वज़ीरपुर गरम रोला मज़दूर आन्दोलन में ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ की घृणित ग़द्दारी और गरम रोला मज़दूरों का माकूल जवाब

‘मज़दूर बिगुल’ से साभार

Wazirpur strike day_7.14_05ज्ञात हो कि वज़ीरपुर औद्योगिक क्षेत्र, दिल्ली के गरम रोला कारख़ानों के इस्पात मज़दूर पिछले करीब डेढ़ माह से आन्दोलनरत हैं। इन मज़दूरों ने पिछले वर्ष भी ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्व में एक आन्दोलन किया था, जिसमें अन्त में मालिकों ने हर वर्ष 1500 रुपये की वेतन बढ़ोत्तरी का वायदा किया था, हालाँकि पिछले वर्ष की वेतन बढ़ोत्तरी के वायदे को या तो ज़्यादातर मालिकों ने लागू ही नहीं किया था या फिर आंशिक तौर पर लागू किया था। पिछले वर्ष मालिकों ने पुलिस और गुण्डों की मदद से समिति के नेतृत्व पर एक समझौता थोपने का प्रयास किया था। इस बार भी पुलिस और गुण्डों की मदद से मालिकों ने कई बार मज़दूरों को तोड़ने और उनके आन्दोलन को बिखराने का प्रयास किया, लेकिन मज़दूरों ने उनकी एक न चलने दी। मज़दूरों ने कई बार शुद्ध जनबल के बूते अपने साथियों को पुलिस की हिरासत से रिहा करा लिया, जबकि दो बार सड़कों पर गुण्डों का भी उचित इलाज किया। जब मालिक गुण्डों और पुलिस के बूते भी आन्दोलन को नहीं तोड़ पाया तो उसने मज़दूरों की पुरानी माँग को मानने और जारी महीने का भुगतान 1500 रुपये बढ़ोत्तरी करके करने का रास्ता अपनाया। लेकिन अब मज़दूर भी 27-28 जून के क़ानूनी समझौते से नीचे किसी चीज़ के लिए तैयार नहीं हैं। कई कारख़ाने बन्द हो चुके हैं, कइयों ने समझौते को लागू कर दिया और कुछ अपराधी किस्म के मालिकों के कारख़ानों में गुण्डों की फौज़ तैनात करके ज़बरन काम कराने का प्रयास किया जा रहा है। आन्दोलन जारी है और मज़दूर लड़ रहे हैं, ठीक उसी प्रकार जिस जुझारूपन के साथ वे 6 जून से लड़े, अपनी सामुदायिक रसोई चलायी, कारख़ाना गेटों पर ताले मारे, पुलिस और गुण्डों को खदेड़ा।

लेकिन मज़दूरों की इस आन्दोलन में सबसे बड़ी जीत यह थी कि ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ के नेतृत्वकारी निकाय ने सभी मज़दूरों के बीच इस प्रस्ताव को पास कराया कि कोई भी स्वयंसेवी संगठन, चुनावी पार्टी की यूनियनें या फिर दलाल संगठन इस आन्दोलन में नहीं घुस सकते हैं और उनके लिए पहले से ही दरवाज़े बन्द हैं। मज़दूरों ने अपनी सभा में यह निर्णय पास किया कि ऐसे संगठनों को आन्दोलन में शुरू से ही नहीं घुसने दिया जायेगा, ताकि वे आन्दोलन को दीमक के समान खा न सकें। इस आन्दोलन में ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ नामक एक संगठन की ग़द्दारी और दलाली को मज़दूरों ने बेनक़ाब किया और उन्हें आन्दोलन से खदेड़कर बाहर कर दिया। यह इस आन्दोलन की बड़ी उपलब्धियों में से एक था।

