अण्णा हज़ारे की महिमा बनाम संसद की गरिमा: तुमको क्या मँगता है?

प्रेम प्रकाश

विगत 25 मार्च को अण्णा हज़ारे का एकदिवसीय अनशन जन्तर-मन्तर पर सम्पन्न हुआ। ‘व्हिसिल ब्लोअर्स’ (सिटियाबाज़ों, ओह, माफ़ कीजियेगा, मतलब कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आवाज उठाने वालों) की सुरक्षा को लेकर अनशन पर बैठे अण्णा सदस्यों की माँग एक ‘‘मज़बूत लोकपाल’’ की है और लोकपाल कानून अगर 2014 तक नहीं बना तो बकौल अण्णा वे लोग एक बड़ा आन्दोलन खड़ा करेंगे! अण्णा ‘‘आन्दोलन’’ को खड़ा करने में मीडिया ने बड़ी भूमिका निभायी और इस ‘‘आन्दोलन’’ से मीडिया ने खूब चाँदी भी कूटी। इस बार भी मीडिया अपने लाव-लश्कर के साथ धरना स्थल पर जम गया। अपने वक्तव्य में टीम अण्णा के एक सदस्य अरविन्द केजरीवाल ने संसद को लुटेरों, बलात्कारियों और हत्यारों का अड्डा बताया तो मानो मीडिया को नया मसाला मिल गया। वैसे तो पूरा अण्णा आन्दोलन ही मीडिया के लिए मसाला है। सभी चैनलों पर इस बात पर चर्चा छिड़ गयी कि अण्णा ‘‘आन्दोलन’’ कहीं भटक तो नहीं गया! ‘संवाद की भाषा’, ‘संसद की गरिमा’ आदि मुद्दों पर बहसों की झड़ी लग गयी! टीम अण्णा पर संसद की मर्यादा और उसके खिलाफ अभद्र भाषा के प्रयोग का आरोप लगने लगा। यह बात उठने लगी की टीम अण्णा लोगों के अन्दर सरकार और राज्य के खिलाफ अविश्वास भर रही है; कहा जाने लगा कि संसद में बैठे सभी सांसद अपराधी तो नहीं हैं! संसद में बैठी तमाम पार्टियों ने अभतपूर्व एकता दिखाते हुए टीम अण्णा को जी भर कर कोसा। जद (यू) के शरद यादव ने कहा कि ऐसी अमर्यादित और ग़ैर-वाजिब टिप्पणी से लोगों का विश्वास टूट जाएगा। सपा के मुलायम सिंह यादव ने कहा कि ऐसे लोगों को मुजरिम की तरह संसद में तलब कर विशेषाधिकार हनन के प्रावधानों के तहत कार्यवाई होनी चाहिए। सांसद लोग वाकई नाराज़ थे!

Lokpal

इस पूरे विवाद में हमारे सामने जो खेमे पैदा किये गये हैं वे हैं अण्णा आन्दोलन और संसद की गरिमा और प्राधिकार। वास्तव में, जनता के लिए ये दोनों ही खेमे कोई विकल्प मुहैया नहीं कराते हैं। अण्णा आन्दोलन के तीरन्दाज़ कहते हैं कि संसद अब भ्रष्टाचारियों, लुटेरों और व्याभिचारियों का अड्डा बन गयी है। यह बात तो सच ही है! अरविन्द केजरीवाल जैसे लोगों की टिप्पणियाँ इस सवाल पर धीरे-धीरे अधिक से अधिक अमर्यादित और गाली-गलौच जैसी होती जा रही हैं। इसका वास्तविक कारण तो यह है कि अण्णा के बुलबुले की हवा काफ़ी हद तक निकल चुकी है और लगातार निकल रही है। इससे बौखलाकर टीम अण्णा के सदस्य लगातार अपने बयानों को अधिक से अधिक तेज़ाब में डुबाकर दे रहे हैं, ताकि मीडिया उसको कवर करे! टीम अण्णा की इस हताश और बौखलाहट भरी प्रतिक्रिया के जवाब में संसद में बैठे लोग यह तर्क दे रहे हैं कि तमाम दिक्कतों और भ्रष्टाचार के बावजूद संसद ही देश की सर्वोच्च प्रातिनिधिक संस्था है और सारे के सारे सांसद अपराधी और बेईमान नहीं हैं! चूँकि लोकतन्त्र में संसद जनता द्वारा चुनी जाती है इसलिए संसद की गरिमा और मर्यादा का सम्मान किया जाना चाहिए! तमाम सांसद टीम अण्णा से कहते हैं कि लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति उन लोगों के मन में तिरस्कार नहीं होना चाहिए! सांसदों द्वारा संसद की ‘‘गरिमा’’ और ‘‘मर्यादा’’ के बचाव के बारे में ज़्यादा कुछ कहना व्यर्थ है! बचाने के लिए कुछ बचा हो तभी तो बचाव हो सकता है! लेकिन गरिमा और मर्यादा के प्रति सांसदों की अपील जब धमकी और चेतावनी में तब्दील होने लगती है, तो संसद को भ्रष्टाचारियों और अपराधियों का अड्डा बोलने वाली टीम अण्णा यह बयान दे देती है कि वह संसद की गरिमा पर सवाल नहीं खड़ा कर रही है और उसे संसद की संस्था में भरोसा है! बस अगर भ्रष्ट और अपराधी तत्वों का इसमें से सफ़ाया हो जाय तो स्थिति बेहतर हो जायेगी! और इस सफ़ाई के लिए ही जन लोकपाल के टीम अण्णा के प्रस्ताव को बकौल टीम अण्णा मान लिया जाना चाहिए!

