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होसे मारिया सिसों की पाँच कविताएँ
अनुवादः चन्द्रमणि सिंह
होसे मारिया सिसों फ़िलिप्पींस की संघर्षरत कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक महासचिव हैं। वर्षों के जेल जीवन की यंत्रणाएँ भी उन्हें लक्ष्यविमुख नहीं कर सकीं। इस समय वे हालैण्ड में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं, लेकिन फ़िर भी सतत सक्रिय हैं।
अँधेरी गहराइयों में
दफ़्न कर देना चाहता है दुश्मन हमें
जेलख़ाने की अँधेरी गहराइयों में
लेकिन धरती के अँधेरे गर्भ से ही
दमकता सोना खोद निकाला जाता है
गोता मारकर बाहर लाया जाता है
झिलमिलाता मोती
सागर की अतल गहराइयों से।
हम झेलते हैं यंत्रणा और अविचल रहते हैं
और निकालते हैं सोना और मोती
चरित्र की गहराइयों से
ढला है जो लम्बे संघर्ष के दौरान।
(10 अप्रैल, 1978)
वर्षा का आना
दम घोंटू गर्मी इकठ्टा करती है
गहरे काले बादलों को
नीचे सब कुछ अँधेरे से ढँकती हुई
लेकिन बिजली का गरजना-चमकना
घोषणा करता है, वर्षा के दौरान
उपज के एक नये मौसम की।
व्यापक हवाएँ और गहराती जलधाराएँ
पर्वतों से उतरती हैं वेग से
बेहद आत्मीय ढँग से
देती हैं सन्देश
मैदानों में वर्षा के आगमन का।
पेड़ अपनी बाँहे उठाते हैं आकाश की ओर
और नाचते हैं लयबद्ध गति में, हर्षातिरेक में
झाड़ियाँ उठती हैं और अपनी आवाज़ मिलाती हैं
पेड़ों के साथ
हँसी और गीत के दौरान।
हवायें बुहार ले जाती हैं गिरे हुए पत्रों को
और फ़सल कटे खेतों में चिंगारी भड़कती हैं
लपटें उठती है और तेज़ करती हैं
धरती की प्यास,
अधीर है जो जलाघात के लिए।
(15 जून, 1978)
मध्य मैदानी प्रदेश
मुझे प्यार है धान के खेतों के हरे-भरे विस्तार से,
सूरज की रोशनी गिरती है जब उनपर
उद्घाटित कर देती है
स्वर्णिम दानों के रहस्य।
मुझे प्यार है खेतों में दृढ़ता से तने खड़े गन्ने से,
सूरज की रोशनी उनपर जब चोट करती है,
उद्घाटित कर देती है
उन सुनहरे लट्ठों की मिठास
मैदानों से बहती हवाएँ
लाती हैं अपने साथ
किसानों और फ़ार्म मजदूरों के
श्रम का संगीत।
मुझे प्यार है सड़कों-कारखानों से
उठते शोर से
जब मज़दूर मशीनों पर काम करते हैं।
मुझे प्यार है नीले पर्वतों की उत्तुंगता से
जो हर मेहनतकश को देता है
उम्मीदों का पैगाम।
(15 अगस्त, 1978)
विशाल बलूत
(कामरेड माओ त्से-तुङ को श्रद्धांजलि)
शीत ऋतु की विभीषिका में
उन्नतशिर तना खड़ा है
सौ वर्ष पुराना विशाल बलूत
अनगिन मौसमों का साक्षी स्तम्भ।
ग्रीष्म की तितलियों की
भला क्या तुलना इस बलूत से
और इस निष्ठुर शीत से?
वह जो जा चुका है
लेकिन अनश्वर है जिसकी आत्मा
और सभी तरह के जादूगर जिसे
वश में नहीं कर सकते अपने जादू के ज़ोर से।
उसके नाम के जादू को चुराने
के अनुष्ठानों के लिए
कभी-कभी बलूत की एक टहनी से
गढ़ी जाती है उसकी आत्मा
उसके दुश्मनों की छवि में।
चर्मपत्रों पर अंकित हैं
विश्वासघात के चुम्बन,
पवित्रता को अपदूषित करने मंत्रोच्चारों की भिनभिनाहटें
और उसकी महान स्मृति के विरुद्ध
अपकीर्ति की कल्पित कथाएँ।
उसके विचार और कर्म
जब पीछा करते हैं शत्रुओं का
तो वे भावी भीषण संघर्ष के लिए
अभिप्रेरित जीवन्त शक्तियों के
प्राणान्तक भय से हो जाते हैं आक्रान्त
जैसे क्षितिज पर टकराते हैं
प्रकाश और तिमिर
और जैसे उत्कृष्ट और निकृष्ट
अग्रसर होते हैं
स्वयं को परिभाषित करने की ओर।
(26 दिसम्बर, 1993)
जंगल है अब भी जादू के वश में…
अस्थिर–चित्त आत्माएँ और परियाँ
छोड़ चुकी हैं पुरातन वृक्षों और लता-गुल्मों को,
अंधी गफ़ुाओं और छिपे टीलों को,
काई–युक्त चट्टानों और फ़ुसफ़ुसाती जलधाराओं को,
वक्र दुष्टात्मा और कृष्ण-पखेरू
वंचित हो चुके हैं अपनी षड़यंत्रकारी शक्तियों से।
बीते युगों की अनिश्चितताएँ
अब हठात् दिलों में नहीं जगातीं भय और आतंक
जंगल में बिना किसी संशय के
अब स्पन्दित होती है निश्चितता
लकड़ी काटने की, सुअर और हिरन के शिकार की,
फ़ल बटोरने की, मधु-संचय की
और यहाँ तक कि शतावरी के फ़ूल चुनने की।
लेकिन जंगल है अब भी जादू के वश में
हवाओं मे एक नया स्तुति-गीत है,
गहन हरीतिमा में एक नया जादू है,
ऐसा ही कहते हैं किसान अपने मित्रों से।
एक अकेली युयुत्सु आत्मा ने
जमा लिया है अपना एकछत्र प्रभाव
अवांछित आगन्तुकों को लुभाती और चौंकाती हुई।
(जून 1981)
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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