बाज़ का गीत
मक्सिम गोर्की
सीमाहीन सागर तट-रेखा के निकट अलस भाव से छलछलाता और तट से दूर निश्चल, नींद में डूबा, नीली चाँदनी में सराबोर था। क्षितिज के निकट दक्षिणी आकाश की मुलायम और रुपहली नीलिमा में विलीन होता हुआ वह मीठी नींद सो रहा था – रूई जैसे बादलों के पारदर्शी ताने-बाने को प्रतिबिम्बित करता हुआ जो उसकी ही भाँति आकाश में निश्चल लटके थे – तारों के सुनहरे बेल-बूटों पर अपना आवरण डाले, लेकिन उन्हें छिपाये हुए नहीं। ऐसा लगता था, मानो आकाश सागर पर झुका पड़ रहा हो, मानो वह कान लगाकर यह सुनने को उत्सुक हो कि उसकी बेचैन लहरें, जो अलस भाव से तट को पखार रही थीं, फुसफुसाकर क्या कह रही हैं।
आँधी से झुके पेड़ों से आच्छादित पहाड़, अपनी खुरदरी कगारदार चोटियों से ऊपर के नीले शून्य को छू रहे थे, जहाँ दक्खिनी रात का सुहाना और दुलार-भरा अँधेरा अपने स्पर्श से उनके खुरदरे, कठोर कगारों को मुलायम बना रहा था।
पहाड़ गम्भीर चिन्तन में लीन थे। उनके काले साये उमड़ती हुई हरी लहरों पर अवरोधी आवरणों की भाँति पड़ रहे थे, मानो वे ज्वार को रोकना चाहते हों। पानी की निरन्तर छलछलाहट, झागों की सिसकारियों और उन तमाम आवाज़ों को शान्त करना चाहते हों जो अभी तक पहाड़ की चोटियों के पीछे छिपे चाँद की रुपहली-नीली आभा की भाँति समूचे दृश्यपट को प्लावित करने वाली रहस्यमयी निस्स्तब्धता का उल्लंघन कर रही थीं।
“अल्लाह हो अकबर!” नादिर रहीम ओगली ने धीमे से आह भरते हुए कहाँ वह क्रीमिया का रहने वाला एक वृद्ध गड़ेरिया था – लम्बा कद, सफ़ेद बाल, दक्षिणी धूप में तपा, दुबला-पतला, समझदार बुजुर्ग।
हम रेत पर पड़े थे – साये में लिपटी और काई से ढँकी एक भीमाकार, उदास और खिन्न चट्टान की बग़ल में जो अपने मूल पहाड़ से टूटकर अलग हो गयी थी। उसके समुद्र वाले पहलू पर समुद्री सरकण्डों और जल-पौधों की बन्दनवार थी जो उसे सागर तथा पहाड़ों के बीच रेत की सँकरी पट्टी से जकड़े मालूम होती थी। हमारे अलाव की लपटें पहाड़ों वाले पहलू को आलोकित कर रही थीं और उनकी काँपती हुई लौ की परछाइयाँ उसकी प्राचीन सतह पर, जो गहरी दरारों से क्षत-विक्षत हो गयी थीं, नाच रही थीं।
रहीम और मैं मछलियों का शोरबा पका रहे थे जिन्हें हमने अभी पकड़ा था और हम दोनों ऐसे मूड में थे जिसमें हर चीज़ स्पष्ट, अनुप्राणित और बोधगम्य मालूम होती हैं, जब हृदय बेहद हल्का और निर्मल होता है – और चिन्तन में डूबने के सिवा मन में और कोई इच्छा नहीं होती।
सागर तट पर छपछपा रहा था। लहरों की आवाज़ ऐसी प्यारभरी थी मानो वे हमारे अलाव से अपने आपको गरमाने की याचना कर रही हों। लहरों के एकरस गुंजन में रह-रहकर एक अधिक ऊँचा और अधिक आह्लादपूर्ण स्वर सुनायी दे जाता – यह अधिक साहसी लहरों में से किसी एक का स्वर होता जो हमारे पाँवों के अधिक निकट रेंग आती थी।
रहीम सागर की ओर मुँह किये पड़ा था। उसकी कोहनियाँ रेत में धँसी थीं, उसका सिर उसके हाथों पर टिका था और वह विचारों में डूबा दूर धुँधलके को ताक रहा था। उसकी भेड़ की खाल की टोपी खिसककर उसकी गुद्दी पर आ गयी थी और समुद्र की ताज़ा हवा झुर्रियों की महीन रेखाओं से ढके उसके ऊँचे मस्तक पर पंखा झल रही थी। उसके मुँह से दार्शनिकी उद्गार प्रकट हो रहे थे – इस बात की चिन्ता किये बिना कि मैं उन्हें सुन भी रहा हूँ या नहीं। ऐसा लगता था जैसे वह समुद्र से बातें कर रहा हो।
“ जो आदमी ख़ुदा में अपना ईमान बनाये रखता है, उसे बहिश्त नसीब होती है। और वह, जो ख़ुदा या पैगम्बर को याद नहीं करता? शायद वह वहाँ है, इस झाग में…पानी की सतह पर वे रुपहले धब्बे शायद उसी के हों, कौन जाने!”