इस पूरी तुर्की-बतुर्की बहस से जो कि वास्तव में एक मीडिया शो में तब्दील हो चुकी है, साफ़ हो जाता है कि टीम अण्णा के आन्दोलन और संसद में से जनता के लिए कोई भी सच्चा विकल्प नहीं है। अण्णा के आन्दोलन की शुरुआत में भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ अपनी भयंकर नफ़रत के कारण आम मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के भी लोग सड़कों पर उतरे थे। लेकिन इस आन्दोलन के आगे बढ़ने के साथ ही जनता के सामने यह साफ़ होता गया कि न तो टीम अण्णा के लोग दूध के धुले हैं और न ही टीम अण्णा के प्रस्तावित जनलोकपाल से भ्रष्टाचार दूर होने वाला है। ज़्यादातर लोगों ने तो टीम अण्णा के जनलोकपाल के बारे में पढ़ा भी नहीं था, और वे जानते भी नहीं थे कि यह प्रस्ताव अपने आप में एक जनविरोधी प्रस्ताव था। वे बस अपने गुस्से का इज़हार करने के लिए सड़कों पर उतरे थे। और जैसा कि टटपुँजिया वर्गों के साथ होता है, जब गुस्से का प्रेशर निकल गया तो वे अपने-अपने घर लौट गये। संसद-विधानसभाओं से तो जनता कब की ऊबी हुई है। अण्णा हज़ारे और उनके चेले-चपाटी पहले तो पूरी की पूरी संसद और विधानसभाओं, भारत के पूरे राजनीतिक वर्ग और नौकरशाही को भ्रष्ट और असुधारणीय बताते हैं_ लेकिन इसके बाद वे इस पूरे शासक वर्ग को उखाड़ फेंकने की बात नहीं करते! वे इसी (भ्रष्ट और असुधारणीय) शासक वर्ग और उसकी व्यवस्था से चिरौरी-मिन्नत करते हैं, उसे ब्लैकमेल करते हैं, फिर उससे विनती करते हैं, कि वह एक जनलोकपाल बना दे! यह क्या अपने आप में मज़ाकिया नहीं है? इसी से टीम अण्णा की वास्तविक मंशा साफ़ हो जाती है। यह मंशा है जनता के भ्रष्टाचार और व्यवस्था के प्रति गुस्से को एक नपुंसक प्रतिरोध की नौटंकी के जरिये सोख लेना, या उसे एक ‘सेफ्टी वॉल्व’ की तरह धीरे-धीरे निकाल देना। भारतीय पूँजीवादी राजनीति के संकट के समाधान के लिए भारत के पूँजीपति वर्ग को अण्णा हज़ारे, केजरीवाल और किरण बेदी जैसे बहुरूपियों की ज़रूरत थी और उन्होंने इस ज़रूरत को, कुछ अतिरेकपूर्ण हरक़तें करते और बयान देते हुए, पूरा भी किया है।

