मुम्बई में 200 से ज़्यादा लोगों की मौत का ज़िम्मेदार कौन
विराट
मुम्बई के मालाड़ पश्चिम के एक झुग्गी इलाके में बुधवार (17 जून) की सुबह से लेकर अब तक ज़हरीली शराब के कारण 200 से ऊपर लोगों की जान जा चुकी है। पूरा प्रशासन अफरा-तफरी में है। 3 लोगों को गिरफ्तार किया गया है और 8 पुलिसकर्मियों को सस्पेण्ड किया गया है। एक के बाद एक ज़हरीली शराब की चपेट में आए लोग सरकारी अस्पतालों में दम तोड़ते जा रहे हैं। लगभग सभी मारे गये व अभी भी ज़िन्दगी और मौत के बीच जूझते लोग कड़ी मेहनत-मशक्कत करके गुज़र-बसर करने वाले लोग हैं। पूरी बस्ती में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है। क्या यह कोई पहला ऐसा मामला है जब ज़हरीली शराब पीने के कारण बड़ी संख्या में लोगों की जानें गयी हैं? रोज़-ब-रोज़ होने वाली मौतों को अगर छोड़ भी दिया जाये तो यह पहली ऐसी घटना नहीं है जब ज़हरीली शराब पीने से इतनी बड़ी संख्या में ग़रीबों की जानें गयीं हैं। मुम्बई के ही विक्रोली में 2004 में 100 से अधिक लोगों की, उत्तरप्रदेश में पहले सितंबर 2009 और फिर इसी साल जनवरी में दोनों बार को मिलाकर 70 से अधिक लोगों की इस तरह से मौत हुई। 2011 में पश्चिम बंगाल में लगभग 170, 2009 में गुजरात में 100 से अधिक लोगों की ज़हरीली शराब पीने से मौतें हुईं। हर बार प्रशासन का रुख एक जैसा ही रहा है; घटना के बाद कुछ लोगों को गिरफ़्तार किया जाता है, कुछ अफसरों का तबादला और निलम्बन होता है और थोड़े ही समय बाद घटना विस्मृति के अंधेरे में खो जाती है।
सवाल यह उठता है कि आखिर इन सभी बेगुनाहों की मौत का असली जिम्मेदार कौन है। क्या इन मौतों के लिए महज़ कुछ व्यक्ति ज़िम्मेदार होते हैं जिनको कि गिरफ़्तार कर लिया जाता है? क्या कुछ अफसरों के निलम्बन या तबादले से इन घटनाओं पर अंकुश लग सकता है? इन घटनाओं की बारम्बारता चीख-चीख कर किस ओर संकेत कर रही है? सच्चाई यह है कि इन घटनाओं के लिए यह मानवद्रोही व्यवस्था ज़िम्मेदार है जिसमें ग़रीब मज़दूरों की ज़िन्दगी की कीमत बेहद सस्ती होती है, जहाँ मनुष्य को मुनाफ़ा कमाने के लिए मशीन के एक पुर्जे से अधिक कुछ नहीं समझा जाता।
क्या प्रशासन को ख़तरनाक शराब बनाने वालों के बारे में पता नहीं होता है? झुग्गी बस्तियों में पुलिस की मोटरसाइकिलें व गाड़ियाँ रात-दिन चक्कर लगाती रहती हैं। ये पुलिसवाले यहाँ व्यवस्था बनाने के लिए चक्कर नहीं लगाते हैं बल्कि स्थानीय छोटे कारोबारियों और कारखानादारों के लिए गुण्डा फोर्स का काम करते हैं। सारे अपराध, सभी गै़र-कानूनी काम पुलिस की आँखों के सामने होते हैं और सभी काम पुलिसवालों, विधायकों आदि की जेबें गर्म करके उनकी सहमति के बाद ही होते हैं। शक की गुंजाइश के बिना यह कहा जा सकता है कि इस तरह की शराब बनाने के बारे में भी प्रशासन को पूरी जानकारी रहती है। शराब को और अधिक नशीला बनाने के लिए उसमें मेथानोल और यहाँ तक कि पेस्टीसाइड का भी इस्तेमाल होता है। चूँकि यह शराब लैबोरेटरी में टेस्ट करके नहीं बनती और इसकी गुणवत्ता के कोई मानक भी नहीं होते हैं तो ऐसे में जहरीले पदार्थों की मात्रा कम-ज़्यादा होती रहती है। इस शराब में अगर ज़हरीले पदार्थों की मात्रा कम भी रहे तो भी लम्बे सेवन से आँखे व अन्य अंग ख़राब होने आदि का ख़तरा तो बना ही रहता है। ज़हरीले पदार्थों की मात्रा यदि अधिक हो जाती है तो उसके जो परिणाम होते हैं वो इस घटना के रूप में हमारे सामने हैं।
यह भी हमारे समाज की एक कड़वी सच्चाई है कि जब एक मज़दूर को दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत करनी पड़ती है तो साथ ही साथ उसका अमानवीकरण भी होता है और शराब व अन्य व्यसन उसके लिए शौक नहीं बल्कि ज़िन्दगी की भयंकर कठिनाइयों को भुलाने और दुखते शरीर को क्षणिक राहत देने के साधन बन जाते हैं। ऐसे मूर्खों की हमारे समाज में कमी नहीं है जो कहते हैं कि मज़दूरों की समस्याओं का कारण यह है कि वे बचत नहीं करते और सारी कमाई को व्यसनों में उड़ा देते हैं। असल में बात इसके बिल्कुल उलट होती है और वे व्यसन इसलिए करते हैं कि उनकी ज़िन्दगी में पहले ही असंख्य समस्याएँ है। जो लोग कहते हैं कि बचत न करना ग़रीबों-मजदूरों की सभी परेशानियों का कारण होता है उनसे पूछा जाना चाहिए कि जो आदमी 5000-8000 रुपये ही कमा पाता हो वह अव्वलन तो बचत करे कैसे और अगर सारी ज़िन्दगी भी वह चवन्नी-अठन्नी बचायेगा तो कितनी बचत कर लेगा? क्या जो 1000-1500 रुपये एक महीने या कई महीनों में वे व्यसन में उड़ा देते हैं उसकी बचत करने से वे सम्पन्नता का जीवन बिता सकेंगे? यहाँ व्यसनों की अनिवार्यता या फिर उन्हें प्रोत्साहन देने की बात नहीं की जा रही है बल्कि समाज की इस सच्चाई पर ध्यान दिलाया जा रहा है कि एक मानवद्रोही समाज में किस तरह से ग़रीबों के लिए व्यसन दुखों से क्षणिक राहत पाने का साधन बन जाते हैं। इस व्यवस्था में जहाँ हरेक वस्तु को माल बना दिया जाता है वहाँ जिन्दगी की मार झेल रहे गरीबों के व्यसन की जरूरत को भी माल बना दिया जाता है। ग़रीब मज़दूर बस्तियों में सस्ती शराबों का पूरा कारोबार इस जरूरत से मुनाफा कमाने पर ही टिका है। इस मुनाफे की हवस का शिकार भी हर-हमेशा गरीब मज़दूर ही बनते हैं। यह घटना कोई अनोखी नहीं है और मुनाफे के लिए की गई हत्याओं के सिलसिले की ही एक और कड़ी है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-अक्टूबर 2015
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