जन्मतिथि (9 अप्रैल) और पूण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर
भारतीय भौतिकवादी परम्परा के आधुनिक चिन्तक और ‘सांस्कृतिक सेनापति’ राहुल सांकृत्यायन

कठिनाइयों से रीता जीवनRahul_Sankrityayan_1893-1963
मेरे लिए नहीं
नहीं
मेरे तफ़ूानी मन को स्वीकार नहीं
मुझे तो चाहिये महान ऊँचा लक्ष्य
और उसके लिए ताउम्र
संघर्षों का सिलसिला।
-मार्क्स

महापण्डित-महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन के विराट व्यक्तित्व पर ये पंक्तियाँ बिल्कुल सटीक बैठती है। उनकी जीवन यात्रा भी अविराम संघर्षशील लेखक और महान ऊँचे लक्ष्य के लिए पथान्वेषक की रही है। वे यूँ ही कलमघिस्सू बनकर नहीं जिए, बल्कि आजीवन यथास्थितिवादी, ठहरावग्रस्त, रूढ़िवादी सामाजिक ढाँचे को ध्वस्त करने के लिए भरपूर प्रहार करते रहे। या यूँ कहें कि इतिहास की प्रगति को रोकने वाली नकारात्मक परम्पराओं पर प्रहार करना। रूढ़ियों की धज्जियाँ उड़ा देना। ये ही राहुल के चिन्तन का केन्द्रबिन्दु रहे हैं।

आगे बढ़ने से पहले हम इस सवाल पर बात करना जरूरी समझते हैं कि राहुल को स्मरण करने के मायने क्या हैं? हम क्यों याद कर रहे हैं? क्या इसलिए कि वे 26 भाषाओं के ज्ञाता थे? या ज्ञान की तमाम शाखाओं पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी याकि वे जननेता, पुरातत्ववेत्ता आदि-आदि थे। इसलिये? नहीं, हम महज इसलिये नहीं याद कर रहे हैं। यह कोई बड़ा कारण नहीं हो सकता। वैसे भी हमारे देश में ‘विद्वतजनों’ की कमी नहीं रही है। बस एक चीज है जो उन्हें महामानव का दर्जा देती है। तमाम ‘विद्वतजनों’ से अलहिदा एक पहचान देती है। वह है जीवन व व्यवहार की समरूपता। सिद्धान्‍त एवं व्यवहार की कसौटी पर लगातार स्वयं को परखते रहने वाले शख्स की। यही चीज़ राहुल को आधुनिक भारत का संग्रामी लेखक बनाती है। नायकत्व प्रदान करती है। उनका जीवन प्रवाह इस बात का गवाह है।

राहुल सांकृत्यायन का जन्म 9 अप्रैल 1893 को हुआ था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के छोटे से गाँव पन्दहा में केदारनाथ पाण्डेय के रूप में जन्मे राहुल ने बचपन में ही उस ठहरे हुए, रूढ़ियों में जकड़े समाज से विद्रोह किया और घर से भाग गये। इधर-उधर घूमने के बाद वह साधुओं की एक मण्डली में शामिल हो गये और फ़िर 13 साल की उम्र में एक मठ के महन्त बन गये। मठ में रहते हुए उन्होंने हिन्दू धर्म के ढोंग-पाखण्ड और विकृतियों को नज़दीक से देखा और उसे छोड़कर आर्यसमाजी हो गये।

‘‘ये धार्मिक महात्माओं के मठ और आश्रम ढोंग के प्रचार के लिए खुली पाठशालायें हैं, और धर्म प्रचार क्या पूरे सौ सैकड़े नफ़े का रोजगार है। अधिकांश लोग इसमें अपने व्यवसाय के ख्याल से जुटे हुए हैं।’’

