मर्डोक मीडिया प्रकरण के आईने में भारतीय मीडिया
योगेश
पिछले दिनों फोन हैकिंग के चलते रूपर्ट मर्डोक के ब्रिटिश टैबलॅायड अखबार ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ का बन्द होना दुनिया भर में काफी चर्चा में रहा। हमारे देश के अखबारों में ‘मीडिया मुगल का पतन’, ‘मर्डोक साम्राज्य का सूर्यास्त’ जैसे शीर्षक से छपी खबरों के साथ ही मीडिया के लिए सबक, आत्मावलोकन जैसी सलाह देते हुए कई लेख भी लिखे गये। रूपर्ट मर्डोक की पतनशीलता व हमारे देश की मीडिया और पूरी पूंजीवादी मीडिया पर अपना विश्लेषण प्रस्तुत करने से पहले हम इस प्रकरण की संक्षेप में बातचीत जरूरी समझते है। 168 वर्ष पुराना ब्रिटिश अखबार ‘न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड’ पिछले कुछ महीनों या सालों से नहीं बल्कि एक-डेढ दशक से फिल्मी सितारों, खिलाड़ियों, राजनेताओं और प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवन में ताक-झाँक के लिए फोन हैंकिग और ईमेल पढ़ने सहित निजी जासूसों के इस्तेमाल से लेकर पुलिस अफसरों को घूस देने जैसे तमाम गैरकानूनी हथकंडे इस्तेमाल कर रहा था। पत्रकारिता की आड़ में फोन हैकिंग लगभग कारोबार के स्तर पर पहुँच गया है जहाँ उसकी चपेट में ब्रिटिश राजपरिवार से लेकर इराक युद्ध में मारे सैनिकों के परिवारजन, व लंदन बम विस्फोट के पीड़ित तक नहीं बच सके।
सच यह है कि मर्डोक ने ‘जो बिकता हैं, वही चलता और छपता है’ के तर्क के साथ आक्रामक तरीके से सनसनीखेज, चटपटे, रसीले, परपीड़क रतिसुख देने वाले ‘स्कूप’ खोजने को आज टैबलायड पत्रकारिता की पहचान बना दिया है। इस मर्डोकी पत्रकारिता में पत्रकारिता के उसूलों, मूल्यों, आदर्शों और आचार संहिता से लेकर आम नियम कानूनों के लिए कोई जगह नहीं है। वहां सिर्फ टीआरपी और सर्कुलेशन की पूछ है जो अधिक से अधिक विज्ञापनदाताओं को खींच कर ला सकता है। आज मर्डोक की मुख्य कम्पनी ‘न्यूज कॉरपोरेशन मीडिया’ मीडिया और मनोरंजन उद्योग क्षेत्र में सालाना कारोबार के मामले में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कम्पनी है। और स्वयं मर्डोक दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में 117वें स्थान पर है। रूपर्ट मर्डोक के इस मीडिया साम्राज्य के बढ़ने का एक मुख्य कारण यह रहा कि उन्होंने समय-समय पर राजनेताओं के साथ अपवित्र गठबंधन भी किया। जैसे उनके अखबारों द्वारा मुक्त व्यापार और राज्य की सीमित भूमिका की वकालत से लेकर ‘आतंकवाद’ के खिलाफ बुश के युद्ध और इराक और अफगास्तिान पर हमले के पक्ष में जहरीला प्रचार अभियान चलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब भी सत्ता प्रतिष्ठान को नवउदारवादी अमीरपरस्त नीतियों से लेकर युद्ध के पक्ष में माहौल बनाने के लिए मर्डोक की जरूरत पड़ी, उनका मीडिया साम्राज्य सबसे आगे रहा। पूँजीवादी पत्रकारिता का प्रतीक बन चुके रूपर्ट मर्डोक की पतनशीलता से तमाम पन्ने भरे जा सकते हैं।
