हिन्दी साहित्य में कहाँ है आज के मज़दूरों का जीवन?

कात्यायनी

इस बात पर काफ़ी चर्चे होते रहे हैं कि हमारे समाज में समकालीन स्तरीय साहित्य का पाठक वर्ग काफ़ी सिमट गया है। आज भी हिन्दी में सबसे अधिक प्रेमचन्द पढ़े जाते हैं। कामतानाथ, रवीन्द्र कालिया, मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा, अलका सरावगी, संजीव, शिवमूर्ति, उदय प्रकाश आदि के चर्चित उपन्यासों के पाठक वर्ग का दायरा भी काफ़ी छोटा है। हर सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या की तरह इस समस्या के भी कई कारण हैं। किताबों की ऊँची क़ीमतें, लाइब्रेरी-सप्लाई करके अंधाधुंध मुनाफ़ा कमाने की प्रकाशकों की अन्धी हवस के चलते आम लोगों तक पुस्तकों को पहुँचाने वाले किसी प्रभावी तंत्र का अभाव, इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रभाव के कारण आम पढ़े-लिखे लोगों की सांस्कृतिक अभिरुचि में आई गिरावट आदि को इस समस्या के कुछ स्थूल कारणों के रूप में देखा जा सकता है।

industrial workerइनके अतिरिक्त कुछ बुनियादी सामाजिक ऐतिहासिक कारण भी हैं। हमारे समाज के तीव्र पूँजीवादीकरण ने एक ऐसी मध्यवर्गीय आबादी की भारी संख्या पैदा की है जो बाज़ार-संस्कृति का अन्ध-उपासक और गैर-जनतांत्रिक प्रवृत्ति का है। कला-साहित्य-संस्कृति से न तो इसका कुछ लेना-देना है और न ही आम जनता के जीवन से। व्यापार-प्रबन्धन, बचत, निवेश और मौज-मस्ती आदि की इसकी अपनी दुनिया है जो शेष समाज से एकदम कटी हुई है। एक कारण यह भी है कि तमाम भौतिक प्रगति के बावजूद, हमारे समाज के आम लोगों की आँखों में आज वे भविष्य-स्वप्न नहीं हैं जो सामाजिक जीवन को आवेगमय बनाते हैं। यह समय गतिरोध और विपर्यय का समय है। सामाजिक मुक्ति की कोई नयी परियोजना अभी जीवन में हलचल पैदा करने वाली भौतिक शक्ति नहीं बन पायी है। इतिहास के ऐसे कालखण्डों में स्तरीय जनपरक साहित्य का दायरा प्रायः काफ़ी संकुचित हो जाया करता है। लेकिन इन कारणों से जुड़ा हुआ एक और कारण है जिसे हम यहाँ विचारार्थ अपने उन सहयात्री साहित्यकारों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहते हैं जो साहित्य में कुलीनतावाद का विरोध करते हैं।

पिछली लगभग आधी शताब्दी के दौरान भारतीय समाज के विशिष्ट किस्म के पूँजीवादी रूपान्तरण की जो आम दिशा और गतिकी (डाइनॉमिक्स) रही है और उसने सामाजिक संरचना तथा आम लोगों के जीवन पर जो प्रभाव छोड़े हैं, उनकी इन्दराजी हिन्दी के कथा-साहित्य में न के बराबर ही हुई है। इसके केवल एक प्रतिनिधि-उदाहरण से हम अपनी बात स्पष्ट करना चाहेंगे।