एक युवा आर्यसमाजी साधु के रूप में उन्होंने देश भर का भ्रमण किया और समाज में रूढ़ियों के ख़िलाफ़ अलख जगाते घूमते रहे। इसी दौरान क्रान्तिकारियों और कम्युनिस्टों से भी वह मिलते रहे और आजादी की लड़ाई से उनका जुड़ाव हुआ। भारतीय समाज के सदियों पुराने गतिरोध, अन्धविश्वास, कूपमण्डूकता और जात-पाँत जैसी सामाजिक बुराइयों को लेकर उनके विद्रोही मन में बेचैनी बढ़ती रही और उन्हें लगने लगा कि आर्यसमाज इन सवालों का हल नहीं हो सकता।

ऊँच-नीच के बन्धनों और रूढ़ियों से मुक्त दर्शन की खोज उन्हें बौद्ध धर्म और दर्शन की ओर ले गयी और वह बौद्ध भिक्षु बन गये। तभी उन्होंने गौतम बुद्ध के बेटे के नाम पर अपना नाम राहुल रखा। बौद्ध भिक्षु के रूप उन्होंने कई देशों की यात्राएँ कीं और तिब्बत के मठों में दबे पड़े सैंकड़ों दुर्लभ बौद्ध ग्रन्थों को 22 खच्चरों पर लादकर भारत लायें, और पहली बार दुनिया को उनके बारे में मालूम पड़ा। बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म की पोंगापंथी, छुआ-छूत, भेदभाव और घटियाई से काफ़ी हद तक मुक्त और भौतिकवादी दर्शन पर आधारित था, लेकिन राहुल के दिमाग में लगातार उठते सवालों के जवाब उसके पास भी नहीं थे। समानता पर टिके, अन्याय, शोषण और हर किस्म के भेदभाव से मुक्त समाज बनाने के रास्ते की खोज उन्हें मार्क्सवादी विचारधारा तक ले गयी। उन्होंने गेरुआ चोगा उतारकर मज़दूरों-किसानों के लिए लड़ने और उनके दिमागों पर कसी बेड़ियों को तोड़ डालने को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। उनका आप्त वाक्य था – भागो नहीं (दुनिया को) बदलो। उनके लिए मानव जाति का ज्ञान केवल विश्व को जानने के लिए नहीं बल्कि उसे बदलने के लिए है। बदलाव की यही छटपटाहट ही राहुल सांकृत्यायन के सतत गतिमान जीवन की पहचान है।

राहुल का कहना था कि ‘रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं है।’ हमें स्वयं को सामाजिक विकृतियों के खिलाफ़ लड़ने के लिए प्रस्तुत करना होगा। ‘आँख मूँदकर हमें समय की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये। हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फ़ेंकने के लिए तैयार होना चाहिये। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा जरूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बांये दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रुढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना चाहिये। क्रान्ति प्रचण्ड आग हैं, वह गाँव के एक झोंपड़े को जलाकर चली नहीं जायेगी वह उसके कच्चे-पक्के सभी घरों को जलाकर राख कर देगी और हमें नये सिरे से नये महल बनाने के लिए नींव डालनी पड़ेगी।’ यह उद्घोष वे किसी उपदेशक की भाँति नहीं बल्कि हजारों-हजार बन्धनों में जकड़ी बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी व व्यापक मानव समाज में परिवर्तनकारी विचारों को ले जाने वाले क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी के रूप में कर रहे थे। जो आम जनता में अटूट आस्था रखता हो, उनके जीवन को बेहद नज़दीक से समझने के साथ-साथ उन्हें बेइन्तहा प्यार करता हो। उनकी राहों को मुक्ति स्वप्नों से आलोकित कर रहा हो।

उनका मानना था कि जनता ही इतिहास निर्मात्री है और उसे जगाये बगैर कोई भी समाज मुक्ति नहीं पा सकता। आम जनमानस को सामाजिक बदलाव के विज्ञान से परिचित कराने के लिए उन्होंने आम लोगों की बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल किया। बेहद सुगम व सरल भाषा में उन्होंने भागो नहीं (दुनिया को) बदलो, दिमागी गुलामी, तुम्हारी क्षय, साम्यवाद ही क्यों आदि छोटी-छोटी पुस्तकाएँ लिखकर लोगों को जगाने का काम किया। उनका मानना था कि ‘साहित्यकार जनता का जबर्दस्त साथी, साथ ही वह उसका अगुआ भी है। वह सिपाही भी है और सिपहसलार भी।’