आइये अब हम इस प्रकरण के सन्दर्भ में भारतीय मीडिया का विश्लेषण करते है। पहली बात तो यह कि भारत में मौजूद पूंजीवादी व्यवस्था में मीडिया का चरित्र मर्डोक मीडिया से बहुत ज्यादा अलग हो ही नहीं सकता और न हैं। फोन हैंकिग और पेड न्यूज के मामले में ‘भारतीय मीडिया’ भी पीछे नहीं हैं। जहाँ पहले चुनावों में ‘पेड न्यूज’ की चर्चा गर्म रही वहीं कुछ समय बाद राडिया-टाटा टेप लीक से यह सच्चाई जगजाहिर हो गई कि प्रिण्ट मीडिया और इलेक्ट्रॅानिक मीडिया के जो दिग्गज राष्ट्रीय और सामाजिक सरोकारों का दम भरते है। और किसी भी तरह के दबाव-प्रभाव से ऊपर होने का दावा करते है वे पर्दे के पीछे किस तरह कॉरपोरेट-लाबिस्टों-दलालों के स्टेनोग्राफ़रों की तरह व्यवहार करते है।
हम पूँजी संचालित मीडिया विश्लेषण से पहले अमेरिका के प्रसिद्ध उपन्यासकार अप्टन सिंक्लेयर द्वारा पूंजीवादी पत्रकारिता की आलोचना को रखना चाहेंगे। अमेरिकी पूंजीपतियों के सन्दर्भ में अप्टन सिंक्लेयर का कहना था कि ‘‘राजनीति, पत्रकारिता तथा बड़े पूंजीपति हाथ में हाथ मिलाकर जनता तथा मजदूरों को लूटते तथा धोखा देते हैं।’’ सिंक्लेयर ने देखा कि जब तक जनता की आवाज पूंजीवादी प्रेस के सम्पादकों तथा समाचार लेखकों के हाथ में रहेगी उन्हे तथा उनके सामाजिक न्याय के आन्दोलन को निष्पक्ष साझेदारी प्राप्त नहीं होगी। प्रेस की आलोचना को प्रगतिवादी काल में आन्दोलनों के वृहत इतिहास के साथ जोड़ते हुए सिंक्लेयर ने सामाजिक अन्याय की उन सभी समस्याओं में मीडिया की केन्द्रीय भूमिका होने की तरफ इशारा किया जो नये पूंजीवाद की वृद्धि में सहायक हुई। सिंक्लेयर का कहना था कि देश जनमत से नियंत्रित होता है और जनमत ज्यादातर समाचार पत्रों से ही नियंत्रित होता है। हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर “यूगो मन्सटबर्ग ने 1911 में लिखा था ‘‘क्या यह जानना जरूरी नहीं है कि कौन समाचार पत्रों को संचालित करता है?’’ विज्ञापनकर्ताओं की शक्ति को देखते हुए सिंक्लेयर ने लिखा कि ‘‘यह प्रचार-प्रसार की व्यवस्था जो विज्ञापनों के बदले मिलती है सैद्धान्तिक रूप से एक बेईमानी है। लेकिन यह लाभ अर्जन के लिए किये जाने वाले समाचार प्रकाशन के व्यवसाय का अविभाज्य अंग है। वैध और अवैध इतने धीरे से एक-दूसरे में विलीन हो जाते है कि किसी भी ईमानदार संपादक के लिए यह बहुत मुश्किल हो जाता है कि वह कहां पर सीमा निर्धारित करे। व्यावसायिक पत्रकारिता की दिखावटी निष्पक्षता इसी तरीके से प्रत्यक्ष हो जाती है जब यह पूंजीवादी विरोधी सामाजिक आन्दोलनों का विवरण देते है। व्यावसायिक पत्रकारिता के अन्तर्गत व्यापार को समाज का एक सहज परिचारक, जबकि मजदूर को एक कम उदार (शुभचिन्तक) ताकत की तरह देखा जाता है।’’ लब्बेलुबाब यह कि पूंजी की ताकत से संचालित मीडिया का काम ही है-व्यवस्था के पक्ष में जनमत तैयार करना, बुर्जुआ सत्ता का राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करना यानी बुर्जुआ शासन के लिए जनता की ‘‘सहमति’’ हासिल करना। प्रकाशन किये जाने वाले तथ्यों का शासकवर्गीय नजरिये से प्रस्तुत विश्लेषण को जनमानस में स्थापित करना साथ ही सुधारमूलक दायरे के भीतर मीडिया व्यवस्था की बुराईयों-कमजोरियों को आलोचना का मंच बना कर शासक वर्ग की उपयोगी मदद करता है। और जनता के बीच तटस्थता-वस्तुपरकता का भ्रम भी बनाये रखता हैं। इसे ‘लोकतंत्र’ का चौथा खम्बा यूँ ही नहीं कहा जाता हैं। आज मीडिया बुर्जुआ वर्ग के वैचारिक-राजनीतिक वर्चस्व का साधन होने के साथ ही अपने आप में एक व्यवसाय है जिसमें पूंजी लगाकर कारॅपोरेट