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कात्यायनी की कविताएँ
1. कुण्डलाकार विचार
पृथ्वी कितना सूक्ष्म भाग है
और मनुष्य
कितना सूक्ष्मातिसूक्ष्म कणांश है
इस ब्रह्माण्ड का।
मिटना है एक दिन पृथ्वी को,
पृथ्वी पर जीवन को।
फिर क्यों कुछ करें?
क्यों लिखें कविता?
क्यों समय व्यर्थ करें
नया समाज बनाने की चिन्ता-तैयारी में?
क्यों करें नये-नये आविष्कार?
क्यों न जियें जीवन
जो मिला मात्र एक है, सीमित है।
सोचते रहें इन प्रश्नों पर भले ही,
पर चलो थोड़ा जी लें।
शुरू कहाँ से करें जीना,
सुखपूर्वक
आज़ादी से।
चलों, लिखें एक कविता।
अपने लोगों के पास चलें
सोचें नया समाज रचने की
तैयारी करें।
किसी नये आविष्कार की उत्तेजना,
किसी दार्शनिक चिन्ता या उलझन में
जियें
जीना फिर यहाँ से शुरू करें!
2. मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है
हम पढ़ते हैं
अपने सामाजिक प्राणी होने के बारे में।
हम होते हैं
एक सामाजिक प्राणी।
बचा रह जाता है
बस जानना
एक सामाजिक प्राणी होने के बारे में।
जैसे ही हम जान जाते हैं
एक सामाजिक प्राणी की ज़रूरतों,
कर्तव्यों और अधिकारों को
कि
असामाजिक घोषित कर दिये जाते हैं।
3. बेहतर है…
मौत की दया पर
जीने से
बेहतर है
जिन्दा रहने की ख़्वाहिश
के हाथों मारा जाना!
4. उनका भय
जब हम गाते हैं तो वे डर जाते हैं।
वे डर जाते हैं जब हम चुप होते हैं।
वे डरते हैं हमारे गीतों से
और हमारी चुप्पी से!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012
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