चीनी साहित्यकार लू-शुन को चीन का सांस्कृतिक सेनापति कहा जाता है। जिन्होंने चीनी जनता की मानसिक-वैचारिक-सामाजिक जरूरत को समझा और लिखा। चीन की बेहद पिछड़ी, रूढ़िवादी जनता में प्रगति विरोधी परम्परा के खिलाफ़ लड़ने का माद्दा पैदा किया। पुरानी कथाओं को नये रूप में पेश करके लू-शुन ने जिस तरह आम जन की सृजनात्मकता को निर्बन्ध किया उसे, सांस्कृतिक औजार सौंपा, लगभग वही काम भारत में राहुल ने भी किया। वे वर्तमान सामाजिक रूढ़ियों की तलाश में अतीत तक की यात्रा करते हैं। उसकी जड़ें तलाशते हैं। कूपमण्डूकता, अन्धविश्वास की जांच-पड़ताल वे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से करते हुए उसकी पुर्नव्याख्या करते हैं। फ़लतः हम ऐसी सामाजिक दृष्टि से लैस होते हैं जो हमें अतीत की नहीं बल्कि भविष्योन्मुखी बनाती है। इसी ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण के चलते ही राहुल का लेखन समाज की महज व्याख्या ही नहीं बदलने के लिए भी प्रेरित करता है। और वे आधुनिक भारत के भौतिकवादी चिन्तक राधामोहन गोकुल जी, शहीदे-आज़म भगत सिंह की अग्रवर्ती कड़ी के रुप में सामने आते हैं। यही नहीं, हम राहुल की गणना अगर यूरोपीय पुर्नजागरण-प्रबोधानकालीन क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी– दिदेरो, वॉल्तेयर से करे तो कोई अतिरेक नहीं होगा। भारत का ‘सांस्कृतिक सेनापति’ जो आजीवन जन-जीवन की भट्ठी में बेहतर समाज बनाने के औजार गढ़ता रहा। जनता के संघर्षों का मोर्चा हो या सामन्तों-जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ़ किसानों की लड़ाई का मोर्चा हो, वह हमेशा अगली कतार में रहा। यातनाएँ झेलीं। जेल गए। जमींदारों के गुर्गों ने उनके ऊपर कातिलाना हमला किया लेकिन आजादी, बराबरी और इंसानी स्वाभिमान के लिए न तो कभी संघर्ष के पीछे हटे न ही कलम रुकी।

राहुल का जीवन अपने आप में उन कर्मविरत ‘विद्वतजनों’ के लिए आईना है जो ज़िन्दगी भर वातानुकूलित प्रासादों में बैठकर श्रमरत जनों पर मोटे-मोटे पोथन्ने रचने में लगे रहते हैं। जो ‘जनसंगऊष्मा’ से कोसों दूर हैं। आधुनिक नहीं ‘उत्तर–आधुनिकों’ की जमात में बैठकर ‘दुनिया के अन्त’ की भविष्यवाणी पर गलचौर करते रहते हैं। इन मौके की नज़ाकत भांपकर लिखने वाले ‘लिक्खाड़ों’ से, शब्दों की बाजीगरी करते ‘कलमकारों’ से कोई पूछे कि आखिर वे क्यों लिखते है? किसके लिए लिखते हैं? क्या उनके लेखन का सामाजिक उद्देश्य भी है? या यूँ ही महज शगल या मनबहलाव के लिए कागज पर रोशनाई फ़ेरने में दत्तचित्त हैं। वे दौड़ते तो हैं लेकिन वजीफ़ा या पुरस्कार पाने के पीछे हाफ़ंते-हाफ़ंते। ऐसे तिलचट्टे व झींगुर भी यदा-कदा, राहुल सांकृत्यायन व मुक्तिबोध जैसे लेखकों का नाम बड़े आदरभाव से लेते दीख पड़ते हैं। लेकिन जीवन में वे उनके पासंग भी नहीं बैठते।