टीम अण्णा के आन्दोलन में कहीं भी इस बात का ज़ि‍क्र नहीं आता कि अपराध, व्यापार और पूँजीवादी संसदीय राजनीति का ऐसा गठजोड़ किस ज़मीन पर फल-फूल रहा है? अगर हम चुनावों में तमाम पार्टियों द्वारा दिये गए टिकटों पर नज़र डालें तो पाते हैं कि तमाम आचार संहिताओं और चुनाव आयोग की ‘‘मुस्तैदी’’ के बाद भी सभी पार्टियाँ आपराधिक पृष्ठभूमि वालों को टिकट दे रही हैं। 2004 में लोकसभा चुनाव में 128 लोग आपराधिक पृष्ठभूमि के थे जो 2009 में बढ़कर 162 हो गए। और ऐसा सभी पार्टियाँ कर रही हैं। पिछले वर्ष राज्यसभा में कुल 245 सदस्यों में से 128 सदस्य व्यापारी, उद्योगपति, बिल्डर या कारोबारी थे। राज्यसभा में तकरीबन 86 उद्योगपति व कारोबारी तथा 40 बिल्डर व व्यापारी हैं जो राजनीति में ‘‘जनसेवा’’ या ‘‘देशसेवा’’ की इच्छा से नहीं आये वरन अपने धन्धे को और बढ़ाने व उसे सुरक्षित रखने के लिए विशेष अधिकार पाने की गरज से आये हैं। इनमें से तमाम सदस्य राज्यसभा में पहुँचने से पहले पार्टी आलाकमान को सुविधायें मुहैया कराने में आगे हैं। इस सूची में झारखण्ड के उद्योगपति आर.के. अग्रवाल से लेकर नागपुर के अजय संचती तक है। तमाम उद्योगपतियों के लिए राज्यसभा या संसद तक पहुँचने का मतलब क्या है इसे संसद की स्टैण्डिंग कमेटी के ढाँचे को देखकर समझा जा सकता है। कम्पनी मामलों की स्टैण्डिंग कमेटी में राज्यसभा के 6 सदस्य ऐसे हैं जो खुद कई कम्पनियों के मालिक हैं। वित्त मंत्रलय की 61 सदस्यीय स्टैण्डिंग कमेटी में 19 सदस्य फाइनेंस कम्पनी चलाते हैं। स्वास्थ्य एवं शिक्षा की स्टैण्डिंग कमेटी में 3 सदस्य ऐसे हैं जिनके या तो अस्पताल हैं या मेडिकल संस्थान। किंगफिशर विमान कम्पनी के मालिक विजय माल्या को प्रफुल्ल पटेल ने नागरिक उड्डयन मंत्रालय की संसदीय कमेटी का सदस्य बनवा दिया और तमाम सरकारी सुविधाएँ किंगफिशर को मिलने लगीं। निगम चुनाव, ग्राम पंचायत, संसद एवं विधानसभाओं में क्या साफ नहीं दिखता कि बिल्डर, ठेकेदार, व्यापारी और कम्पनी मालिकों का चुनाव हो रहा है? क्या यह साफ-साफ दिखायी नहीं देता कि बुर्जुआ चुनाव प्रक्रिया धनबल, बाहुबल से सत्ता पाने का खेल है? जनता को वोट के इस खेल में वास्तव में चुने जाने का कहीं भी अधिकार नहीं है। मौजूदा व्यवस्था जनतंत्र नहीं वरन जनतंत्र के नाम पर धनतंत्र है। ऐसा इसके आज और अधिक भ्रष्ट हो जाने के कारण नहीं है बल्कि इसलिए है कि पूँजीवादी जनतंत्र का आधार और हाड़, मांस-मज्जा ही धनतंत्र के बने हैं। यह इसकी विकृति नहीं वरन इसकी प्रकृति है, इसकी स्वाभाविक गतिकी है। यह विद्रूप रुदन कि संसद की ‘‘गरिमा और मर्यादा’’ बची रहे वास्तव में पूँजी के टुकड़खोरों द्वारा पूँजीवाद में जनता के विश्वास को बरकरार रखने का खेल है और टीम अण्णा के मदारियों को यह संकेत है कि व्यवस्था की दूरगामी रक्षा करने के चक्कर में उसकी नैया तत्काल ही मत डुबा डालो!

देश के आम मेहनकतश लोग समझ रहे हैं कि अण्णा बनाम सरकार के पूरे शो में वास्तविक सवाल छिपा दिये गये हैं। यह शो वास्तव में पूँजीवाद की वास्तविक नंगई पर पर्दा डालने की कोशिश करता है। यह एक ग़लत/काल्पनिक दुश्मन पैदा करता है। यह असली दुश्मन को नज़र से ओझल करता है। अण्णा बनाम सरकार एक छद्म विकल्पों का युग्म है। सभी जानते हैं कि अगर कानूनों और अधिनियमों से सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक समस्याएँ दूर होतीं, तो इस देश के मज़दूरों की स्थिति बहुत बेहतर होती क्योंकि उनके लिए तो 206 श्रम कानून बने हुए हैं; वैसे तो भ्रष्टाचार-निरोधक कानून भी बना हुआ है; क्या कन्या भ्रूण हत्या के खि़लाफ़ कानून पास होने से यह समस्या ख़त्म हो गयी? यह तो और बढ़ी है! क्या शिक्षा के अधिकार के लिए कानून पास होने से देश में अशिक्षा ख़त्म हुई है? क्या न्यूनतम मज़दूरी और खाद्य सुरक्षा के लिए कानून बनने से ये समस्याएँ दूर हो जायेंगी? जब 64 साल के इतिहास में एक भी कानून ने कोई समस्या हल नहीं की तो ऐसा मानने वाला अव्वल दर्जे़ का मूर्ख या छँटा हुआ राजनीतिक छलिया और चार सौ बीस ही होगा कि जनलोकपाल (या कोई भी लोकपाल) बनने से भ्रष्टाचार की समस्या दूर होगी! ज़्यादा उम्मीद तो यही है कि भ्रष्ट होने के लिए एक नया अधिकारी पैदा हो जायेगा! इसलिए मूल सवाल है मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में आमूल-चूल बदलाव। और अण्णा और सरकार दोनों ही इस मूल प्रश्न पर जनता का ध्यान नहीं जाने देना चाहते हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012

 

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