एक ‘‘ईमानदार’’ प्रधानमन्त्री के घडि़याली आँसू

आनन्द

 

वर्ष 2004 में जब कांग्रेस ‘आला कमान’ के निर्देश पर मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री पद पर पहली बार ताजपोशी की गयी थी तब कई विश्लेषकों ने यह सन्देह व्यक्त किया था कि सिंह लम्बे समय तक यह पद सम्भाल भी पायेंगे या नहीं। अक्सर सुनने में आता था कि वे बेचारे ठहरे एक ईमानदार आदमी! भारतीय राजनीति के गन्दे खेल में टिकने के लिए ज़रूरी दाँवपेंच और घाघपन उनमें कहाँ! लेकिन ‘आला कमान’ और उनके आक़ा बुर्जुआ वर्ग को मनमोहन सिंह की वफ़ादारी और योग्यता पर भरोसा था क्योंकि मौजूदा व्यवस्था के अमानवीय चेहरे को ढँकने के लिए और जनता में इसके प्रति भ्रम बरकरार रखने के लिए शासक वर्ग को एक ऐसे बेदाग़ मुखौटे की ज़रूरत थी जिसकी साख़ अच्छी हो। सात वर्षों के कार्यकाल में प्रधानमन्त्री महोदय ने न सिर्फ इस भरोसे को सही ठहराया बल्कि इस दौरान उन्होंने राजनीतिक घाघपन की विधा में महारथ भी हासिल कर ली है। इसकी कई मिसालें पिछले दिनों विभिन्न अवसरों पर प्रधानमंत्री के वक्तव्यों में देखने में आयी जिनमें उन्होंने ने विभिन्न क्षेत्रों में भारत के पिछड़ेपन पर छाती पीट-पीट कर स्यापा किया, मानो इस पिछड़ेपन में उनकी सरकार और इस पूरी व्यवस्था का कोई योगदान ही न हो!

पिछले 25 दिसम्बर को 20वीं सदी के विश्वविख्यात भारतीय गणितज्ञ रामानुजन के 125वें जन्मदिवस के अवसर पर प्रधानमन्त्री ने गणित की ओर भारतीयों के कम होते रुझान पर दुख और चिन्ता जाहिर की। उसके बाद एक अन्य समारोह में मीडिया के सनसनी फैलाने के रवैये और ‘पेड न्यूज’ जैसी परिघटनाओं पर सिर पीटा। 3 जनवरी को 99वें भारतीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन के अवसर पर तो प्रधानमन्त्री ने भारत के विज्ञान में पिछड़ने के संकेत मिलने और विशेषकर चीन से पीछे हो जाने पर दहाड़ मारकर घडि़याली आँसू बहाये। हद तो तब हो गयी जब प्रधानमन्त्राी महोदय ने कुपोषण पर एक रिपोर्ट का विमोचन करते  हुए भारत में कुपोषण की विभीषिका पर शर्मसार होने का ढोंग किया। ऐसा मानवद्रोही ढोंग करते हुए शायद प्रधानमन्त्री महोदय ने सोचा होगा कि चूँकि जनता की याददाश्त कमज़ोर होती है इसलिए वह भूल चुकी होगी कि अभी कुछ ही महीने पहले उन्होंने सरकारी गोदामों में सड़ रहे और चूहों की भेंट चढ़ रहे अनाज को गरीबों में बाँटने से बेरहमी से मना कर दिया था और इस मामले में उच्चतम न्यायलय तक को ठेंगा दिखा दिया था।

