काले धन पर श्वेत पत्र की सरकारी नौटंकी

अन्तरा घोष

संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के भूतपूर्व वित्त मन्त्री (जो कि अब ‘महामहिम’ बनने जा रहे हैं!) प्रणब मुखर्जी ने अपने वित्त मन्त्रित्व काल के अन्त में जो काम किये हैं, उनमें से एक है काले धन के प्रश्न पर श्वेत पत्र जारी करना। ज़्यादातर लोग ऐसे दस्तावेज़ों में कोई रुचि नहीं रखते क्योंकि वास्तविक चीज़ों पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हालाँकि यह रुख़ ठीक ही है, लेकिन ऐसे दस्तावेज़ों में ही यह भी देखने में आता है कि सरकार किस प्रकार काले को सफ़ेद और सफ़ेद को काला बनाती है। अगर हम हाल ही में जारी श्वेत पत्र पर निगाह डालें तो यह बात समझना आसान हो जाता है।

इस श्वेत पत्र की प्रस्तावना में प्रणब मुखर्जी ने कहा है कि काले धन की समस्या पर बहुत कुछ किया जाना बाकी है, और इसमें सामूहिक और व्यक्तिगत, दोनों ही स्तरों पर उत्तरदायित्व मौजूद है। इस कथन के कई अर्थ निकाले जा सकते हैं। पहली बात तो यह है कि काले धन की समस्या के लिए महज़ सरकार जिम्मेदार नहीं है। दूसरी बात यह कि इसीलिए सरकार को इस समस्या के समाधान के लिए पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। तीसरी बात यह कि इसके लिए जनता भी जिम्मेदार है! लेकिन इन तीनों ही मुद्दों पर अगर भूतपूर्व वित्त मन्त्री महोदय का वास्तव में यही अर्थ था, तो कहना पड़ेगा कि वह जनता को गच्चा देने का प्रयास कर रहे हैं। इस काले धन की समस्या में अगर किसी का व्यक्तिगत और सामूहिक उत्तरदायित्व बनता है तो वह इस देश का लोभी, लालची, अनैतिक, पतन के गर्त में पहुँच चुका, विलासी, भ्रष्टाचारी और लम्पट पूँजीपति वर्ग और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली पूँजीवादी सरकार है, चाहे वह किसी भी पार्टी के नेतृत्व में बनी हो। यह सारा काला धन जनता को ही तो लूट कर इकट्ठा किया गया है! इसलिए, उपरोक्त नैतिक उपदेशों के पीछे की सच्चाई को गोल करने का वित्त मन्त्री का प्रयास व्यर्थ है। जाहिर है कि कोई ग़रीब मेहनतकश, निम्न मध्यम वर्ग या आम मध्यम वर्ग का व्यक्ति स्विस बैंकों में खाता नहीं खोलता है! इसलिए पूरी जनता की कोई जिम्मेदारी नहीं है; वित्त मन्त्री प्रणब मुखर्जी ने अपने आकाओं पर मौजूद भ्रष्टाचार के बोझ का वैविध्यकरण करने का प्रशंसनीय, किन्तु व्यर्थ प्रयास किया है!