आज के समय में राहुल जैसे लेखकों का स्मरण और उनके विचारों को युवाओं तक ले जाना बेहद जरूरी है। यह अपनी उस परम्परा का  पुनःस्मरण भी है जिसकी हम विरासत हैं। जिसे लगातार धुंधला करने की साजिशें चल रही हैं। 21वीं सदी में जब हम अपने देश-समाज पर निगाह डालते हैं तो आज भी वो अंधेरे कोने काफ़ी बड़े पैमाने पर दिख जाते हैं जिनके खिलाफ़ सत्त संघर्ष ही राहुल की पहचान थी। हमारा समाज गहरी निराशा, गतिरोध और जड़ता के अंधेरे गर्त में पड़ा हुआ है। पुरातनपंथी मूल्य-मान्यताओं और रूढ़ियों के कीड़े बिलबिला रहे हैं। फ़ासीवादी ताकतें तमाम सड़े-गले तौर तरीकों को जनता पर थोपकर इतिहास के रथ को पीछे धकेलना चाहती हैं ताकि मुट्ठी भर शासक वर्ग व्यापक मेहनतकश आबादी को सरेआम लूट सके। ऐसे विपरीतम समय में हमें राहुल सरीखे जनता के लेखकों से सीखने की जरूरत है। जिससे हम आज की चुनौतियों का सामना कर सकें।

हम आह्वान के पाठकों के लिए राहुल के जन्मतिथि (9 अप्रैल) और पूण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर उनका महत्वपूर्ण लेख ‘धर्म और ईश्वर’ प्रस्तुत कर रहे हैं। आज तमाम तरीके के धर्म के कारोबारियों और ढपोरशंखियों का बोलबाला है। ऐसे में प्रस्तुत लेख आज भी प्रासंगिक है।

