँ, धीमे से अपनी आँखें बन्द करता हूँ, यूँ ही कुछ सोचते हुए, और एक लम्बा, बहुत लम्बा सपना देखता हूँ। मैं झटके से जागता हूँ। चारों ओर कुछ नहीं बस झुटपुटा है; ठहरी हुई हवा में सिगरेट का धुआँ गर्मी के आकाश में बादल के नन्हें टुकड़ों की तरह तैर रहा है और धीरे-धीरे अबूझ आकार ग्रहण कर रहा है।

10 अप्रैल 1926

टिप्पणी

* अप्रैल, 1926 में, जब जनरल फेङ यूजियाङ उत्तरी युद्ध सरदारों झाङ जुओलिन और ली जिङलिन से लड़ रहा था तो युद्ध सरदारों के विमानों ने कई बार पीकिङ पर बमबारी की।

** युवा लेखकों द्वारा 1924 में शुरू की गयी एक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका।

*** 1925 के शिशिर में निकली एक साप्ताहिक साहित्यिक पत्रिका।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012

 

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