विस्तारहीन काला सागर अधिक उजला हो चला था और उसकी सतह पर लापरवाही से जहाँ-तहाँ बिखेर दिये गये चाँदनी के धब्बे दिखायी दे रहे थे। चाँद पहाड़ों की कगारदार झबरीली चोटियों के पीछे से बाहर खिसक आया था और तट पर, उस चट्टान पर, जिसकी बग़ल में हम लेटे हुए थे, और सागर पर, जो उससे मिलने के लिए हल्की उसाँसें भर रहा था, उनीन्दा-सा अपनी आभा बिखेर रहा था।
“रहीम, कोई किस्सा सुनाओ,” मैंने वृद्ध से कहाँ
“किस लिए?” अपने सिर को मेरी ओर मोड़े बिना ही उसने पूछा।
“यों ही! तुम्हारे वि़फ़स्से मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।“
“मैं तुम्हें सब सुना चुका। और याद नहीं…” वह चाहता था कि उसकी ख़ुशामद की जाये और मैंने उसकी ख़ुशामद की।
“अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें एक गीत सुना सकता हूँ,” उसने राजी होते हुए कहा।
मैं ख़ुशी से कोई पुराना गीत सुनना चाहता था और उसने मौलिक धुन को कायम रखते हुए एकरस स्वर में गीत सुनाना शुरू कर दिया।
1
“ऊँचे पहाड़ों पर एक साँप रेंग रहा था, एक सीलनभरे दर्रे में जाकर उसने कुण्डली मारी और समुद्र की ओर देखने लगा।
“ऊँचे आसमान में सूरज चमक रहा था, पहाड़ों की गर्म साँस आसमान में उठ रही थी और नीचे लहरें चट्टानों से टकरा रही थीं…
“दर्रे के बीच से, अँधेरे और धुन्ध में लिपटी एक नदी तेज़ी से बह रही थी – समुद्र से मिलने की उतावली में राह के पत्थरों को उलटती-पलटती…
“झागों का ताज पहने, सप़फ़ेद और शक्तिशाली, वह चट्टानों को काटती, गुस्से में उबलती-उफनती, गरज के साथ समुद्र में छलांग मार रही थी।
“अचानक उसी दर्रे में, जहाँ साँप कुण्डली मारे पड़ा था, एक बाज, जिसके पंख ख़ून से लथपथ थे और जिसके सीने में एक घाव था, आकाश से वहाँ आ गिरा…
“धरती से टकराते ही उसके मुँह से एक चीख़ निकली और वह हताशापूर्ण क्रोध में चट्टान पर छाती पटकने लगा…
“सांप डर गया, तेज़ी से रेंगता हुआ भागा, लेकिन शीघ्र ही समझ गया कि पक्षी पल-दो पल का मेहमान है।
“सो रेंगकर वह घायल पक्षी के पास लौटा और उसने उसके मुँह के पास फुँकार छोड़ी –
“मर रहे हो क्या?”
“हां मर रहा हूँ!” गहरी उसाँस लेते हुए बाज ने जवाब दिया। ‘ख़ूब जीवन बिताया है मैंने!…बहुत सुख देखा है मैंने!…जमकर लड़ाइयाँ लड़ी हैं!…आकाश की ऊँचाइयाँ नापी हैं मैंने…तुम उसे कभी इतने निकट से नहीं देख सकोगे!…तुम बेचारे!’
आकाश? वह क्या है? निरा शून्य…मैं वहाँ कैसे रेंग सकता हूँ? मैं यहाँ बहुत मज़े में हूँ…गरमाहट भी है और नमी भी!’
