परिवहन समस्या और पूंजीवादी व्यवस्था

अंकित, दिल्ली

transport 3सन् 1990 से नवउदारीकरण निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद शहरों की आबादी तेजी से बढ़ी है। ये वृद्धि इन उदारीकरण व निजीकरण की नीतियों का परिणाम है दूसरे शब्दों में यह भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी जरूरत है। इसके साथ ही रोजगार के साधन शहरों में अधिक संकेन्द्रित होते हैं। पूंजीवाद की मुनाफा-केन्द्रित जनविमुख नीतियों से नौजवानों एवं मजदूरों की बड़ी संख्या गांवों से शहरों की तरफ रोजगार की आस में पलायन को विवश होती है। श्रम के अधिशेष को तेजी से निचोड़ने की होड़ से गांवों और शहरों का अन्तर पैदा होता है; तेजी से शहरों की आबादी बढ़ती है। ‘विकास’ के पूंजीवादी माडल में शहरीकरण इस व्यवस्था का असाध्य रोग बन जाता है।

transport 2पूंजीवादी शोषण एक शहर में दो तरह के शहरों को जन्म देता है। एक तरफ ऊँची इमारतें, मॉल, मल्टीप्लेक्स व साफ-सुथरी चमचमाती सड़के होती हैं। जिन्दगी को सुविधापूर्ण बनाने के सारे साधन मौजूद रहते है। तो दूसरी तरफ मेहनतकश व निम्नमध्यवर्गीय आबादी का दूसरा शहर होता है जो पूरी आबादी का 80-90 प्रतिशत हिस्सा होता है। इन गरीब इलाकों में पीने का पानी, स्वास्थ्य सुविधाओं, अस्पताल व स्कूल की व्यवस्था या तो होती हीं नहीं अथवा बहुत ही लचर व अपर्याप्त होती है। इन इलाकों में खुली नालियाँ यहाँ वहाँ जमा गन्दा पानी, टूटी सड़के व गलियाँ आम प्रवृत्ति है। इन गरीब बस्तियों की आबादी काम पर या तो पैदल जाती है अथवा साइकिल अथवा सार्वजनिक परिवहन के साधनों (बस या लोकल ट्रेन) का इस्तेमाल करती है। अब जब हम सड़कों पर आते है तो पाते हैं कि यह पूरी तरह से कारों तथा निजी वाहनों से पटी हुई होती हैं। साथ ही बैंकों और वाहन कम्पनियों द्वारा कार लोन एवं सस्ती कारों के जरिए कारों को जबरदस्ती लोगों के घर तक पहुँचाने की नीतियां बनाई जा रही हैं। टाटा-नैनो जैसी कारें इन्हीं नीतियों का हिस्सा हैं। 1994-2007 तक सार्वजनिक परिवहन की हिस्सेदारी में 69 प्रतिशत की गिरावट आई हैं। यह हाल भारत के लगभग सभी शहरों का है जहाँ निजी वाहनों की संख्या 80.90 प्रतिशत है वहीं सार्वजनिक वाहन औसतन 10.12 प्रतिशत ही हैं। जो सड़क व अन्य साधन इस देश की 80 प्रतिशत जनता बनाती है उसका 20 प्रतिशत इस्तेमाल भी वह नहीं कर पाती। यह किसी भी शहर के सड़क व परिवहन व्यवस्था पर एक नजर डालकर समझा जा सकता है।