धर्म और ईश्वर

राहुल सांकृत्यायन

धर्म या मज़हब का असली रूप क्या है? मनुष्य-जाति के शैशव की मानसिक दुर्बलताओं और उससे उत्पन्न मिथ्या विश्वासों का समूह ही धर्म है। यदि उसमें और भी कुछ है, तो वह है पुरोहितों और सत्ताधारियों के धोखे-फ़रेब, जिनसे वह अपनी भेड़ों को अपने गल्ले से बाहर जाने देना नहीं चाहते। मनुष्य के मानसिक विकास के साथ-साथ यद्यपि कितने ही अंशों में धर्म ने भी परिवर्तन किया है, कितने ही नाम भी उसने बदले हैं, तो भी उनसे उसके आन्तरिक रूप में परिवर्तन नहीं हुआ है। वह आज भी वैसा ही हजारों मूढ़ विश्वासों का पोषक और मनुष्य की मानसिक दासताओं का समर्थक है, जैसा कि पाँच हजार वर्ष पूर्व था। सूत्र वही है, सिर्फ़ भाष्य बदलते गये हैं। यहीं भूत-प्रेत, ओझा-गुणी है, जिनको देखकर शिक्षित वर्ग नाक-भौं सिकोड़ता है-कुछ गौणों की बात छोड़ दीजिए, वैसे कदरदान शिक्षितों में आजकल दुर्लभ है-लेकिन उन्हीं बातों को यदि नये रूप में थ्योसोफी के से लच्छेदार शब्दों तथा सांइस की पुट के साथ जब पेश किया जाता है, तो बड़े-बड़े दिमागवाले, अकल बेच खाने के लिए तैयार हो जाते हैं। यदि आप मज़हबों के इतिहास, उनके भूत और वर्तमान नेताओं की जीवनियों को ध्यानपूर्वक, नजदीक से पढ़ें, तो मालूम होगा कि मज़हब में पहले नम्बर पर पक्के धूर्त या पागल ही पहुँच सकते हैं। भारत में ऐसे सिद्ध और पहुँचे हुए महापुरुष बहुत से हैं और हुए हैं, जिनके आचरण को भीतर से देखने पर वह रसपुटिन के छोटे-बड़े संस्करण सिद्ध होंगे। एक पवित्र नगर में कुछ समय पूर्व एक परम त्यागी महात्मा रहते थे। उनके जीते जी ही लोग उन्हें सिद्ध जीवन्मुक्त मानकर पूजा करते थे, पीछे की तो बात ही क्या? स्थानीय जानकर लोग उनकी रखेली के दो पुत्रों की ओर अंगुली उठाकर कहते थे- महात्मा का कितना ही चढ़ावा अपनी इन सन्तानों को धनी बनाने में लगा। एक दूसरे पवित्र नगर के एक सिद्ध महात्मा थे, जिनके मरे बहुत समय नहीं गुज़रा है और उन्हें उनके भक्त भगवान के अवतार समझते थे। बाहर के कितने ही अन्धे भक्त उनकी विचित्र रहन-सहन, वेश-भूषा, आकार-प्रकार से प्रभावित हो गद्गद् हो जाते थे। लेकिन इस सिद्ध का भीतरी जीवन कैसा था? पहले वह जिस स्थान में रहते थे, वहाँ एक नौकरानी के साथ उनके अनुचित सम्बन्ध को देख, लोग मार-पीट करने के लिए उतारू हो गये, जिसके मारे वह भागकर अपने ही जैसे एक दूसरे सिद्ध पुरूष के स्थान में चले गए। व्यक्तिगत अनुभव से ऐसे पचासों उदाहरण बतलाए जा सकते हैं। इन उदाहरणों को देखकर मनुष्य की बुद्धि पर तरस आता है, उन धूर्तों के लिए तो नहीं, उनका तो मत ही है-‘रोटी खाइए घी शक्कर से, दुनिया ठगिए मक्कर से’। यदि किन्ही सिद्धों में इस धोखाधड़ी से कुछ अधिक है, तो वह है हेप्नोटिज़्म या त्रटक की कुछ मानसिक शक्तियाँ, जिनके बल पर वह और उनके अनुयायी हजारों झूठों का प्रचार करते हैं और भरसक यह भी कोशिश करते हैं कि विद्वान उनका वैज्ञानिक विश्लेषण न कर सकें।

धर्म और ईश्वर का प्रायः अटूट सम्बन्ध है। अच्छा , तो ईश्वर क्या है? यह भी मनुष्य के शैशव काल के भयभीत अन्तःकरण की सृष्टि का एक विकसित रूप है। मनुष्य वन्य अवस्था में, जबकि उसकी बुद्धि का विकास साधारण बच्चे के ही समान था-अंधेरे, अपरिचित स्थान और वस्तु से भय खाता था। बिजली, आग जैसे शक्तिशाली पदार्थ तो उसके लिए और भी भय का कारण होते थे, और उसने उनमें देवताओं की कल्पना की। उसके अपने समय के बली और वीर पुरुष भी मरकर धीरे-धीरे इस देव मण्डली में शामिल होते गए। हर एक जाति में ऐसे अनेक देव समुदाय थे, जिनके प्रभाव बड़प्पन के लिए उनकी आपस में प्रतिद्वन्द्विता रहती थी। स्वयं अपनी जाति के भीतर के देवताओं में भी बड़े-छोटे का ख्याल था। पीछे मानव समाज के सामन्तों और महासामन्तों को देख ‘कौन बड़ा’ ‘कौन बड़ा’ की तलाश ने संसार के निर्माता एक ईश्वर की सृष्टि की; और मानसिक विकास के साथ-साथ उसे कितने ही और भी उत्तम गुण प्रदान किए गए। यह हुई ईश्वर की उत्पत्ति। वस्तुतः ईश्वर मनुष्य का मानस पुत्र है।

