उद्धरण

bhagat_singhसभ्यता का यह प्रासाद यदि समय रहते सँभाला न गया तो शीघ्र ही चरमराकर बैठ जायेगा। देश को एक आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। और जो लोग इस बात को महसूस करते हैं उनका कर्त्तव्य है कि साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुनर्निर्माण करें। जब तक यह नहीं किया जाता और मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जिसे साम्राज्यवाद कहते हैं, समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असम्भव है, और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व-शान्ति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। क्रान्ति से हमारा मतलब अन्ततोगत्वा एक ऐसी समाज-व्यवस्था की स्थापना से है जो इस प्रकार के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा। और जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्व-संघ पीड़ित मानवता को पूँजीवाद के बन्धनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।

भगतसिंह (असेम्बली बम केस में सेशन कोर्ट में बयान का अंश)

marx_angelsक्या यह समझने के लिए गहरी अन्तर्दृष्टि की ज़रूरत है कि मनुष्य के विचार, मत और उसकी धारणाएँ – संक्षेप में, उसकी चेतना उसके भौतिक अस्तित्व की अवस्थाओं, उसके सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक जीवन के प्रत्येक परिवर्तन के साथ बदलती हैं?

विचारों का इतिहास इसके सिवा और क्या साबित करता है कि जिस अनुपात में भौतिक उत्पादन में परिवर्तन होता है, उसी अनुपात में बौद्धिक उत्पादन का स्वरूप परिवर्तित होता है? हर युग के प्रभुत्वशील विचार सदा उसके शासक वर्ग के ही विचार रहे हैं।

जब लोग समाज में क्रान्ति ला देने वाले विचारों की बात करते हैं, तब वे केवल इस तथ्य को व्यक्त करते हैं कि पुराने समाज के अन्दर एक नये समाज के तत्व पैदा हो गये हैं और पुराने विचारों का विघटन अस्तित्व की पुरानी अवस्थाओं के विघटन के साथ कदम मिलाकर चलता है।

मार्क्स-एंगेल्स (कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र)

उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्जे़-जफ़ा क्या है,

हमें यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।

दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,

सारा जहाँ अदू सही, आओ मुक़ाबला करें।

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,

चरागे़-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।

मेरी हवा में रहेगी ख़याल की बिजली,

ये मुश्ते-ख़ाक़ है फ़ानी, रहे रहे न रहे।

(3 मार्च 1931 को छोटे भाई कुलतार को लिखे भगतसिंह के पत्र से)

तर्ज़-ए.जफ़ा: अन्याय; दहर: दुनिया;

चर्ख़: आसमान; चराग़े-सहर: सुबह का चिराग़;

अदू: दुश्मन; मुश्ते-ख़ाक़: मुट्ठीभर धूल;

फ़ानी: नश्वर

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2014

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