फिर से मुनाफ़े की हवस की भेंट चढ़े सैंकड़ों मज़दूर

शिवानी

पूँजी किस हद तक आदमखोर और मुनाफ़े की हवस में कितनी बदहवास हो सकती है इसका सबसे नया उदाहरण दिसम्बर माह के मध्य में पश्चिम बंगाल स्थित दक्षिण 24 परगना जिले में नकली ज़हरीली शराब पीने से लगभग 170 लोगों की मौत के रूप में सामने आया। मृतकों में ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दूर और रिक्शा चालक थे। पिछले लगभग एक दशक में अवैध देसी शराब पीने से देश के अलग-अलग हिस्सों में लगभग 850 लोगों की मौत हुई है। बताने की आवश्यकता नहीं है कि इन सभी हादसों में मरने वालों में अधिकतर लोग गरीब तबके से ही थे। पश्चिम बंगाल सरकार ने मृतकों के परिवारों को 2 लाख रुपये मुआवजे़ के तौर पर देने की घोषणा की है जो, जैसा कि आमतौर पर होता है, अभी तक इन लोगों तक नहीं पहुँचा है। हर बार की तरह इस बार भी बुर्जुआ चुनावी दल ग़रीबों की मौत पर दलगत राजनीति करने से बाज़ नहीं आए। तृणमूल कांग्रेस और माकपा के बीच आरोप-प्रत्यारोप का जो खेल शुरू हुआ है, वह जल्दी थमेगा, इसकी सम्भावना कम ही है। वैसे भी, इन तमाम दलों के पास संसद-विधानसभा में करने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं होता, इसलिए बड़ी बेशर्मी के साथ, ये ऐसे सभी हादसों को अपनी राजनीति चमकाने के स्वर्णिम अवसर के रूप में देखते है।