हम इससे इनकार नहीं करते कि ईश्वर का अस्तित्व चाहे कल्पना ही के संसार में हो, तो भी अतीत काल में इस विचार के कितने ही लोगों को सन्तोष और सहारा मिला होगा। लेकिन साथ ही उसके कारण मनुष्य को यातनाएँ भी लाखों सहनी पड़ीं। एक ईश्वर मानने वाले धर्मों की अपेक्षा अनेक देवता मानने वाले धर्म हजार गुना उदार रहे हैं। उनके ईश्वरों की संख्या अपरिमित होने से वहाँ औरों का समावेश आसानी से हो सकता था। किन्तु एक ईश्वरवादी वैसा करके अपने अकेले ईश्वर की हस्ती को खतरे में नहीं डाल सकते थे। आप दुनिया के एक-ईश्वरवादी धर्मों के पिछले दो हजार वर्ष के इतिहास को उठाकर देख डालिए, मालूम होगा कि वह सभ्यता, कला, विद्या, विचार स्वातंत्र्य और स्वयं मनुष्य के प्राणों के भी सबसे बड़े शत्रु थे। उन्होंने हजारों बड़े-बड़े पुस्तकालय और करोड़ों पुस्तकें आग में डाल दी। सौन्दर्य और कोमल भावों के साकार रूप, कितने ही कलाकारों की सुन्दर मूर्तियों, चित्रों और इमारतों को नष्ट कर दिया। हजारों विद्या व्यसनियों और विद्वानों के जीवन को समाप्त कर, स्वतंत्र विचारों का गला घोंटा। मनुष्य की मानसिक प्रगति को कम से कम एक हजार वर्ष तक के लिए उन्होंने रोक ही रक्खा, बल्कि पहिले की प्राप्त सफ़लताओं के प्रभाव को बहुत कुछ नष्ट कर डाला। और करोड़ों निर्दोष नर–नारियों और बच्चों की हत्या की? यह तो उनके अपने धर्म प्रचार का एक प्रधान साधन थी। वे जिस-जिस देश में गए, आग और तलवार लेकर गए। पहले तो इनके फ़न्दे में फ़ँसी जातियाँ अफ़ीम के नशे में थीं, उन्हें इसका ख्याल ही नहीं हो रहा था कि उनकी संस्कृति की चिरसंचित जातीय निधि नष्ट की जा रही है। पीछे जब नशा टूटा तो देखा कि पूर्वजों की सभी उत्तम कृतियाँ नष्ट कर दी गईं। जर्मन जाति में ईसाइयों का एक-ईश्वरवाद तलवार के बल ही फ़ैलाया गया। उस समय पुराने धर्म के साथ-साथ जर्मन जाति का व्यक्तित्व भी मिटा देना आवश्यक समझा गया। उनकी लिपि को धत्ता बताया गया। उनके साहित्य को खोज-खोजकर जलाया गया। उनके मन्दिरों को ही बर्बाद नहीं किया गया, बल्कि यह सोचकर कि कहीं ये लोग अपने ओक वृक्षों की पूजा करके धर्मभ्रष्ट न हो जाएँ, लाखों विशाल ओकवृक्ष काट डाले गए। एक-ईश्वरवादियों के ऐसे कारनामें एशिया में ही नहीं, अमेरिका की माया और अजतक जैसी सभ्यताओं के संहार के कारण हुए। अपने नाम पर सैकड़ों वर्षों तक इस प्रकार के भयंकर अत्याचार करते, खून की नदी बहाते देख भी, यदि ईश्वर रोकने के लिए नहीं आया तो इससे बढ़कर उसके न होने का और दूसरा प्रमाण क्या चाहिए?