राष्ट्रीय नमूना सर्वे संगठन के 1999-2000 में किये गये सर्वेक्षण के मुताबिक देश में कुछ 39.7 करोड़ कामगार हैं जिनमें से 36.9 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में अस्थायी, दिहाड़ी या ठेका मज़दूर के रूप में काम कर रहे हैं जिन्हें सुनिश्चित वेतन, मज़दूरी, स्वास्थ्य, पेंशन और भविष्यनिधि जैसी कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं हासिल है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक इन 36.9 करोड़ असंगठित मज़दूरों में से 23.9 करोड़ कृषि क्षेत्र में, 1.7 करोड़ भवन निर्माण में और शेष कारख़ानों, खदानों और सेवा-क्षेत्र में काम करते हैं। ग़ौरतलब है कि ये आँकड़े आठ वर्ष पुराने हैं। इस दौरान किसान आबादी के सर्वहाराकरण और विस्थापन की प्रक्रिया पिछले दशक की तुलना में अधिक रही है। राष्ट्रीय नमूना सर्वे संगठन के 2004-2005 के 61वें चक्र की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2000 से 2005 के बीच उद्योगों में कार्यरत पुरुष मज़दूरों की संख्या में 1.6 प्रतिशत और स्त्री मज़दूरों की संख्या में 23.6 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। शहरों के अनौपचारिक क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों में कार्यरत मज़दूरों की संख्या इस दौरान 6 करोड़ 47 लाख से बढ़कर 8 करोड़ 44 लाख हो गयी। इसी दौरान कृषि और अन्य क्षेत्रों में कार्यरत सर्वहाराओं की संख्या में भी भारी वृद्धि हुई है और गाँवों से शहरों की ओर विस्थापन की रफ्तार भी तेज़ हुई है। अनुमान लगाया जा सकता है कि उद्योगों-खदानों-भवननिर्माण और सेवा क्षेत्र में कार्यरत शहरी मज़दूरों की आबादी इस समय 20 करोड़ के आसपास होगी और ग्रामीण मज़दूरों की संख्या भी 30-32 करोड़ से कम न होगी। इस सर्वहारा आबादी के साथ यदि अर्द्धसर्वहारा आबादी (लघु एवं सीमान्त किसान, रेहड़ी-खोमचे और छोटे-मोटे स्वरोजगार वाली शहरी आबादी) को भी जोड़ दें तो यह आबादी किसी भी तरह से साठ करोड़ से कम न होगी। यानी देश की कुल आबादी की आधी से भी अधिक सिर्फ़ सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी है। यहाँ हम परेशान हाल निम्न मध्यवर्गीय आबादी को नहीं जोड़ रहे हैं।

हम विनम्रता, चिन्ता और सरोकार के साथ साहित्यक्षेत्र के सुधी सर्जकों का ध्यान इस नंगी-कड़वी सच्चाई की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं कि उस मेहनतकश आबादी की, जो देश की कुल आबादी के पचास प्रतिशत से भी अधिक हो चुकी है, ज़िन्दगी की जद्दोजहद समकालीन हिन्दी साहित्य की दुनिया में लगभग अनुपस्थित है। आप याद करके ऐसे कितने उपन्यास या कहानियाँ उँगली पर गिना सकते हैं जिनकी कथाभूमि कोई औद्योगिक क्षेत्र की मज़दूर बस्ती और कारख़ानों के इर्दगिर्द तैयार की गयी हो, जिनमें हर वर्ष अपनी जगह-जमीन से उजड़ने, विस्थापित होकर शहरों में आने और आधुनिक उत्पादन-तकनोलॉजी में आने वाले कारख़ानों में दिहाड़ी या ठेका मज़दूर के रूप में बारह-बारह, चौदह-चौदह घण्टे खटने वाले नये भारतीय सर्वहारा के जीवन की तफ़सीलों की प्रामाणिक ढंग से इन्दराजी की गयी हो। और इनके पीछे की कारक-प्रेरक शक्ति के रूप में काम करने वाली सामाजिक-आर्थिक संरचना की गति को अनावृत्त करने की कोशिश की गयी हो? सच्चाई यह है कि जो मज़दूर वर्ग आज संख्यात्मक दृष्टि से भी भारतीय समाज का बहुसंख्यक हिस्सा बन चुका है, उसका जीवन और परिवेश जनवादी और प्रगतिशील साहित्य की चौहद्दी में भी लगभग अनुपस्थित है। मज़दूर वर्ग और समाजवाद के प्रति रस्मी, दिखावटी या पाखण्डपूर्ण प्रतिबद्धता का भला इससे अधिक जीता-जागता प्रमाण और क्या हो सकता है?

