उद्धरण
‘‘धार्मिक दृष्टिकोण के आधार पर विश्व के किसी भी भाग में आन्दोलन हो सकता है। किन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि इससे कोई बहुमुखी विकास होगा। जीवन हम सबको प्रिय है और हम सब जीवन की पहेलियों को अनावृत्त करने के लिए उत्सुक हैं। प्राचीन काल में विज्ञान की सीमाबद्धताओं के फ़लस्वरूप एक कल्पित ईश्वर के चरणों में दया की भीख माँगने के सिवा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था, जिसे प्रकृति के रहस्यमय नियमों का नियन्ता माना गया। प्राक् वैज्ञानिक युग के मानव ने अपने को अत्यन्त असहाय महसूस किया और धर्म का आविर्भाव शायद इसी मानसिकता से हो सका। प्रकृति-सम्बन्धी विचार प्राचीन धर्मों में शायद ही सुपरिभाषित है। इसके अतिरिक्त इनकी प्रकृति आत्मनिष्ठ है, अतः ये आधुनिक युग की माँगों को पूरा नहीं कर सकते।“
– महान वैज्ञानिक डा. मेघनाद साहा (विज्ञान और धर्म)
भगतसिंह ने कहा…
…अलग-अलग संगठन और खाने-पीने का भेदभाव हर हालत में मिटाना ज़रूरी है। छूत-अछूत शब्दों को जड़ से निकालना होगा।
जब तक हम अपनी तंगदिली छोड़कर एक न होंगे, तब तक हममें वास्तविक एकता नहीं हो सकती। इसलिए ऊपर लिखी बातों के अनुसार चलकर ही हम आज़ादी की ओर बढ़ सकते हैं। हमारी आज़ादी का अर्थ केवल अंग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं। वह पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है जब लोग परस्पर घुलमिलकर रहेंगे और दिमागी गुलामी से आज़ाद हो जाएंगे।
(1928 में ‘किरती’ पत्रिका में प्रकाशित लेख ‘धर्म और हमारा स्वतंत्रता संग्राम’ से)
‘‘सभी देशों को आजाद करवाने वाले वहाँ के विद्यार्थी और नौजवान ही हुआ करते हैं। क्या हिंदुस्तान के नौजवान अलग-अलग रहकर अपना और देश का अस्तित्व बचा पाएँगे? नौजवान 1919 में विद्यार्थियों पर किए गए अत्याचार भूल नहीं सकते। वे पढ़ें। जरूर पढ़ें। साथ ही पॉलिटिक्स का भी ज्ञान हासिल करें और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपना जीवन इसी काम में लगा दें। अपने प्राणों का इसी में उत्सर्ग कर दें। वरना बचने का कोई उपाय नज़र नहीं आता।’’
(‘विद्यार्थी और राजनीति’ जून 1928 में ‘किरती’ पत्रिका में प्रकाशित लेख)
‘‘क्रान्ति करना बहुत कठिन काम है। यह किसी एक आदमी की ताकत की वश की बात नहीं है और न ही यह किसी निश्चित तारीख़ को आ सकती है। यह तो विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से पैदा होती है और एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को सम्भालना होता है और जनता को इसके लिए तैयार करना होता है। क्रान्ति के दुस्साध्य कार्य के लिए सभी शक्तियों को संगठित करना होता है। इस सबके लिए क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को अनेक कुर्बानियाँ देनी होती हैं।’’
(‘नवयुवक राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम पत्र’ से)
“हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह युद्ध तब तक चलता रहेगा, जब तक कि शक्तिशाली व्यक्ति भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार जमाए रखेंगे। चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति, अंग्रेज शासक या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। यदि शु्द्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो तब भी इस स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता।”
(फाँसी से तीन दिन पूर्व भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव द्वारा फाँसी की बजाय गोली से उड़ाए जाने की माँग करते हुए पंजाब के गवर्नर को लिखे गए पत्र का एक अंश)
‘‘जब भी नैतिकता धर्मशास्त्र पर आधारित होगी, जब भी अधिकार किसी दैवी सत्ता पर निर्भर होंगे, तो सबसे अनैतिक, अन्यायपूर्ण, कुख्यात चीज़ें सही ठहरायी जा सकती हैं और स्थापित की जा सकती हैं।’’
लुडविग फ़ायरबाख़ (जर्मन दार्शनिक, 1804-1872)
‘‘जब विवेक सो जाता है, तब राक्षस पैदा होते हैं।’’
फ्रांसिस्को द गोया (प्रख्यात स्पेनी चित्रकार, 1746-1828)
“हमारे युग की कला क्या है? न्याय की घोषणा, समाज का विश्लेषण, परिणामतः आलोचना। विचारसत्व अब कलातत्व में समा गया है। यदि कोई कलाकृति सिर्फ चित्रण के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें वह आत्मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है जो युग में व्याप्त भावना से निःसृत होती है, यदि वह पीड़ित हृदय से निकली कराह या चरम उल्लसित हृदय से फूटा गीत नहीं, यदि वह कोई सवाल या किसी सवाल का जवाब नहीं, तो वह निर्जीव है।”
बेलिंस्की (रूसी दार्शनिक)
”अगर हम मानव इतिहास के आरम्भ में जायें तो हम पायेंगे कि अज्ञान और भय ने देवताओं को जन्म दिया; कि कल्पना, उत्साह या छल ने उन्हें महिमामण्डित या लांछित किया; कि कमजोरी उनकी पूजा करती है; कि अन्धविश्वास उन्हें संरक्षित रखता है, और प्रथाएँ, आस्था और निरंकुशता उनका समर्थन करती हैं ताकि मनुष्य के अन्धेपन का लाभ अपने हितों की पूर्ति के लिए उठाया जा सके।“
बैरन द’होल्बाख (प्रबोधनकालीन फ्रांसीसी दार्शनिक)
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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