pirhayati20111216102911247 poisonous alcohol
ऐसा नहीं है कि प्रशासन, विशेषकर आबकारी विभाग और पुलिस को इस इलाके में होने वाले अवैध शराब के कारोबार के विषय में जानकारी नहीं थी। इस किस्म के तमाम अवैध एवं आपराधिक कारोबार तो प्रशासन और पुलिस की साँठ-गाँठ और संरक्षण में ही पनपते और फलते-फूलते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि इस प्रकार के अवैध कारोबार और अपराध पूँजीवाद के लिए अपवाद या कोई नई परिघटना है। अपराध तो पूँजीवादी अर्थतंत्र और बुजुआ समाज का एक बेहद ज़रूरी नियम है। इस विषय में ‘पूँजी’ के लेखक कार्ल मार्क्स का यह उद्धरण काफ़ी प्रसंगोचित हैः
“अपराध पूँजीवादी जीवन की एकरसता और सुरक्षा भाव को तोड़ता है। इस तरह से वह इसे ठहराव का शिकार बनने से रोकता है और इसमें कठिन तनाव और चपलता पैदा करता है जिसके बिना प्रतियोगिता का डर भी कम पड़ जाता है। इस तरह वह उत्पादक शक्तियों को प्रेरित करता है। जहाँ अपराध श्रम के बाज़ार से अतिरिक्त आबादी के एक हिस्से को अपने साथ हटा लेता है और इस तरह मज़दूरों के बीच प्रतियोगिता को कम करता है-उस निश्चित बिन्दु तक ताकि मज़दूरों के वेतन न्यूनतम से नीचे न गिरें-वहीं अपराध के विरुद्ध संघर्ष इस आबादी के एक दूसरे हिस्से को अपने भीतर शामिल कर लेता है। इस प्रकार अपराधी प्राकृतिक सन्तुलनकारी के रूप में सामने आता है और अनेक उपयोगी ज़रूरी पेशों के लिए रास्ता खोल देता है।
उत्पादक शक्तियों के विकास पर अपराध के प्रभाव को विस्तार से दिखाया जा सकता है। यदि चोर नहीं होते तो क्या कभी ताले अपने वर्तमान स्तर तक पहुँच पाते? यदि जालसाज़ न होते तो क्या बैंक नोटों की छपाई इस स्तर तक पहुँच पाती? यदि व्यापर धोखाधड़ी न होती तो क्या सामान्य व्यापार में सूक्ष्मदर्शियों का उपयोग सम्भव होता? क्या व्यावहारिक रसायन शास्त्र मालों में मिलावट के लिए आभारी नहीं है? अपराध सम्पत्ति पर लगातार नये-नये हमलों के जरिये सुरक्षा के नए-नए तरीकों की ज़रूरत पैदा करता है और इसीलिए उसी प्रकार उत्पादक है जैसे मशीनों के अविष्कार के लिए हड़तालें। और यदि हम व्यक्तिगत अपराधों के दायरे को छोड़ दें तब भी क्या बिना राष्ट्रीय अपराधों के वैश्विक बाज़ार अस्तित्व में आया होता? बल्कि क्या राष्ट्र भी जन्मे होते?”
यह सच है कि हमारे देश में केन्द्रीय आबकारी कानून में ऐसा कारोबार करने वालों के खिलाफ कड़े दण्ड और भारी जुर्माने का प्रावधान है। लेकिन ऐसे कानूनों की बात जितनी कम की जाए, उतना अच्छा है। ऐसे सभी दन्तहीन नखविहीन कानून इस व्यवस्था के दिखाने के दाँतों के अलावा और कुछ नहीं हैं। अवैध आपराधिक कारोबारों में लगे सभी लोग ऐसे कानूनों को अपनी जेब में लेकर घूमते हैं। यही बात अवैध शराब के कारोबार पर भी लागू होती है। इस धंधे में लगे लोग कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने की मंशा से ऐसे रसायनों का इस्तेमाल करते हैं जो अधिक नशा दे सकें। उनकी यही मुनाफ़े की हवस गरीबों की मौत का कारण बनती है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का इस “घटना” को सामाजिक बुराई मात्र कह देना ऐसे तमाम हादसों में राज्य का जो उत्तरदायित्व बनता है, उससे पल्ला झाड़ना है। तमाम अखबारों में छपी रिपोर्टों के अनुसार इस हादसे में जो कारोबारी दोषी पाया गया है, वह पहले वाम मोर्चे की सरकार के समय माकपा का सदस्य था। जब ममता बनर्जी की सरकार बनी तो उसने तृणमूल कांग्रेस की तरफ पाला बदल लिया। सत्ता से नज़दीकी के बल पर वह अपने अवैध शराब बनाने का कारोबार फैलाता गया और उसके द्वारा कमाये गुए मुनाफ़े से एक आलीशान होटल और कई रिहायशी भवनों का मालिक बन गया। ये रिपोर्टें चौंकाने वाली कतई नहीं लगतीं। शहरों और ग्रामीण इलाकों में निर्जन जगहों पर भट्ठियाँ लगाकर देसी शराब बनाने और बेचने का धंधा निर्बाध रूप से बिना प्रशासनिक, साँठ-गाँठ के चलना असम्भव है। इसलिए पूँजीवादी राजनीति में लिप्त तमाम बुर्जुआ दलों को फ़ि‍जूल की बयानबाज़ी से पहले एक बार अपने-अपने गिरेबानों में झाँककर देख लेना चाहिए।
शराबखोरी पूँजीवादी समाज का एक यथार्थ है। लेकिन हर सामाजिक बुराई की तरह यह निर्वात में अस्तित्वमान नहीं है। शराबखोरी पूँजीवाद-जनित सामाजिक बुराई है। गरीब, मजदूर जो महँगी अंग्रेजी शराब खरीदने की कूव्वत नहीं रखते, वे अवैध तरीके से बनाई जाने वाली देसी शराब पीते हैं और इसलिए प्रायः ऐसे हादसों का शिकार वही होते हैं। अमीरी और गरीबी की खाई जो पूँजीवाद पैदा करता है वह इसके बाज़ारों में भी प्रतिबिम्बित होता है। इसलिए उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर संगीत, फिल्मों आदि तक के क्षेत्र में हर हमेशा दो बाज़ार मौजूद होते है। जाहिरा तौर पर एक ऐसी व्यवस्था जिसमें आम बहुसंख्यक आबादी का श्रम और जीवन कौड़ियों के मोल बिकता हो, उनके लिए बाज़ार में मिलने वाली वस्तुएँ भी मिलावटभरी, सस्ती, घटिया और नकली होंगी। महँगी, अच्छी ब्राण्डों की शराब पीने से कोई नहीं मरता! इसलिए शराबखोरी में ऐसे हादसों का कारण तलाशना सच्चाई से मुँह चुराना है। जब तक इतिहास की सबसे बड़ी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय बुराई, यानी पूँजीवाद का अन्त नहीं होता तब तक इससे उपजी तमाम बुराइयों का भी ख़ात्मा सम्भव नहीं हैं। इतिहास गवाह है कि जिन भी देशों में पूँजीवादी व्यवस्था का नाश हुआ, वहाँ शराबखोरी, वेश्यावृत्ति जैसी तमाम बुराइयाँ भी, जिनका वस्तुगत आधार पूँजीवाद में मौजूद होता है, कुछ सालों की अवधि में जड़मूल से समाप्त हो गईं। इसलिए ऐसे त्रासद हादसों का रोकने का एकमात्र रास्ता पूँजीवाद के अन्त में ही अन्तर्निहित है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2011

 

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।