हिन्दी का जो प्रगतिशील, वामपंथी माना जाने वाला साहित्य है, मोटे तौर पर उसकी विषयवस्तु को कुछ श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। समाज-विकास की दिशा एवं गतिकी की समझ और भविष्य-स्वप्नों के अभाव के कारण, कुछ साहित्यकार ऐतिहासिक विषयवस्तु केन्द्रित उपन्यासों, आत्मकथाओं एवं संस्मरणों के जरिए अतीत को अपना अन्तिम शरण्य बना रहे हैं। वे आज की ज़मीन पर खड़े होकर इतिहास को देखने और वर्तमान की समस्याओं के लिए आवश्यक दिशा-दृष्टि हासिल करके भविष्य-संधान करने के बजाय नास्टैल्जिया में जी रहे हैं। कुछ मध्यवर्गीय जीवन की आत्मिक वंचनाओं-विडम्बनाओं-त्रसदियों के यथातथ्य ब्यौरे प्रस्तुत कर रहे हैं या कोई फ़ंतासीनुमा उत्तर-आधुनिक आख्यान रच रहे हैं। कुछ नयी आंचलिकता का ‘ट्रेण्ड’ गढ़कर अतीत की ज़मीन पर खड़े होकर पूँजीवादी विपदाओं का विरोध-पक्ष खड़ा कर रहे हैं। कुछ समाज-निरपेक्ष, स्त्री मुक्ति की उत्तर आधुनिक, पॉपुलिस्ट किस्सागोई कर रहे हैं और कुछ वर्षनाओं से मुक्ति के नाम पर यौन-रस के चटखारे ले रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो समाजवाद और वामपंथी आन्दोलन की पराजय की दार्शनिक-ऐतिहासिक समझ के अभाव में, अपनी कथाकृतियों में या तो गलत कारणों की निशानदेही कर रहे हैं या फ़िर पश्चातापी मुद्रा में रो-सिसक रहे हैं या फ़िर ”बाज़ार-समाजवादी“ मुद्रा अपना चुके हैं। कुल मिलाकर ऐसा ही कुछ वर्णक्रम बनता है हिन्दी के वामपंथी कथा-साहित्य का।