कुपोषण की समस्या पर प्रधानमन्त्री की स्वीकारोक्ति इसलिए एक मानवद्रोही ढोंग है कि अर्थशास्त्री होने के नाते उन्हें यह तो भली-भाँति पता होगा कि हमारे देश में कुपोषण की समस्या किसी दैवीय आपदा का दुष्परिणाम नहीं बल्कि मौजूद सामाजिक-आर्थिक ढाँचे की उपज है जिसको पिछले दो दशकों से निहायत ही बेशर्मी से लागू की जा रही नवउदारवादी नीतियों ने और भी ज़्यादा उभारा है। मनमोहन सिंह ने इन नीतियों को भारत में लागू करने में प्रारम्भ से ही नेतृत्वकारी भूमिका निभायी है। इन नीतियों की वजह से जहाँ एक ओर पूँजीपति वर्ग ने बेहिसाब मुनाफ़ा पीटा है और एक छोटा सा खाता-पीता मध्यवर्ग पनपा है वहीं दूसरी ओर देश की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की प्रभावी आमदनी और उनकी ख़रीदारी की क्षमता में कुल मिलाकर गिरावट ही देखने को आयी है। पिछले दो दशकों के दौरान श्रम का अनौपचारीकरण अभूतपूर्व रूप से बढ़ा है, आदिवासी और छोटे-मझोले किसान तबाह हो रहे हैं व व्यापक मेहनतकश आबादी का जीना दूभर हो गया है। देश के त्वरित पूँजीवादी विकास के लिए ज़रूरी आदिम पूँजी संचय आदिवासियों और किसानों को उनके जीविकोपार्जन के साधनों से उजाड़कर अर्जित किया जा रहा है। ऐसे में सामाजिक असुरक्षा के साथ ही साथ खाद्य असुरक्षा का बढ़ना आश्चर्यजनक नहीं बल्कि स्वाभाविक है। प्रधानमन्त्री महोदय ने कुपोषण की समस्या पर घडि़याली आँसू बहाते हुए ऐसा स्वाँग रचा मानो वो पहली बार इस नंगी सच्चाई से रूबरू हो रहे हों! यही नहीं बड़ी ही सफ़ाई से उन्होंने इस समस्या के मूल कारण से किनारा करते हुए इसके विकराल रूप धारण करने का सारा जिम्मा आँगनबाड़ी जैसी सरकारी स्कीमों को सही ढंग से लागू करने में प्रशासन की विफलता पर डाल दिया और इन स्कीमों को और प्रभावी बनाने का भरोसा दिलाकर समस्या के प्रति अपनी संजीदगी दिखाने का हास्यापद प्रयास भी किया।

मीडिया के सनसनी फैलाने वाले रवैये और ‘पेड न्यूज़’ जैसी परिघटनाओं पर अपने वक्तव्य में प्रधानमन्त्री ने बड़ी ही चालाकी से समस्याओं पर ज़ोर देने का नैतिक उपदेश दे डाला। प्रधानमन्त्री के वक्तव्य को सुनकर ऐसा लगा मानो वे मीडिया को एक बिगड़ैल बच्चे के समान समझते हैं जो कुछ समय के लिए पथभ्रष्ट हो गया है और उनके उपदेश सुनकर उसका हृदय-परिवर्तन हो जायेगा तथा वह जनपक्षधर हो जायेगा! प्रधानमन्त्री यदि ईमानदारी से इस समस्या पर चिन्तन-मनन करते तो पाते कि लोकतन्त्र के चैथे खम्भे की एक-एक ईंट पूँजीपतियों द्वारा ख़रीद ली गई है। मीडिया अब विशुद्ध रूप से मुनाफ़ा कमाने का प्रभावी उपक्रम बन चुका है, समाचार माल में परिवर्तित हो चुके हैं, पाठक और दर्शक उपभोक्ता में तब्दील हो चुके हैं। टीआरपी रेटिंग की अन्धी प्रतिस्पर्धा में सनसनीखेज़ और मसालेदार ख़बरें और अधिक मुनाफ़ा कमाने का सुगम मार्ग हैं। ऐसे में मीडिया के मालिकों को क्या पागल कुत्ते ने काट रखा है कि वे प्रधानमन्त्री की नसीहत मानकर गम्भीर ख़बरें और विश्लेषण दिखाकर मुनाफ़े की दौड़ में पीछे रहेंगे? प्रधानमन्त्री महोदय भी इस सच्चाई से वाकिफ़ ही होंगे लेकिन उनको अपनी संजीदा छवि दिखाने के लिए कुछ नसीहतें तो देनी ही थीं और वही उन्होंने किया!

विज्ञान और गणित के क्षेत्र में भारत के पिछड़ेपन पर प्रधानमन्त्री का चकित होना भी उनकी मासूमियत नहीं बल्कि उनके घाघपन का ही परिचायक है। क्या प्रधानमन्त्री महोदय को यह नहीं पता है कि आज़ादी के छह दशक बाद भी इस देश में बच्चों की विशाल आबादी प्राथमिक शिक्षा से ही महरूम है और अपना व अपने परिवार का पेट भरने के लिए ढाबों और गैराजों में अपनी श्रम शक्ति बेचने के लिए मजबूर है या फिर शहरों की सड़कों और चौराहों पर भीख माँगकर गुज़ारा करती है। ग़रीबों के जो बच्चे किसी तरह सरकारी स्कूल में दाखि़ल हो भी जाते हैं उनकी शिक्षा भी बस नाम के लिए ही होती है। नवउदारवाद के इस दौर में सरकारी स्कूलों की स्थिति बद से बदतर हुई है। ऐसे में यह उम्मीद करना कि ये बच्चे विज्ञान और गणित में मौलिक खोजें कर देश का नाम रोशन करेंगे, एक चमत्कार की उम्मीद के समान है।