पिछले वर्ष जब गरम रोला मज़दूरों ने हड़ताल की थी, तो उस दौरान ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ नामक संगठन भी समर्थन करने के लिए आन्दोलन में आया था। मज़दूरों की पहल से बनी ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ में भी ‘इंक़लाबी मज़दूर केन्द्र’ (इंमके) के लोगों को जगह दी गयी थी। हड़ताल के समाप्त होने के बाद से ही इंमके के लोगों ने ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ को अपना जेबी माल बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी। अपने सांगठनिक संकीर्ण स्वार्थ में अन्धे इंमके के लोगों ने ‘गरम रोला मज़दूर एकता समिति’ (यहाँ से ‘समिति’) के नेतृत्वकारी लोगों पर इस बात के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया था कि समिति के दफ्तर पर लगने वाले बोर्ड पर इंमके का नाम लिखा जाये, नेतृत्वकारी मज़दूर इंमके के भी सदस्य बनें और साथ ही उन्होंने समिति के अन्य मज़दूरों से सहमति लिये बगै़र समिति के नाम से पर्चे निकालने भी शुरू कर दिये थे। इसका मज़दूरों ने पुरज़ोर विरोध किया और स्पष्ट कर दिया कि इस तरह की हरक़तों को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। इसके बाद नवम्बर 2013 में इंमके ने फिर से एक पर्चा निकाला, जिस पर बिना इजाज़त के समिति के नाम का इस्तेमाल किया। इसके बाद समिति के नेतृत्वकारी मज़दूरों ने अधिकारिक तौर पर इंमके से रिश्ता तोड़ लिया था। इसके बाद, इंमके के लोगों ने गरम रोला मज़दूरों की एकजुटता को तोड़ने के लिए एक इस्पात मज़दूरों का अलग मंच बनाने का भी प्रयास किया। लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हो पाया। इसके बाद वे समिति में ही फूट डालने का प्रयास करने लगे। इस प्रयास के भी असफल होने के बाद इंमके वज़ीरपुर के गरम रोला मज़दूरों के बीच अप्रासंगिक हो चुका था। लेकिन इसके बावजूद अपनी निकृष्टता दिखाते हुए इंमके के एक व्यक्ति मुन्ना प्रसाद ने इंमके के दफ्तर से तमाम क़ानूनी काग़ज़ात चुरा लिये और भाग गया। मज़दूरों में इसे लेकर काफ़ी नाराज़गी थी। नतीजतन, जब इंमके के लोगों ने 29 जनवरी 2014 को ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के अरविन्द केजरीवाल के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के समानान्तर एक अलग प्रदर्शन का आह्वान किया तो समिति का कोई मज़दूर उसमें शामिल नहीं हुआ और मज़दूरों को बुलाने के लिए गये मुन्ना प्रसाद को वहाँ से खदेड़ दिया, जबकि ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ द्वारा ठेका प्रथा ख़त्म करने के लिए अरविन्द केजरीवाल के ख़िलाफ़ दिल्ली सचिवालय पर प्रदर्शन करने के लिए दर्जनों मज़दूर वज़ीरपुर से गये थे। इसके बाद से इंमके के लोगों की गरम रोला मज़दूरों के बीच कोई उपस्थिति नहीं थी।

