राष्ट्र खाद्य सुरक्षा कानून मसौदा: एक भद्दा मज़ाक

प्रेम प्रकाश

पिछले दो वर्षों से खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर समय-समय पर चर्चाएँ होती रही हैं। यू.पी.ए. के चुनावी घोषणापत्र का प्रमुख एजेण्डा रहा खाद्य सुरक्षा कानून उसकी महत्त्वाकांक्षी मार्कशीट का एक अंग है जो उसके वोटबैंक का राजनीतिक ट्रिक साबित हो सकता है। भारत की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभादेवी सिंह पाटिल ने 4 जून, 2009 को अपने एक भाषण में कहा कि एक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाया जाये जो प्रत्येक बी.पी.एल. (ग़रीबी रेखा से नीचे) परिवार को प्रतिमाह कम से कम 25 किलोग्राम अनाज सुनिश्चित करे। लेकिन इन सबके बावजूद ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून’ का जो मसौदा सामने आया, वह अत्यधिक विवादास्पद बना हुआ है। इस मसौदे पर विचार के लिए प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह द्वारा गठित पैनल की बैठक विगत 15 दिसम्बर को सम्पन्न हुई जिसमें प्रधानमन्त्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी. रंगराजन ने भी हिस्सा लिया। बैठक किसी ठोस नतीजे पर पहुँचे बिना ही समाप्त हो गयी। मसौदे पर सत्तापक्ष में एवं अन्य राजनीतिक दलों में कुछ बिन्दुओं पर मतभेद नज़र आ रहे हैं। हालाँकि यह मतभेद उत्तरदायित्व से बचने के ज़्यादा और सबको खाद्य सुरक्षा मिल सके, इसके लिए कम है। इतना ही नहीं सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली ‘राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद’ भी मसौदे के कई बिन्दुओं से “असहमत” है। ऐसे में व्यापक अवाम के नज़रिये से इस मसौदे को देखना बेहद ज़रूरी है एवं यह भी जानना ज़रूरी है कि सत्ता पक्ष व विपक्ष की बहस क्या जनता के हितों के लिए है? या महज़ अपने-अपने राजनीतिक हित के लिए? यह भी विवेचन का विषय है। साथ ही खाद्यान्न संकट और खाद्य असुरक्षा के कारणों की पड़ताल भी ज़रूरी है जो आज भारी आबादी को भुखमरी और कुपोषण के दलदल तक पहुँचा चुकी है। आइये सर्वप्रथम हम इस बिल के मसौदे के कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर ग़ौर करें।

खाद्य सुरक्षा कानून पर विचार करते समय यह प्रश्न दिमाग़ में उठता है कि खाद्य सुरक्षा है क्या? एफ.ए.ओ. के ‘विश्व में खाद्य सुरक्षा की स्थिति-2001’ के अनुसार “खाद्य सुरक्षा ऐसी स्थिति है जो तब अस्तित्व में आती है जब सभी व्यक्तियों को हर समय पर्याप्त, सुरक्षित एवं पौष्टिक भोजन के लिए भौतिक, सामाजिक और आर्थिक पहुँच को सम्भव बनाये; जो लोगों की आहार की ज़रूरतों और खाद्य प्राथमिकताओं के आधार पर एक कार्यशील एवं स्वस्थ जीवन को बनाये रखे।” भारतीय संविधान की सम्मोहनकारी प्रस्तावना की तरह इस बिल की प्रस्तावना भी मोहक है। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि ‘यह एक ऐसा कानून है जो भारत के सभी नागरिकों के कार्यशील और स्वस्थ जीवन के लिए खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करेगा, ताकि वे राष्ट्रनिर्माण में अपने उत्पादक योगदान के लिए सक्षम हो’। जहाँ एक तरफ तो यह कानून अपनी प्रस्तावना में देश के सभी नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा की बात करता है, वहीं दूसरी तरफ धारा 3-1 में इसे योजना आयोग द्वारा जारी ग़रीबीरेखा के आकलन तक ही सीमित कर दिया गया है। मसौदा के धारा 4-1 के अनुसार ‘लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (TPDS) को केवल बी.पी.एल. परिवारों तक ही सीमित रखा गया है। दूसरी तरफ धारा 4-2 के अनुसार ग़रीब परिवारों की संख्या के आकलन के लिए ‘खाद्य एवं वितरण मन्त्रालय’ राज्यों में बी.पी.एल. की संख्या का निर्धारण करेगा। ध्यान रहे यह निर्धारण योजना आयोग द्वारा होता है और यह आयोग हर साल आँकड़ों की बाज़ीगरी से ग़रीबों की संख्या को लगातार घटाकर दिखाता है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे। इस खाद्य सुरक्षा बिल में ए.पी.एल. (‘ग़रीबी रेखा से ऊपर’) परिवारों को बाहर करने की पूरी कोशिश है और इसके लिए योजना आयोग को पूर्ण प्राधिकार प्रदान किया गया है।