वैसे शायद प्रधानमन्त्री महोदय ग़रीबों के बच्चों को इस काबिल ही नहीं समझते कि वो विज्ञान या गणित में कोई मौलिक खोज कर सकते हैं, उनकी निराशा तो दरअसल मध्यवर्ग के उन होनहारों को लेकर है जो कोई मौलिक वैज्ञानिक खोज करने में निहायत ही फिसड्डी साबित हुए हैं! हक़ीकत तो यह है कि आज शिक्षा को एक चटपट मुनाफा कमाने वाला व्यवसाय बना दिया गया है। स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय उद्योग जगत के लिए मानवीय संसाधनों को तैयार करने का उद्यम बनते जा रहे हैं। इन उद्यमों के मानवीय उत्पादों की हैसियत वैश्विक असेम्बली लाइन के पुर्जे के समान होती जा रही है और उसी की ज़रूरतों के मुताबिक उन का शिक्षण-प्रशिक्षण होता है।

ऐसे परिदृश्य में समूचे समाज में पूँजी की नई संस्कृति विकसित हुई है जिसमें अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा को एक निवेश समझते हैं और बच्चों के नैसर्गिक रुझान की परवाह किये बगैर उनका दाखिला ऐसे कोर्सो में कराने में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं जिनमें मोटी पगार पाने की सम्भावना अधिक हो। वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में जाने वाले छात्रों में अधिकांश अपनी रुचि की वजह से नहीं बल्कि किसी अन्य बेहतर विकल्प के अभाव में मजबूरन आते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधान मे वास्तविक रुचि रखने वाले अधिकांश छात्रों की मेधा को अमेरिका या यूरोप के साम्राज्यवादी अपनी पूँजी की ताकत से ऊँची बोली लगाकर ख़रीद लेते हैं। यही कारण है कि नासा जैसी अनुसंधानिक संस्था में भारतीय वैज्ञानिकों की अच्छी-ख़ासी तादाद है। भूमण्डलीकरण के दौर में मेधा की इस ख़रीद-फ़रोख़्त में बेहिसाब तेज़ी आयी है। ऐसी परिस्थितियों में यदि भारत में मौलिक खोज नहीं हो पा रही है तो यह कतई आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य तो तब होता जब इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भारत विज्ञान और गणित के अनुसंधान में अग्रणी भूमिका निभाता नज़र आता।

ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि प्रधानमन्त्री जब विज्ञान में भारतीयों के पिछड़े होने की बात कबूल रहे थे उस समय उनका इशारा महज़ इन क्षेत्रों में अन्य देशों के मुकाबले भारतीय पेटेण्टों की संख्या में कमी की ओर था। उनका ज़ोर व्यापक समाज में धार्मिक कट्टरपन के उभार, अन्धविश्वासों की नये रूपों  में वापसी, ज्योतिष, टैरो, फेंगशुई जैसी घोर अवैज्ञानिक धाराओं की विज्ञान का चोला ओढ़ कर समाज में मौजूदगी, आदि जैसी परिघटनाओं पर नहीं था जो समाज की औसत वैज्ञानिक चेतना को भोथरा करती हैं और जनमानस के बड़े हिस्से में प्रकृति और समाज की भौतिकवादी समझ स्थापित करने की बजाय भाग्यवादी विचारों की पैठ बनाती हैं। एक घाघ पूँजीवादी दार्शनिक की भांति प्रधानमंत्री महोदय ने वैज्ञानिक चेतना का इस्तेमाल महज पूँजीवादी उत्पादन और मुनाफे में वृद्धि के अस्त्र की तरह करने पर ज़ोर दिया लेकिन इतिहास गवाह है कि जब भी किसी समाज में वास्तव में वैज्ञानिक चेतना का विकास होता है तो ऐसे तमाम दार्शनिकों और शासकों की इच्छा से स्वतन्त्र जनता की वैज्ञानिक चेतना महज प्रकृति के अनसुलझे सवालों को ही सुलझाने तक सीमित नहीं रहती, बल्कि अस्तित्वमान सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को भी कठघरे में खड़ा करती है और उसके विकल्प के बारे में भी सोचती है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012

 

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