transport 1सार्वजनिक परिवहन की यह हालत अकारण ही नहीं हैं। इसके पीछे वाहन निर्माता कम्पनियों एवं उनकी सहयोगी कम्पनियों को फायदा पहँचाने वाली नीतियां जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ दशकों में निजी वाहनों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। वाहनों की संख्या में यह वृद्धि आम गरीब व मेहनतकश जनता की वाहनों तक पहुँच की निशानी नहीं है बल्कि भूमण्डलीकरण व निजीकरण की नीतियों के बाद फैलते ओटोमोबाइल उद्योग व मजदूरों के श्रम की लूट से उभरे नवधनाढ्यवर्ग के कार प्रेम का नतीजा है। उल्टे पिछले दो दशकों में सार्वजनिक परिवहन की प्रतिशतता कम हुई है। गौर करें तो जहाँ भारत विश्व में सबसे ज्याद बसें बनाने के क्रम में दूसरे नम्बर पर आता है, विश्व की 16 प्रतिशत बसें भारत में ही बनती हैं वहीं विभिन्न शहरों में बस-उपयोग अनुपात मात्र 0.4 से 6 बसें प्रति 1000 व्यक्ति ही हैं। बड़ी भारी आबादी जर्जर बसों में भेड़-बकरियों की तरह  ठूंसकर सुबह शाम सफर करती है। गौरतलब है कि ट्रैफिक जाम की अफरतफरी से सारे वर्ग के लोग परेशान होने का दाव करते है। लेकिन सड़क जाम में फँसी एक तरफ वह आबादी होती है जो अपने आप को जिन्दा रखने के जद्दोजहद में साईकिल, टेम्पों व खटारा बसों में ठूँसी हुई होती है तो दूसरी तरफ सड़क का 80 प्रतिशत हिस्सा खाए-अघाए वर्ग के निजी वाहनों की होती है जो अपनी एअरकण्डीशन कारों में बैठा शहरी मजदूरों की भीड़ को कोसता रहता है। ‘युमना एक्सप्रेस वे’ के बारे में कहा जा रहा है कि इसके बनने के बाद आगरा से दिल्ली पहुँचने में 90 मिनट की बचत होगी। ऐसा ही तर्क गंगा एक्सप्रेस वे के लिए दिया जा रहा है। लेकिन भारी टोल टैक्स के कारण इन पर तो मुख्यतः अमीरों की कारें, डीलक्स, एसी बसें हीं चलेंगी। क्या देश के मुट्ठीभर अमीरों के ऐशोआराम के लिए उन्हें जल्दी पहुँचाने के लिए इतने बड़े पैमाने पर कृषिभूमि को नष्ट करना, किसानों को बेदखल करना, करोड़ों रुपये खर्च करना जरूरी है? पिछले कुछ सालों में देश में राजमार्गों के ताबड़तोड़ निर्माण और विस्तार का एक पागलपन चल रहा है, जो कि इसका वर्ग चरित्र हमारे सामने रख देता है। अमीरों और साधारण लोगों में तेजी से बढ़ता अलगाव और बढ़ती खाई उदारीकरण के इस जमाने की खासियत है। इन एक्सप्रेस वे पर पैदल, साईकिल, बैलगाड़ी तो चल भी नहीं सकती हैं। ऐसे मार्ग जमीन से काफी ऊपर उठे रहते हैं, तथा उनके दोनों तरफ दीवारें बना दी जाती हैं, ताकि कोई स्थानीय गांववासी या वाहन उनमें घुसकर अमीरों की यात्रा में दखल न डाले। इन राजमार्गों से अक्सर गांवों के बीच आवागमन मुश्किल हो जाता है। किसानों को अपने घर से खेत तक बैलों या ट्रैक्टर से जाने के लिए काफी घूमकर जाना पड़ता है। देश में जहाँ भी ऐसे मार्ग बन रहे है या इनके लिए बाईपास बन रहे हैं, स्थानीय लोगों के लिए संकट पैदा हो रहा है। आज विकास के नाम पर देश के कई हिस्सों में आधुनिक यातायात परियोजनाओं के लिए किसानों, मजदूरों, गांववासियों , झुग्गीवासियों और पटरी-खोमचेवालो को जड़ से ही  उखाड़ा जा रहा है। उनकी रोजी-रोटी छीन उन्हें बेरोजगारों की जमात में शामिल किया जा रहा है।

इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है (राजमार्ग, एक्सप्रेस वे, फ्लाईओवर पुल, पार्किग स्थल, हवाई अड्डे,बंदरगाह, मेट्रो, दूरसंचार नेटवर्क आदि का निर्माण) वह देश की बहुसंख्य जनता  की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बजाय अमीरों की सुविधा और कम्पनियों के मुनाफे के लिए ही हो रहा है। दिल्ली में इन्दिरा गांधी हवाई अड्डे पर नया टर्मिनल बनाने के लिए सरकार ने 10,000 करोड़ खर्च किए। राष्ट्रमण्डल खेलों के बहाने दिल्ली में सड़कों, फ्लाईओवर, पार्किग स्थल के निर्माण की बाढ आ गई है जिन पर कम से कम 30,000 करोड़ रुपया खर्च हुआ। दिल्ली मेट्रो के बाद देश के हर महानगर में जरूरत हो या न हो, मेट्रो रेल की योजना बननी शुरू हो गई हैं जबकि दिल्ली मेट्रो रेल अत्यधिक खर्चीली और उन्नत तकनीक का नमूना होने के बावजूद भी सार्वजनिक परिवाहन समस्या का हल नहीं बन पा रहीं हैं।