इस वर्ष जब मालिकों ने हर वर्ष 1000 रुपये की बढ़ोत्तरी वायदा पूरा नहीं किया तो मज़दूरों ने 6 जून से अपनी हड़ताल की शुरुआत की। इस हड़ताल की शुरुआत के साथ ही इंमके के लोग फिर से समर्थन करने के नाम पर आये। मज़दूरों ने पहले ही उन्हें कोई तरजीह नहीं दी। शुरुआती दिनों में समर्थन करने वाले संगठनों को हड़ताल का समर्थन करने के लिए मंच पर बोलने का अवसर दिया गया और उसी श्रृंखला में इंमके के लोगों को भी बोलने दिया गया। लेकिन 11 जून आते-आते तमाम चुनावी पार्टियों की यूनियनों और संगठनों और साथ ही स्वयंसेवी संगठनों के लिए मंच के दरवाज़े बन्द कर दिये गये थे। इंमके के लोगों को दो बार श्रम अधिकारियों से मिलने वाले प्रतिनिधि मण्डल में भी शामिल किया गया था। लेकिन बाद में मज़दूरों ने यह निर्णय लिया कि किसी भी प्रतिनिधि मण्डल में इंमके या किसी भी चुनावी पार्टी की यूनियन को शामिल नहीं किया जायेगा। 14 जून के बाद से हर प्रतिनिधि मण्डल में स्वयं मज़दूर सदस्य और नेतृत्वकारी निकाय के सदस्य शामिल होने लगे। साथ ही, इंमके के मुन्ना प्रसाद को स्पष्ट शब्दों में बता दिया गया कि पिछले वर्ष समिति के दफ्तर से चोरी किये गये काग़ज़ातों को लौटा दे अन्यथा इंमके के लोगों को आन्दोलन से बाहर कर दिया जायेगा। इसके बाद 13 जून को मुन्ना प्रसाद ने कुछ काग़ज़ वापस किये, लेकिन सारे काग़ज़ात वापस नहीं किये। इसके बाद से ही इंमके के लोगों ने आन्दोलन में तोड़-फोड़ की गतिविधियाँ शुरू कर दीं। एक कारख़ाने के कुछ दलाल किस्म के मज़दूरों के साथ मिलकर इंमके के लोगों ने लगातार मज़दूरों के बीच फूट डालने की कोशिश की। 17 जून को मज़दूरों ने इंमके के लोगों को आन्दोलन से बाहर करने का प्रयास किया, लेकिन डी-3 कारख़ाने के एक दलाल मज़दूर रामभुवन ने यह धमकी दी कि वह अपने कारख़ाने के मज़दूरों को आन्दोलन से बाहर कर लेगा। इस पर नेतृत्वकारी निकाय के सदस्यों ने हस्तक्षेप किया और इंमके के लोगों को उस दिन प्रदर्शन-स्थल पर रहने दिया गया। लेकिन इसके बाद पता चला कि 16 जून को इंमके का हरीश और मुन्ना प्रसाद 16 जून को श्रम विभाग द्वारा समिति की शिकायत पर हो रहे निरीक्षण के दौरान एक निरीक्षण टोली में ज़बरन घुसने का प्रयास कर रहे थे और बाद में एक लेबर इंस्पेक्टर की गाड़ी में घूम रहे थे। 17 जून को इंमके के लोगों को स्पष्ट चेतावनी दी गयी थी कि वे किसी भी मज़दूर प्रतिनिधि मण्डल या निरीक्षण टोली में घुसने का प्रयास न करें और उससे दूर रहें। लेकिन 19 जून को श्रम विभाग में समिति की वार्ता के दौरान ही एक लेबर इंस्पेक्टर के पास फ़ोन करके इंमके का हरीश जानकारी लेने का प्रयास करने लगा। उस समय श्रम विभाग में सभी कारख़ानों से दो-दो मज़दूर मौजूद थे। उनके सामने ही यह घटना घटी और लेबर इंस्पेक्टर ने स्वयं बताया कि इंमके के हरीश का फ़ोन आया था। इस पर मज़दूरों ने निर्णय किया कि कल यानी कि 20 जून को इंमके के लोगों को प्रदर्शन-स्थल से भगा दिया जायेगा।