कहा जा सकता है, अब धर्म और ईश्वर उतने खतरनाक चीज नहीं है, किन्तु बात क्या वैसी है? क्या धर्म के विषवाले दाँत तोड़ दिए गए? कम-से-कम इस समय भी इसके मारे परेशान है। बराबर धर्मान्ध लोग खून–खराबा करते ही जा रहे हैं। आप कहेंगे, यह धर्म का दोष नहीं, यह तो प्रभुता और धन के लिए हो रहा है। यह बिल्कुल ठीक है। एकेश्वरवादियों के बड़े-बड़े युद्ध के भीतर भी प्रभुता और धन का लोभ ही काम कर रहा था। प्रभुता और धन के लोभ की, वस्तुतः वह उपज है भी; तो भी साधारण जनता के सामने उन्हें बड़े सौम्य और मोहक रूप में रखा जाता है। चाहे आप कितना ही परिष्कृत करना चाहें, शुद्ध से शुद्ध बना दें, धर्म पुराने का पूजक और भविष्य की प्रगति का विरोधी रहेगा ही। वह तो श्रद्धा और भक्ति के नाम पर हमारे गले में मुर्दा बाँधने का ही प्रयत्न करेगा। यह संसार जो प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है, और परिवर्तन भी ऐसा कि इसका अतीत हमेशा अतीत ही रहेगा, वर्तमान का रूप नहीं धारण कर सकेगा। ऐसी स्थिति होने पर स्थिरवादी धर्म हमारे कभी सहायक नहीं हो सकते। जगत की गति के साथ हमें भी सरपट दौड़ना चाहिए, किन्तु धर्म हमें खींचकर पीछे रखना चाहते हैं। क्या हमारे पिछड़ने से संसार चक्र हमारी प्रतीक्षा के लिए खड़ा हो जाएगा? सामाजिक विषमता के नाश, निकम्मी और अनपेक्षित सन्तान के निरोध, आर्थिक समस्याओं के नए हल-सभी बातों में तो यह मजहब प्राणपन से हमारा विरोध करते हैं; हमारी समस्याओं को और अधिक उलझाना और प्रगति विरोधियों का साथ देना ही एकमात्र इनका कर्त्तव्य रह गया है।

आप कहेंगे आप पिछली सदी की बात कर रहे हैं, जबकि बड़े-बड़े वैज्ञानिक प्रायः अधार्मिक होते थे; अब तक कितने ही चोटी के वैज्ञानिक सीधे रास्ते पर आ रहे हैं, और ईश्वर तथा धर्म के पोषक बन रहे हैं। हाँ, यदि भीतरी रहस्य न जानकर नाम पर जाएंगे, तो आपको जरूर ऐसा भ्रम होगा। किन्तु विज्ञान बेचारे का इसमें कोई दोष नहीं। आजकल तो सारा संसार, बिना अपवाद के, दो पक्षों में बँट गया है-एक ओर वे लोग हैं, जो व्यक्तियों के आर्थिक स्वार्थों को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं, अर्थात जो जाने या अनजाने, प्रकट या अप्रकट रूप से पूँजीवाद के पोषक हैं दूसरी ओर वे हैं, जो समाज का कल्याण चाहते हैं, और उसके लिए साम्यवाद का समर्थन करते हैं। पिछली सदी में भी ऐसे वैज्ञानिक रहे होंगे, जिन्हें व्यक्ति के आर्थिक स्वार्थों को अक्षुण्ण रखना अभीष्ट था; किन्तु तो भी वह धर्म के विरूद्ध अपनी स्पष्ट सम्मति दे सकते थे। कारण? उस समय साम्यवाद हवा की बात थी। उसकी सफ़लता का उन्हें विश्वास न था। किन्तु, अब साम्यवाद भूमि की ठोस चीज है। अब वह विकृत मस्तिष्कों की बलबलाहट नहीं रह गया। इसीलिए पूँजीवादी जहाँ साम्यवाद के खिलाफ़ दूसरे तरह-तरह के षड्यंत्र रच रहें हैं, वहाँ भय और प्रलोभन द्वारा कितने ही ढिलमिल-यकीन वैज्ञानिकों से भी अपने पक्ष में सम्मति लेते हैं। लेखक के इंग्लैण्ड में रहे समय एक प्रामाणिक पुरूष ने नोबल पुरस्कार प्राप्त एक वैज्ञानिक के बारे में कहा था-‘‘जानते हैं, अमुक सज्जन धर्म और मिथ्या विश्वास के प्रचार में इतनी सरगर्मी क्यों दिखाते हैं? इनका वैज्ञानिक दिमाग खत्म हो चुका है। जिस विश्वविद्यालय में यह अध्यापक है, यह एक प्रकार से अमुक करोड़पति के परिवार की निजी चीज सी है और यह वैज्ञानिक महाशय किसी रूप में कृतज्ञता प्रकट करना अपना कर्त्तव्य समझते हैं।” हम नहीं कहते कि धर्म का पक्ष लेने वाले सभी वैज्ञानिक इसी श्रेणी में के हैं। कितने तो स्वयं पूँजीपति है, इसलिए यह पूँजीवाद की रक्षा के महान अस्त्र धर्म का पक्ष ग्रहण करना चाहते हैं। कितने ही, श्रमजीवियों के जीवन की कठिनाइयों को जानते हैं, और उस श्रेणी में सम्मिलित होने से डरते हैं। और कुछ उस आयु को पहुँच गए है, जब अतीत की अत्यन्त आसक्ति मन को नए विचारों को ग्रहण करने में असमर्थ कर देती है। मनुष्य की आयु के पहिले चालीस-पैंतालीस वर्ष ही ऐसे हैं, जबकि वह स्वच्छंदतापूर्वक चिन्तन और विचार विनिमय कर सकता है; पीछे गोधूली के धुँधलेपन में उसे अतीत की स्मृति के सहारे पुरानी बातें ही दिखलाई देती हैं। संसार में इस नियम के अपवाद बहुत ही कम होते हैं।