मौजूदा मसौदे में प्रत्येक बी.पी.एल. परिवार को 25 किलोग्राम खाद्यान्न देने का प्रावधान है जो वर्तमान में बी.पी.एल. एवं अन्त्योदय अन्न योजना के कार्डधारकों के 35 किलोग्राम के मानक से कम है। मसौदा कानून में धारा 3(2) में अनाज के मूल्य निर्धारण सम्बन्धी अधिकार सरकार के पास हैं जिसे समय-समय पर बढ़ाया जा सकेगा और इसके लिए कानून में संशोधन की कोई ज़रूरत नहीं होगी।

वर्तमान मसैादे में खाद्यान्न सुरक्षा की ज़िम्मेदारी केन्द्र और राज्य सरकार मिलकर उठायेंगी। अनाज को उपलब्ध कराने की ज़िम्मेदारी केन्द्र सरकार की होगी और वितरण एवं भण्डारण का प्रबन्धन राज्य सरकारें करेंगी। यह विधि नागरिकों को अनाज उपलब्ध न हो पाने की दशा में उठे सवालों पर केन्द्र और राज्य सरकारों को एक-दूसरे पर दोषारोपण कर बच निकलने को सम्भव बनायेगी। मसौदे में कई धाराएँ ऐसी हैं जो अनाज उपलब्ध न हो पाने पर परिवारों को नकद भुगतान की बात करती हैं, लेकिन उस नकद भुगतान को बाज़ार की क़ीमतों द्वारा निर्धारित करने का कोई प्रावधान नहीं है। इससे लोग बाज़ार की दया पर जीने के लिए मजबूर होंगे। दूसरे अनाज के स्थान पर नकद रुपया में भुगतान यानी नकद हस्तान्तरण भ्रष्टाचार को और अधिक बढ़ावा देगा, ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजी के दलालों को पैदा करेगा और पूँजी द्वारा श्रम के शोषण को घनीभूत बनायेगा। यह पूँजीवाद शासन तन्त्र के ‘ख़ुद लूटो और अपने लग्गू-भग्गुओं को लूटने का मौका दो’ के मन्त्र को और सटीकता से लागू करेगा।

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मसौदे की धारा 3(2) के तहत प्रत्येक बी.पी.एल. परिवार केवल 25 किलोग्राम अनाज पायेगा जबकि वर्तमान में बी.पी.एल. एवं अन्त्योदय परिवार 35 किलोग्राम अनाज पाता है। अगर वर्तमान में 35 किलोग्राम अनाज 5 रुपये प्रति किलो की दर से मिलता है तो प्रत्येक परिवार को 35 किलोग्राम अनाज के लिए 175 रुपये ख़र्च करने पड़ेंगे, जबकि मसौदा कानून के हिसाब से जिसकी दर 3 रुपये प्रति किलोग्राम होगी तो उसे 25 किलोग्राम अनाज के लिए 75 रुपये ख़र्च करने पड़ेंगे। अब अगर यह परिवार 10 किलोग्राम अनाज बाज़ार से ख़रीदेगा तो सामान्यतया 20 रुपये प्रति किलो की दर से 200 रुपये का भुगतान करेगा। अतः इस मसौदा कानून की दशा में एक परिवार को 275 रुपये ख़र्च करने पड़ रहे हैं, जबकि वर्तमान में लागू योजनाओं के तहत उसे मात्र 175 रुपये में 35 किलोग्राम अनाज मिल जाता है। अतः ऐसे परिवारों के लिए इसमें 100 रुपये अतिरिक्त देना पड़ेगा।