20 जून को जब सुबह सभा की शुरुआत हुई तो उसी समय मज़दूरों ने इंमके के लोगों को वहाँ से चले जाने का कहा। जब इंमके के लोगों ने मज़दूरों की बात नहीं मानी तो मज़दूरों ने उन्हें धक्के मारकर आन्दोलन से बाहर कर दिया। अगले दिन से ही इंमके के लोगों ने इण्टरनेट के ज़रिये आन्दोलन के नेतृत्व के ख़िलाफ़ और साथ ही आन्दोलन में शुरू से सक्रिय ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के साथियों के ख़िलाफ़ निकृष्ट कोटि का प्रचार अभियान शुरू कर दिया। अचानक इंमके के लोगों ने समिति के नेतृत्वकारी सदस्य रघुराज पर एनजीओ का आदमी होने और भाजपा से रिश्ते रखने का आरोप लगाना शुरू कर दिया। उन्होंने आन्दोलन को शर्मनाक समझौते में समाप्त होने वाला आन्दोलन बताना शुरू कर दिया। ग़ौरतलब है कि 20 जून को आन्दोलन से भगाये जाने के पहले इंमके के लोगों ने एक बार भी आन्दोलन या उसके नेतृत्व के लोगों के बारे में कोई सवाल नहीं उठाया था। ये सारे इल्ज़ाम उन्होंने तब लगाने शुरू किये, जब आन्दोलन में उनकी ग़द्दारी और दलाली को मज़दूरों ने रँगे हाथों पकड़ लिया। 27-28 जून को मज़दूरों को एक बड़ी जीत हासिल हुई, जब श्रम विभाग के सामने समझौते में मालिकों को सभी श्रम क़ानूनों को लागू करने की बात माननी पड़ी। इसके बाद मालिकों ने इस समझौते को लागू करने से इंकार किया, तो मज़दूरों ने कारख़ाना गेटों पर क़ब्ज़ा करना शुरू किया और 2 जुलाई से क्रमिक भूख हड़ताल और मज़दूर सत्याग्रह की शुरुआत की। इसके बाद कई कारख़ानों में मालिकों को मजबूर होकर समझौते को लागू करना पड़ा और कुछ कारख़ानों में समझौता लागू न करने पर मज़दूरों ने अपना हिसाब कर लिया और तालाबन्दी करवा दी। अभी भी अन्य कारख़ानों में इस समझौते को लागू करने के लिए मज़दूर अपना संघर्ष जारी रखे हुए हैं। लेकिन इस जारी संघर्ष के दौरान भी इंमके के लोगों ने आन्दोलन के ख़िलाफ़ अपना कुत्साप्रचार जारी रखा है। 27-28 जून के समझौते को पहले इंमके के लोगों ने “शर्मनाक” बताया। लेकिन फिर समिति ने अपने ब्लॉग पर इस समझौते की प्रतिलिपि की स्कैन की हुई प्रतिलिपि अपलोड कर दी। इसके बाद अन्य संगठनों ने ही इंमके के इस प्रचार पर आपत्ति जतायी। 29 जून को इंमके के नगेन्द्र, हरीश, मुन्ना प्रसाद और दीपक एक कारख़ाने डी-3 पर पहुँचे और दो दलाल मज़दूरों रामभुवन और शेरसिंह की मदद से मज़दूरों को इस बात पर राजी करने की कोशिश करने लगे कि वे मालिकों की शर्तें मान लें। इस पर मज़दूर भड़क गये। जब और मज़दूरों तक यह ख़बर पहुँची तो मज़दूरों ने इंमके के इन दलालों को दौड़ा लिया। यह ख़बर मिलने पर स्थिति को सँभालने के लिए ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के नवीन और नितिन मौके पर पहुँचे। इंमके के ये लोग भागते हुए पुलिस के पास पहुँचे और उन्होंने जान से मारने का आरोप लगाकर दो मज़दूर साथियों अम्बिका और मनोज तथा ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के नवीन और नितिन को गिरफ्तार करवा दिया। साथ ही, पुलिस ने इंमके के लोगों को भी गिरफ्तार किया और फिर दिल्ली के मॉडल टाउन थाने में लेकर गयी। थोड़ी ही देर में समिति की क़ानूनी सलाहकार शिवानी थाने पर पहुँच गयीं और