इस प्रकार सारी दुनिया के विचार पक्ष और विपक्ष में बँटे हुए हैं; ऐसी अवस्था में किसी की सम्मति को पकड़कर चलाना उचित नहीं है। आपको अपनी बुद्धि स्वतंत्र रखनी होगी, और उसी को अन्तिम निर्णायक मानना होगा।

महान चिन्तक राहुल सांकृत्यायन के कुछ विचारणीय उद्धरण 

  • हमें अपनी मानसिक दासता की बेड़ी की एक-एक कड़ी को बेदर्दी के साथ तोड़कर फ़ेंकने के लिए तैयार रहना चाहिये। बाहरी क्रान्ति से कहीं ज्यादा ज़रूरत मानसिक क्रान्ति की है। हमें आगे-पीछे-दाहिने-बांये दोनों हाथों से नंगी तलवारें नचाते हुए अपनी सभी रुढ़ियों को काटकर आगे बढ़ना होगा।
  • असल बात तो यह है कि मज़हब तो सिखाता है आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का खून पीना। हिन्दुस्तानियों की एकता मज़हब के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मज़हबों की चिता पर। कौव्वे को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता। कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। मज़हबों की बीमारी स्वाभाविक है। उसकी मौत को छोड़कर इलाज नहीं।
  • यदि जनबल पर विश्‍वास है तो हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। जनता की दुर्दम शक्ति ने, फ़ासिज्म की काली घटाओं में, आशा के विद्युत का संचार किया है। वही अमोघ शक्ति हमारे भविष्य की भी गारण्टी है।
  • रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने वालों के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं है।
  •  हमारे सामने जो मार्ग है उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और बहुत अधिक आगे आने वाला है। बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्मविश्वास प्राप्त करते हैं, लेकिन बीते की ओर लौटना कोई प्रगति नहीं, प्रतिगति-पीछे लौटना होगा। हम लौट तो सकते नहीं क्योंकि अतीत को वर्तमान बनाना प्रकृति ने हमारे हाथ में नहीं दे रखा है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009

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