भारत के इन मार्गों के निर्माण में जापान की दिलचस्पी व भाीगदारी को भी समझा जा सकता है। भारत के वाहन उद्योग में जापान की अनेक कम्पनियां मौजूद हैं। अब जितने मार्ग बनेगें उतनी ही ज्याद इसकी बिक्री बढ़ेगी और कम्पनियां मुनाफा बटोरेंगी । वर्ष 2010-11 के दौरान भारतीय वाहन उद्योग की बिक्री में 26.17 प्रतिशत की वृद्धि हुई हैं। आटो मोबइल कम्पनियों का मानना हैं चालू वित्त वर्ष में वाहन बिक्री में वृद्धि की रफ़्तार 12-15 प्रतिशत तक रहेगी। प्रति इकाई देखा जाए तो 2010-11 में मोटर वाहनों की कुल बिक्री 1,55,13,510 इकाई रही जबकि 2009-10 वाहनों की कुल बिक्री 1,22,95,397 इकाई रही हैं। दूसरा विश्वव्यापी ईधन कम्पनियों का मुनाफा भी इस सेक्टर के बूम के साथ जुड़ा हुआ हैं ईधन कम्पनियों का जोर भी वाहनों की बिक्री बढ़ने पर होता हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा ईधन की खपत हो। और पिछले दशक में ईधन के दामों में वृद्धि का एक बड़ा कारण ये भी हैं। इस प्रकार देखा जा सकता है कि भारत का यह ‘विकास’ भी भारत की आम जनता के लिए न होकर इन वाहन कम्पनियों और इनके सहयोगियों की सेवा में समर्पित हैं।

ये सारी तस्वीर साफ करती हैं कि यातायात समस्या के लिए जिम्मेदार ये पूरी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था हैं जिसके केन्द्र में इंसान नहीं मुनाफा है। यातायात समस्या अपने अन्दर दो प्रकार के सम्बन्धों को समाहित करती है। पहला रिश्ता होता है यात्री और यात्रा के साधनों के बीच जबकि दूसरा रिश्ता यात्री और यात्रा के बीच। यात्रा के साधन यानी सड़कें, मार्ग, गलियाँ निजी/समाजिक वाहन व्यवस्था यातायात तकनीक आदि। पूंजीपतियों की दिलचस्पी इसी में होती है। चूंकि यात्रा के साधनों को विकसित करने में श्रम की जरूरत होती है, जितना ज्यादा श्रम होगा उतनी ही श्रम की लूट संभव होगी और वाहन कम्पनी, निर्माण कम्पनी का मुनाफा भी उतना ही ज्यादा होगा। ऐसे में ये सभी कम्पनियां ताबड़तोड निर्माण, सड़क निर्माण, फ्लाईओवर निर्माण ,चौड़ीकरण, उन्नत मेट्रो आदि का विकल्प ही बताती हैं। यह बात कभी नहीं होती कि इतने ताबडतोड़ निर्माण में मजदूरों की जिन्दगी दांव पर लगा कर, श्रम की लूट मचा कर, इतना महँगा विकल्प आम जनता के कितने काम आ रहा है। जबकि इस खर्चीले ‘विकास’ की कीमत चुकानी पड़ती हैं मजदूरों-किसानों को। साफ है पूंजीवादी ‘विकास’ की परिभाषा मुनाफा-केन्द्रित होती हैं और पूंजीपतियों के विकास का अर्थ है केवल आटोमोबइल सेक्टर में बूम तथा सड़क का जाल बिछाने तक ही सीमित हैं इसका आम जनता पर क्या प्रभाव  पड़ता हैं ये नजरअन्दाज कर दिया जाता हैं।

दूसरा अन्तरविरोध यात्री और कार्यस्थल के बीच होता है। यात्री तो यही चाहता है यात्रा छोटी हो और सुविधाजनक हो। लेकिन पूंजीवाद नैसर्गिक रूप से अतार्किक व अनियन्त्रित व्यवस्था हैं जहां इंसानों की नहीं मशीनों की जगह होती हैं। ज़ाहिरा तौर पर हमें यातायात समस्या के समाधान के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण करना होगा जहां इंसान केन्द्र में हो। जिसमें समाधान के तौर मेहनतकश आबादी को कार्यस्थल के करीब ही आवासीय परिसर मुहैया हो। तथा शहरों और गांवों में समान विकास तथा समान रोजगार के अवसर हो ताकि गांव से आर्थिक पलायन (मजबूरन पलायन) न हो। लेकिन इस तरह की कोशिश इस व्यवस्था के हितों में नहीं होती हैं। इसलिए इस तरह का कोई भी विकास इस व्यवस्था में सम्भव नहीं होता है। विपरीत इसके लगातार शहरीकरण, जनसंख्या घनत्व की वृद्धि, दुर्घटनाएं,अमानवीय परिस्थितियों का निर्माण होता रहता है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2011

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