शाम को पुलिस ने दोनों पक्षों का बयान दर्ज करके सभी को रिहा कर दिया। बाद में, यह बात सामने आयी कि इंमके के लोगों ने सोच-समझकर यह पूरा काम किया था, ताकि आन्दोलन के नेतृत्वकारी लोगों पर पुलिस केस हो जाये और आन्दोलन कमज़ोर पड़ जाये। लेकिन उनकी यह चाल कामयाब नहीं हो पायी। इसी बीच इंमके के दीपक ने ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ की सदस्य और गरम रोला आन्दोलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाली स्त्री कॉमरेड शिवानी के बारे में अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए फ़ेसबुक पर एक पोस्ट डाली। इस पर इंमके के लोगों को चेतावनी दी गयी कि वे यह पोस्ट हटा दें। जब उन्होंने धृष्टता दिखाते हुए यह पोस्ट हटाने से इंकार कर दिया तब ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ ने इंमके का अधिकारिक तौर पर बहिष्कार करने का निर्णय लिया। साथ ही, मज़दूरों ने एक सभा में इंमके का बहिष्कार करने का निर्णय पास किया। अभी भी इंमके के दलाल आन्दोलन के ख़िलाफ़, समिति के सदस्यों के ख़िलाफ़ और साथ ही ‘बिगुल मज़दूर दस्ता’ के ख़िलाफ़ अपने कुत्साप्रचार की मुहिम जारी रखे हुए हैं। लेकिन मज़दूर अपने संघर्ष के ज़रिये हर कदम पर उनके इस कुत्साप्रचार का जवाब दे रहे हैं।

ज्ञात हो कि इंमके के लोगों की मारुति सुजुकी मज़दूर संघर्ष में भी कानाफूसी और जोड़-तोड़ करने की ही राजनीति रही थी। और मारुति सुजुकी मज़दूर आन्दोलन के बिखराव के लिए काफ़ी हद तक इनकी अर्थवादी और सांगठनिक संकीर्णतावादी राजनीति ही ज़िम्मेदार रही थी। इसके बारे में हमने तब भी ‘मज़दूर बिगुल’ में लिखा था और उनकी कुत्साप्रचार और कानाफूसी की राजनीति को बेनक़ाब किया था। इंमके के पतन की कहानी को अन्त में यहीं पहुँचना था, जहाँ वह पहुँची है। अर्थवादी, ट्रेड यूनियनवादी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी राजनीति की यही नियति होती है। आगे हम इस विषय पर भी ‘मज़दूर बिगुल’ में लिखेंगे कि इंमके के लोग किस प्रकार राजनीतिक चौर्यलेखन का सहारा लेते रहे हैं। जब ‘बिगुल’ के रूप में एक राजनीतिक मज़दूर अख़बार की शुरुआत की गयी थी, तो इंमके के लोगों ने इस पूरी अवधारणा पर सवाल उठाकर बहस चलायी थी, जिसे हमने ‘बिगुल’ में प्रकाशित भी किया था। लेकिन बाद में उन्होंने ‘बिगुल’ की ही तर्ज पर स्वयं एक मज़दूर अख़बार निकालना शुरू किया। इस पर प्रश्न उठाया गया तो उन्होंने अपनी आत्मालोचना रखी। इसके बाद ‘बिगुल’ की ओर से हमने आन्दोलन के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि आज के दौर में जब एक भूमण्डलीय असेम्बली लाइन बनायी जा रही है, बड़े कारख़ानों को कई छोटे-छोटे कारख़ानों में तोड़ा जा रहा है, बड़े कारख़ानों के भीतर भी लगातार ठेकाकरण और दिहाड़ीकरण के ज़रिये अनौपचारिकीकरण किया जा रहा है, तब हमें कारख़ाना यूनियनों को बनाने के साथ ही सेक्टोरल (पेशागत) यूनियनें और इलाक़ाई