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जब हम इस श्वेत पत्र को पढ़ते हुए आगे बढ़ते हैं, तो हम पाते हैं कि किस प्रकार पुराने युग की अस्वीकार्य और अनैतिक चीज़ों को नये युग में लुटेरे मान्य और नैतिक बना देते हैं! सरकार ने श्वेत पत्र में काले धन के स्वैच्छिक प्रकटीकरण की नायाब योजना देश के लुटेरों के सामने रखी है। अगर वे अपनी तरप़फ़ से स्विस बैंकों में जमा अपने काले धन का खुलासा कर दें तो सरकार उसे सफ़ेद धन मानेगी और उसे देश के भीतर लाने के रास्ते में खड़ी सभी कानूनी बाधाएँ समाप्त हो जायेंगी! और इस प्रक्रिया में इस काले धन को भ्रष्टाचार, लूट और शोषण के बूते निचोड़ने वाले पूँजीपतियों को कोई सज़ा भी नहीं दी जायेगी। अधिकांशतः जो काला धन इकट्ठा हुआ है, वह रियल एस्टेट, आभूषण, स्टॉक बाज़ार, खनन आदि के क्षेत्र के पूँजीपतियों ने इकट्ठा किया है, आम तौर पर कर चोरी के तौर पर और साथ ही घूसखोरी वगैरह के रास्ते ग़ैर-कानूनी तौर पर आर्थिक लाभ और अधिकार प्राप्त करके। अब सरकार उन्हें मौका दे रही है कि बिना किसी सज़ा के डर के वे अपने इस काले धन को देश में वापस ला सकते हैं! वाह! इस प्रस्ताव पर किसी भी काला बाज़ारिये को क्यों ऐतराज़ होगा? जिस काले धन के साथ यह समस्या हमेशा से मौजूद रही थी कि उसे सफ़ेद कैसे किया जाये और देश के भीतर लाकर निवेश-योग्य कैसे बनाया जाये, वह काम अब सरकार स्वयं ही किये दे रही है! अब इस तरीके से काले धन का देश से बाहर प्रवाह रुकेगा या बढ़ेगा, इसे कोई बच्चा भी आसानी से समझ सकता है।

श्वेत पत्र में आगे इस बात पर सन्तोष जताया गया है कि 2006 से 2010 के बीच स्विस बैंकों में जमा भारतीय काले धन में कमी आई है। पहले यह 23 हज़ार करोड़ के करीब था जो अब 9 हज़ार करोड़ पर पहुँच गया है। लेकिन यह भी एक भ्रामक तर्क है। इसका कारण यह है कि भूमण्डलीकृत अर्थव्यवस्था में इस काले धन को किस प्रकार से विविधतापूर्ण जगहों पर जमा या निवेश किया जा सकता है, यह सभी जानते हैं। पिछले 5-6 वर्षों में काले धन को नये-नये करमुक्त क्षेत्रों में ले जाने की प्रक्रिया तेज़ी से चली है। पिछले 5-6 वर्षों में भी भ्रष्टाचार ने भारत में नये कीर्तिमान कायम किये हैं। ऐसे में, यह कोई मूर्ख ही मानेगा कि काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था के आकार में कोई कमी आयी होगी। निश्चित तौर पर, अब काले धन के कई नये गन्तव्य स्थान अस्तित्व में आ चुके हैं, जहाँ कम-से-कम बाधाएँ, सीमाएँ, अवरोध और निश्चित तौर पर कम से कम कर हैं! ऐसे में, महज़ स्विस बैंक में जमा धन में आयी कमी से काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था में कमी की बात नहीं की जा सकती है।

स्पष्ट है कि ऐसा कोई भी श्वेत पत्र काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार पर रोक लगाने में कोई भूमिका नहीं निभा सकता है। और भारत के पूँजीवादी राजनीतिक वर्ग से ऐसी उम्मीद वैसे भी नहीं की जा सकती है जबकि राजनीति स्वयं ही एक ज़बर्दस्त मुनाफ़े का धन्धा बन चुकी है। हर सांसद और विधायक देश की जनता की कारपोरेट लूट को सम्भव बनाने और देशी-विदेशी कम्पनियों को बेलाग-लपेट तरीके से लूटने के लिए जो सेवाएँ प्रदान कर रहा है, उसे स्वयं ही उससे एक तगड़ी आय हो रही है। एस-बैण्ड घोटाले, टू जी स्पेक्ट्रम घोटाले में यह सच्चाई सामने आ चुकी है। यह आमदनी भी कोई सफेद धन की आमदनी नहीं है और यह धन भी तमाम हवाला चैनलों से तमाम विदेशी बैंकों में ही जमा किया जाता है। भूमण्डलीकरण और नवउदारवादी नीतियों के दौर में पूँजीवादी राजसत्ता सम्भालने वाली सरकारों के प्रतिनिधियों से और कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती है। जाहिर है, कि कोई भी श्वेत पत्र, कानून या अधिनियम महज़ जनता को मूर्ख बनाने का एक उपकरण हो सकता है। इस व्यवस्था की चौहद्दियों के भीतर कोई साफ़-सुथरा, शुद्ध और सन्त पूँजीवाद सम्भव नहीं है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2012

 

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