घराने प्रबन्धकों व शीर्ष बुद्धिजीवियों को अच्छी सुविधाएं (निचोड़े गये अधिशेष में से हिस्सा) देकर उनकी मदद से नीचे के कर्मचारियों मजदूरों के मानसिक-शारीरिक श्रम के दोहन का काम करता है। इसके अतिरिक्त मीडिया की तीसरी भूमिका होती है कम्पनियों और उनके उत्पादित मालों का प्रचार करने की। इसके बिना पूंजीवादी बाजार चल ही नहीं सकता। बुर्जुआ मीडिया तीनों काम करता है। पहला बुर्जुआ शासन और सामाजिक ढांचे के पक्ष में जनमानस तैयार करना, दूसरा एक उद्योग के रूप में मुनाफा कमाना और तीसरा बाजार तन्त्र की मशीनरी में उत्पादन का प्रचार करके बिक्री बढ़ाने के नाते अहम भूमिका निभाना। जिस मीडिया जगत में मालिकों की कुल आमदनी का 80 से 100 प्रतिशत विज्ञापनों से आता है। और जहाँ सभी समाचार पत्र, चैनलों के मालिक कॉरपोरेट घराने हों वहाँ पत्रकारों की स्वतन्त्रता की बात सोचना ही बेमानी है। आलोचना की पूंजीवादी जनवादी स्वतन्त्रता वहीं तक है जहाँ तक व्यवस्था की वैधता पर सवाल न खड़े हों …………-और बुराईयों कमजोरियों को सुधारने में मदद मिलती रहे। कार्ल मार्क्स ने बहुत पहले ही कहा था ‘‘कि पत्र-पत्रिकाओं के व्यवसाय की स्वतन्त्रता एक विभ्रम है। उनकी एकमात्र स्वतन्त्रता व्यवसाय न होने की स्वतन्त्रता ही हो सकती है।’’ इसी सन्दर्भ में लेनिन का स्पष्ट कहना था ‘‘कि पूंजीपतियों के पैसे से चलने वाले अखबार पूँजी की ही सेवा कर सकते हैं’’। जो आज की मीडिया में साफ दिख रहा है उपरोक्त मीडिया का यह विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए हम पूँजीवादी व्यवस्था में भी जनसरोकार से जुड़े मीडिया को खड़ा करने की संभावनाओं को खारिज नहीं कर रहे है बल्कि मुनाफे पर टिके लूट के इस तंत्र से लड़ने के लिए एक वैकल्पिक मीडिया खड़ा करने की जरूरत आज कहीं ज्यादा है। और हमें यह भी नहीं भूलना होगा कि पत्रकारिता के क्षेत्र में हमारे देश का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। आजादी की लड़ाई में राधामोहन गोकुल, राहुल सांकृत्यायन, प्रेमचन्द ,गणेशशंकर विद्यार्थी और शहीदे आजम भगतसिंह जैसे लोगों ने अपनी लेखनी से समाज को आगे ले जाने का काम किया। आज के समय में भी पूंजी की ताकत से लैस होती मीडिया के बरक्स जन संसाधनों के बूते एक जनपक्षधर वैकल्पिक मीडिया खड़ा करना किसी भी व्यवस्था परिवर्तन के आन्दोलन का जरूरी कार्यभार है। इक्कीसवीं सदी में तो मीडिया की पहुँच और प्रभाव और भी अधिक बढ़ गया है। ऐसे में एक क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करना इंसाफपंसद लेखकों-पत्रकारों के लिए जरूरी कार्यभार है।
हमारे देश में निकलने वाल समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों के मालिक
संस्थान का नाम | मालिक |
हिन्दुस्तान टाइम्स | बिड़ला परिवार |
टाइम्स ऑफ इण्डिया | साहू जैन परिवार |
दैनिक जागरण | जागरण प्रकाशन लि- |
अमर उजाला | अमर उजाला ग्रुप |
राष्ट्रीय सहारा | सुब्रत राय (सहारा परिवार) |
जनसत्ता | रामनाथ गोयनका |
एन-डी-टी-वी | प्रणय राय एण्ड आईबीसी कॉरपोरेशन |
जी न्यूज | सुभाष चन्द्रा (जी न्यूज लि-) |
आज तक | इडिया टुडे ग्रुप |
स्टार न्यूज | मर्डोक एण्ड स्टार न्यूज कॉरपोरेशन |
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