“इस प्रकार साँप ने आज़ाद पंछी को जवाब दिया और मन ही मन बाज की बेतुकी बात पर हँसा।
“और उसने अपने मन में सोचा – ‘चाहे रेंगो, चाहे उड़ो, अन्त सबका एक ही है – सबको इसी धरती पर मरना है, धूल बनना है।’
“मगर निर्भीक बाज़ ने एकाएक पंख फडप़फ़ड़ाये और दर्रे पर नज़र डाली।
“भूरी चट्टानों से पानी रिस रहा था और अँधेरे दर्रे में घुटन और सड़ान्ध थी।
“बाज़ ने अपनी समूची शक्ति बटोरी और तड़प तथा वेदना से चीख़ उठा –
“काश, एक बार फिर आकाश में उड़ सकता!…दुश्मन को भींच लेता…अपने सीने के घावों के साथ…मेरे रक्त की धारा से उसका दम घुट जाता!…ओह, कितना सुख है संघर्ष में!’…
“सांप ने अब सोचा – ‘अगर वह इतनी वेदना से चीख़ रहा है, तो आकाश में रहना वास्तव में ही इतना अच्छा होगा!’
“और उसने आज़ादी के प्रेमी बाज से कहा – ‘रेंगकर चोटी के सिरे पर आ जाओ और लुढ़ककर नीचे गिरो। शायद तुम्हारे पंख अब भी काम दे जायें और तुम अपने अभ्यस्त आकाश में कुछ क्षण और जी लो।’
“बाज़ सिहरा, उसके मुँह से गर्व भरी हुँकार निकली और काई जमी चट्टान पर पंजों के बल फिसलते हुए वह कगार की ओर बढ़ा।
“कगार पर पहुँचकर उसने अपने पंख फैला दिये, गहरी साँस ली और आँखों से एक चमक-सी छोड़ता हुआ शून्य में कूद गया।
“और ख़ुद भी पत्थर-सा बना बाज चट्टानों पर लुढ़कता हुआ तेज़ी से नीचे गिरने लगा, उसके पंख टूट रहे थे, रोयें बिखर रहे थे…
“नदी ने उसे लपक लिया, उसका रक्त धोकर झागों में उसे लपेटा और उसे दूर समुद्र में बहा ले गयी।
“और समुद्र की लहरें, शोक से सिर धुनती, चट्टान की सतह से टकरा रही थीं…पक्षी की लाश समुद्र के व्यापक विस्तारों में ओझल हो गयी थी…
2
“कुण्डली मारे साँप, बहुत देर तक दर्रे में पड़ा हुआ सोचता रहा – पक्षी की मौत के बारे में, आकाश के प्रति उसके प्रेम के बारे में।
“उसने उस विस्तार में आँखें जमा दीं जो निरन्तर सुख के सपने से आँखों को सहलाता है।
“‘क्या देखा उसने – उस मृत बाज़ ने – इस शून्य में, इस अन्तहीन आकाश में? क्यों उसके जैसे आकाश में उड़ान भरने के अपने प्रेम से दूसरों की आत्मा को परेशान करते हैं? क्या पाते हैं वे आकाश में? मैं भी तो, बेशक थोड़ा-सा उड़कर ही, यह जान सकता हूँ।’
“उसने ऐसा सोचा और कर डाला। कसकर कुण्डली मारी, हवा में उछला और सूरज की धूप में एक काली धारी-सी कौंध गयी।
“जो धरती पर रेंगने के लिए जन्मे हैं, वे उड़ नहीं सकते!…इसे भूलकर साँप नीचे चट्टानों पर जा गिरा, लेकिन गिरकर मरा नहीं और हँसा –
“‘सो यही है आकाश में उड़ने का आनन्द! नीचे गिरने में!…हास्यास्पद पक्षी! जिस धरती को वे नहीं जानते, उस पर ऊबकर आकाश में चढ़ते हैं और उसके स्पन्दित विस्तारों में ख़ुशी खोजते हैं। लेकिन वहाँ तो केवल शून्य है। प्रकाश तो बहुत है, लेकिन वहाँ न तो खाने को कुछ है और न शरीर को सहारा देने के लिए ही कोई चीज़। तब फिर इतना गर्व किसलिए? धिक्कार-तिरस्कार क्यों? दुनिया की नज़रों से अपनी पागल आकांक्षाओं को छिपाने के लिए, जीवन के व्यापार में अपनी विफलता पर पर्दा डालने के लिए ही न? हास्यास्पद पक्षी!…तुम्हारे शब्द मुझे फिर कभी धोखा नहीं दे सकते! अब मुझे सारा भेद मालूम है! मैंने आकाश को देख लिया है…उसमें उड़ लिया, मैंने उसको नाप लिया और गिरकर भी देख लिया, हालाँकि मैं गिरकर मरा नहीं, उल्टे अपने में मेरा विश्वास अब और भी दृढ़ हो गया है। बेशक वे अपने भ्रमों में डूबे रहें, वे, जो धरती को प्यार नहीं करते। मैंने सत्य का पता लगा लिया है। पक्षियों की ललकार अब कभी मुझ पर असर नहीं करेगी। मैं धरती से जन्मा हूँ और धरती का ही हूँ।’
“ऐसा कहकर, वह एक पत्थर पर गर्व से कुण्डली मारकर जम गया।
“सागर, चौंधिया देने वाले प्रकाश का पुंज बना चमचमा रहा था और लहरें पूरे ज़ोर-शोर से तट से टकरा रही थीं।
“उनकी सिह जैसी गरज में गर्वीले पक्षी का गीत गूँज रहा था। चट्टानें काँप रही थीं समुद्र के आघातों से और आसमान काँप रहा था दिलेरी के गीत से –
‘साहस के उन्मादियों की हम गौरव-गाथा गाते हैं! गाते हैं उनके यश का गीत!’