इसके कारण क्या हैं? इसके लिए हिन्दी के साहित्यकारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी एक कारण है। स्थापित और चर्चित साहित्यकारों का बड़ा हिस्सा वस्तुतः भारतीय समाज के ‘विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक उपभोक्ता वर्ग (प्रिविलेज़्ड माइनॉरिटी कंज्यूमर क्लास) में शामिल हो चुका है। वह विश्वविद्यालयों-कालेजों में पढ़ाता है, बैंकिंग, पुलिस, नागरिक सेवा, आयकर, बिक्रीकर जैसे विभागों का उच्चाधिकारी है, किसी अखबार या इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करता है या स्थापित फ्रीलांसर है, या फ़िर डॉक्टर या इंजीनियर है। ऐसा होना कोई गुनाह नहीं है। हम यहाँ केवल आर्थिक स्थिति की चर्चा कर रहे हैं। लेखकों-कवियों की बहुत छोटी संख्या है जो क्लर्क है या बेरोजगार है या चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी है। यह आबादी ज्यादातर महानगरों में रहती है, यह ग़लत नहीं है। पर दुख और अफ़सोस की बात यह है कि महानगरों की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के रोजमर्रे के जीवन से वह इतनी दूर और इतनी कटी हुई रहती है कि मज़दूर उसके लिए ‘अदृश्यप्राय’ होते हैं। अधिकांश लेखकों के पास सर्वसुविधासम्पन्न अपने फ्लैट या बंगले हैं, गाड़ी है, बैंक बैलेंस और शेयर में निवेश है। उनका सामाजिक जीवन इतना संकुचित हो गया है कि वे मानवाधिकार पर आयोजित किसी प्रदर्शन में तो दूर, कॉफ़ी हाउस भी कम जाते हैं। साहित्यकारों के विरोध-प्रदर्शनों का चरित्र भी अब काफ़ी कुलीन रस्मी और फ़ैशनेबुल हो गया है। ऐसे लोगों से यह उम्मीद की ही नहीं जा सकती कि वे कम से कम अपनी छुट्टियों का कुछ समय भी मज़दूरों की बस्तियों में बितायें। राजनीतिक काम वे न करें, लेकिन आम मज़दूर के जीवन को, उत्पादन की प्रक्रिया और भूमण्डलीकरण के दौर में उसमें आये बदलावों को जानने-समझने के लिए तो उन्हें ऐसा करना ही चाहिए। इसके लिए ज़रूरी नहीं कि वे राजनीतिक कर्मी हों या किसी संगठन से जुड़े हों। लेकिन सच्चाई यह है कि उनका जीवन इसकी इजाज़त नहीं देता। वे उच्च मध्यवर्गीय जीवन के सर्वव्याप्त अलगाव और उपभोक्ता संस्कृति के सुखभोगवाद शिकार हैं। उनके पास कुछ अतीत के यादों की पूँजी है, ट्रेनों-बसों की खिड़कियों से देखे गये आम जीवन के दृश्यों का अनुभव है, अखबारों-पत्रिकाओं से किया गया कुछ अध्ययन है और कुछ चौंक-चमत्कार के नुस्खे हैं। बस इसी पूँजी से सृजन-कर्म का सारा क्रिया-व्यापार चल रहा है। वैसे हिन्दी के अधिकांश लेखक अर्थशास्त्र, दर्शन और इतिहास के अध्ययन की भी कोई जरूरत नहीं समझते। वे सिर्फ़ साहित्य का अध्ययन करते हैं। इसीलिए वे उत्पादन-प्रणाली में बदलाव के चलते सामाजिक जीवन में होने वाले संक्रमण को किताबी ढंग से भी नहीं समझ पा रहे हैं। कभी वे किसानी की दुर्दशा पर नरोदवादी ढंग से विधवा-विलाप करते हुए अतीतोन्मुख-अवैज्ञानिक नास्टैल्जिया के शिकार हो जाते हैं तो कभी उपभोक्ता संस्कृति का विरोध करते हुए गाँधीवादी यूटोपिया के शरणागत हो जाते हैं।

यूरोप में जब औद्योगिक क्रान्ति हो रही थी तो वहाँ यथार्थवाद की एक धारा के रूप में औद्योगिक उपन्यासों का चलन ही चल पड़ा। कई उपन्यासकारों ने मज़दूरों के बीच और कारख़ानों में जाकर लम्बा समय बिताया और पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली तथा मज़दूर वर्ग के जीवन के ऐसे प्रामाणिक चित्र उकेरे कि उनकी साहित्यिक कृतियाँ आर्थिक इतिहास के दस्तावेज प्रतीत होती हैं। औद्योगिक परिवेश और मज़दूरों के जीवन पर ऐसी कृतियाँ रचने की शुरुआत ब्रिटेन में चार्ल्स डिकेंस और एलिज़ाबेथ गैस्केल ने की और फ़िर यह परम्परा लगभग उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक जारी रही। फ्रांस में एमिल ज़ोला ने मज़दूरों पर केन्द्रित अपना पहला उपन्यास ‘द ड्रामशाप’ लिखने के लिए लम्बा समय औद्योगिक मज़दूरों के बीच बिताया। कोयला खदान के मज़दूरों पर केन्द्रित अपने विश्वविख्यात कृति ‘जर्मिनल’ की रचना से पहले ज़ोला ने लम्बा समय एक खदान-क्षेत्र के मज़दूरों के बीच बिताया तथा भूमिगत कोयला खदान में उत्खनन की पूरी प्रक्रिया, उसमें लगे मज़दूरों के जीवन, उनके आन्दोलन और आन्दोलन के दौरान उनके जीवन और चेतना में होने वाले परिवर्तनों का गहन अध्ययन किया। नतीज़तन, ‘जर्मिनल’ उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन का एक लघु प्रतिरूप बन गया। अमेरिकी उपन्यासकार अप्टन सिंक्लेयर ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘जंगल’ में औद्योगिक पूँजीवाद में मेहतनकश स्त्रियों-पुरुषों की अमानवीय स्थितियों का जींवत दस्तावेज प्रस्तुत किया। यह उपन्यास लिखने से पहले उन्होंने शिकागो के स्टाकयार्डों में काम करने वाले उन स्त्रियों-पुरुषों के बीच लम्बा समय बिताया जो उन मूक पशुओं जैसे ही हो गये थे जिन्हें वे कसाईबाड़े में जिबह किया करते थे। महत्वपूर्ण यह है कि मज़दूरों के जीवन और औद्योगिक समाज का प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत करने के लिए वहाँ जाकर रहने वाले उन्नीसवीं शताब्दी के ज्यादातर लेखक तो मज़दूर क्रान्ति या समाजवाद के पक्षधर भी नहीं थे। हाँ वे प्रामाणिक यर्थाथ-चित्रण के प्रबल आग्रही थे।