यूनियनें भी बनानी होंगी। इस पर इंमके के लोगों ने पहले आपत्ति की और कहा कि ‘बिगुल’ मज़दूर संघर्ष को उत्पादन के क्षेत्र (कारख़ाने) से उपभोग के क्षेत्र (रिहायशी बस्तियों) में ले जाने की बात कर रहा है। इस पर इंमके के लोगों को यह बताया गया कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद की बुनियादी शिक्षा ही यही है कि मज़दूर की श्रमशक्ति स्वयं एक माल बन जाती है। ऐसे में, कारख़ाने के उत्पादन के साथ इस श्रमशक्ति के उत्पादन के क्षेत्र, यानी कि मज़दूर बस्तियों में भी मज़दूरों को संगठित करना होगा; पिछले दो-तीन दशकों का तजुर्बा भी यह बता रहा है कि सिर्फ़ कारख़ानों की चौहद्दियों में कैद रहकर मज़दूर आन्दोलन आज आगे नहीं बढ़ सकता है। इसके करीब 3 वर्ष बाद कोलकाता की एक संगोष्ठी में इंमके द्वारा प्रस्तुत पेपर में ‘बिगुल’ की इस पूरी लाइन को बिना सन्दर्भ बताये और शब्द बदलकर उठा लिया गया। इसके अलावा इंमके की पूरी अवधारणा ही मार्क्सवाद-लेनिनवाद के मुताबिक ग़लत है। ये अपने आपको मज़दूर वर्ग का “राजनीतिक केन्द्र” बताते रहे हैं। इस पर हमारा शुरू से यह प्रश्न था कि ऐसे ही जनराजनीतिक केन्द्र के तौर पर रूस के कम्युनिस्ट आन्दोलन में एक्सेलरोद ने एक मज़दूर कांग्रेस का प्रस्ताव रखा था। इस पर लेनिन ने कड़ी आपत्ति दर्ज करायी थी और कहा था कि मज़दूरों का एक ही राजनीतिक केन्द्र होता है और वह है पार्टी। इसके अलावा, कोई भी राजनीतिक केन्द्र बनाने का प्रयास पार्टी की सौत को जन्म देगा और विसर्जनवादी धारा को आगे बढ़ायेगा। दरअसल इंमके के लोगों की यह ग़ैर-मार्क्सवादी सोच भी इनकी अपनी नहीं है, बल्कि इन्होंने इसे पश्चिम बंगाल के एक संगठन से चोरी किया है जो कि पार्टी से इतर मज़दूर वर्ग के एक राजनीतिक केन्द्र की बात करते हैं। इंमके की राजनीतिक नैतिकता का अन्दाज़ा इन्हीं बातों से चलता है। इनकी पूरी राजनीति ही अब तक विजातीय रुझानों से टुकड़ों-टुकड़ों में लाइन चोरी करके चलती रही है। तमाम प्रश्नों पर इंमके लगातार अपनी अवस्थिति इसी प्रकार बदलता रहा है, विचारों को बिना सन्दर्भ बताये चोरी करता रहा है और मौलिक तौर पर अगर इसने कुछ किया है तो वह अर्थवाद, ट्रेडयूनियनवाद, संघाधिपत्यवाद, अवसरवाद और कुत्साप्रचार की राजनीति है। हम आगे इनके इस चौर्य-लेखन पर विस्तार से एक लेख प्रकाशित करेंगे। लेकिन अभी इतना कहना पर्याप्त है कि ऐसे संगठन की यही नियति थी कि अन्त में वह ग़द्दारी और दलाली के दलदल में जाकर गिरे। वज़ीरपुर के गरम रोला आन्दोलन में इंमके की कुत्सित और निकृष्ट दलाली और ग़द्दारी के चलते ही यह स्थिति है कि मज़दूर इन्हें देखते ही खदेड़ रहे हैं। इस आन्दोलन की यह एक बड़ी उपलब्धि थी कि इसने मज़दूर वर्ग के इन भीतरघातियों को बेनक़ाब किया और अपनी क़तारों से बाहर खदेड़ दिया।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2014

 

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