‘साहस का उन्माद-यही है जीवन का मूलमन्त्र ओह, दिलेर बाज! दुश्मन से लड़कर तूने रक्त बहाया…लेकिन वह समय आयेगा जब तेरा यह रक्त जीवन के अन्धकार में चिनगारी बनकर चमकेगा और अनेक साहसी हृदयों को आज़ादी तथा प्रकाश के उन्माद से अनुप्राणित करेगा!’
‘बेशक तू मर गया!…लेकिन दिल के दिलेरों और बहादुरों के गीतों में तू सदा जीवित रहेगा, आज़ादी और प्रकाश के लिए संघर्ष की गर्वीली ललकार बनकर गूँजता रहेगा!’
“हम साहस के उन्मादियों का गौरव-गान गाते हैं!”
…सागर के पारदर्शी विस्तार निस्स्तब्ध हैं, तट से छलछलाती लहरें धीमे स्वरों में गुनगुना रही हैं और दूर समुद्र के विस्तार को देखता हुआ मैं भी चुप हूँ। पानी की सतह पर चाँदनी के रुपहले धब्बे अब पहले से कहीं अधिक हो गये हैं…हमारी केतली धीमे से भुनभुना रही है।
एक लहर खिलवाड़ करती आगे बढ़ आयी और मानो चुनौती का शोर मचाती हुई रहीम के सिर को छूने का प्रयत्न करने लगी।
“भाग यहाँ से! क्या सिर पर चढ़ेगी?” हाथ हिलाकर उसे दूर करते हुए रहीम चिल्लाया और वह, मानो उसका कहना मानकर तुरन्त लौट गयी।
लहर को सजीव मानकर रहीम के इस तरह उसे झिड़कने में, मुझे हँसने या चौंक उठने वाली कोई बात नहीं मालूम हुई। हमारे चारों ओर की हर चीज़ असाधारण रूप से सजीव, कोमल और सुहावनी थी। समुद्र शान्त था और उसकी शीतल साँसों में, जिन्हें वह दिन की तपन से अभी तक तप्त पहाड़ों की चोटियों की ओर प्रवाहित कर रहा था, संयत शक्ति निहित प्रतीत होती थी। आकाश की गहरी नीली पृष्ठभूमि पर सुनहरे बेल-बूटों के रूप में तारों ने कुछ ऐसा गम्भीर चित्र अंकित कर दिया था जो आत्मा को मन्त्र-मुग्ध करता था और हृदय को किसी नये आत्मबोध की मधुर आशा से विचलित करता प्रतीत होता था।
हर चीज़ उनीन्दी थी, लेकिन जागरूकता की गहरी चेतना अपने हृदय में सहेजे, मानो अगले ही क्षण वे सभी नींद की अपनी चादर उतारकर अवर्णनीय मधुर स्वर में समवेत गान शुरू कर देंगी। उनका यह समवेत गान जीवन के रहस्यों को प्रकट करेगा, उन्हें मस्तिष्क को समझायेगा, फिर उसे छलावे की अग्नि-शिखा की भाँति ठण्डा कर देगा और आत्मा को गहरे नीले विस्तारों में उड़ा ले जायेगा, जहाँ तारों के कोमल बेल-बूटे भी आत्मबोध का दिव्य गीत गाते होंगे…
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर-दिसम्बर 2011
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