एमिल ज़ोला की शवयात्रा जब पेरिस की सड़कों से गुजर रही थी तो किनारे खड़े खदान मज़दूरों की भारी भीड़ ‘जर्मिनल! जर्मिनल!’ चिल्ला रही थी। आज भी, हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि यदि किसी साहित्यकार की रचना में आम मेहनतकशों के जीवन का प्रामाणिक चित्र होगा, तो वह उनके दिलों में अवश्य ही अपना स्थान सुरक्षित कर लेगा। हिन्दी का औसत वामपंथी, प्रगतिशील लेखक यह नहीं जानता कि पूँजी किस प्रकार किसानों के निचले संस्तरों को अपनी जगह-ज़मीन से उजाड़कर सर्वहारा की कतारों में ढकेल रही है? वह नहीं जानता कि भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम के सर्वव्यापी ठेकाकरण-दिहाड़ीकरण के मूल कारण प्रक्रिया और परिणाम क्या है? वह नहीं जानता कि आज के कारख़ानों के उत्पादन की प्रकृति कैसी है और लगभग पन्द्रह करोड़ औद्योगिक मज़दूरों का जीवन कैसा है? वह सिर्फ़ कल्पना ही कर सकता है कि रोजाना बीस रुपये की कमाई से देश की 77 करोड़ आबादी कैसे जी पाती है?

यह एक प्रमुख, बल्कि हमारी दृष्टि में तो सबसे बड़ा कारण है कि हिन्दी के जनपक्षधर और प्रगतिशील माने जाने वाले साहित्य का भी आम पाठक वर्ग अत्यन्त छोटा है। साहित्य के घटते पाठकों की समस्या पर तमाम सैद्धान्तिक विश्लेषणों की जुगाली करने से पहले सबसे ज़रूरी तो यही लगता है कि हम अपनी जीवन-शैली की जन-विमुखता के बारे में गहराई और ईमानदारी के साथ सोचें-विचारें। फ़ैशनेबुल, अकर्मण्य वामपंथ से घिनौनी-बदबूदार दूसरी कोई चीज़ नहीं होती। आज मज़दूरों की जो युवा पीढ़ी कारख़ानों में आ रही है, खदानों, भवन-निर्माण, गोदामों, बन्दरगाहों पर काम कर रही है, उनमें से अधिकांश पढ़े-लिखे हैं। कुछ तो बी.ए. पास तक होते हैं। यदि लेखक की रचना में उनकी ज़िन्दगी की परेशानियाँ और संघर्षों की सही-सच्ची इन्दराजी होगी तो उन मेहनतकशों के बीच से साहित्य का नया पाठक वर्ग पैदा होगा। यह आज थोड़ी विस्मयकारी बात लग सकती है, लेकिन दरअसल है नहीं।

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008

 

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