मसौदा कानून के पृष्ठ 6 में बी.पी.एल. कार्डधारकों का निर्धारण प्रत्येक 5 साल पर करने की बात की गयी है। महँगाई की इतनी तेज़ी से बढ़ती दर और निरन्तर छिनते रोज़गार की दशा में यह ठीक नहीं है। यह दीर्घ अवधि बहुत से परिवारों को जब भूखों मरने पर मज़बूर करेगी तो वर्तमान कानून उनको खाद्य सुरक्षा के लिए कोई अधिकार नहीं देगा। मसौदा में केवल बी.पी.एल. परिवारों को ही खाद्यान्न सुरक्षा देना सरकार के लिए बाध्यताकारी होगा और ए.पी.एल. परिवार की दशा में यह भारत सरकार के पूल के अतिरिक्त भण्डारण पर निर्भर करेगा। इससे यह साफ ज़ाहिर होता है कि कुपोषण के शिकार बहुतायत निम्न आय वर्ग वाले ए.पी.एल. परिवारों के लिए इस कानून में कोई जगह नहीं है। अन्नपूर्णा योजना, अन्त्योदय अन्न योजना जैसी तमाम योजनाओं को हटाने का प्रावधान भी इस मसौदा कानून में मौजूद है। मसौदे का पैरा 10 कहता है कि विभिन्न बहुस्तरीय योजनाओं को हटा दिया जायेगा। इससे समाज के ऐसे तबके, जो बी.पी.एल. के दायरे में नहीं आते मसलन जिसके पास कोई स्थायी रिहायश नहीं है या जो किसी हॉस्टल या कल्याणकारी संस्थाओं या अनाथालयों में रहते हैं, को यह कानून खाद्य सुरक्षा की गारण्टी नहीं देगा।

विसंगतियों से भरे ऐसे तमाम मुद्दे इस ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून’ के मसौदे में है, जिससे कई पन्ने भरे जा सकते हैं। लेकिन हम अपना ध्यान कुछ प्रमुख मुद्दों पर ही केन्द्रित करते हैं। पहला – क्या यह ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून’ मसौदा वास्तव में भारत के सभी नागरिकों को खाद्य सुरक्षा देता है। नहीं। जी हाँ! इसका उत्तर ‘नहीं’ ही है क्योंकि जिस तरह से भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 कहता है कि “क़ानून द्वारा स्थापित विधियों के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति अपने जीवन और निजी स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जा सकता” और 1947 के बाद के 64 साल गुज़रने के बाद भी सतत् लोग रोज़गार से महरूम होते जा रहे हैं; लोगों की जीविका छिन रही है; शोषण की अन्धी लूट में 12-12 घण्टा काम करने के बाद लगभग 80 फ़ीसदी आबादी कुपोषित है और भूखे पेट सोने के लिए अभिशप्त है; ठीक उसी प्रकार यह कानून अपनी प्रस्तावना में तो भारत के सभी नागरिकों को खाद्य सुरक्षा देने की बात करता है लेकिन बड़ी चालाकी से इसको बी.पी.एल. परिवारों तक ही सीमित कर देता है। दूसरी बात खाद्य सुरक्षा का मतलब ‘पर्याप्त सुरक्षित और पौष्टिक’ भोजन से है। जबकि वर्तमान मसौदा कानून चावल और गेहूँ बाँटकर लोगों के हाथ में खाद्य सुरक्षा का झुनझुना थमाकर ख़ुश होने की बात करता है। यह कानून शासकों द्वारा बड़ी चालाकी से अपनी तानाशाही को मेहनतकश जनता पर थोपने की साजिश है और इस देश के लबार मध्यवर्ग के सामने अपने मानवता-विरोधी चेहरे को मानवीय मुखौटे से ढँकने का प्रयास है।

आइयें देखें, जिस ग़रीबी रेखा (बी.पी.एल.) पर इस कानून की बुनियाद टिकी है, वह दरअसल क्या है? ग़रीबी रेखा का आधार गाँवों में 2400 कैलोरी और शहरों में 2100 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के उपभोग को माना गया है। ग़ौर करने वाली बात यह है कि 1973-74 में पहली बार जब यह मानक तय किया जा रहा था तो शिक्षा, चिकित्सा और आवास को राज्य का उत्तरदायित्व माना गया था। परन्तु न तब राज्य इसे पूरा कर रहा था और न आज ही। आज अगर इन सभी ख़र्चों को ग़रीबी रेखा में जोड़ दिया जाये तो वह लगभग 9500 रुपये मासिक बैठेगी। इतना ही नहीं खाना पकाने के लिए ईंधन और पहनने के लिए कपड़ा भी ग़रीबी रेखा के मानक में नहीं जोड़ा गया है। ज़ाहिर है कि इस देश की सरकार ग़रीबों को इंसान नहीं समझती, तभी तो वह केवल कच्चे खाद्यान्न को ही ग़रीबी रेखा का मानक मानती है। दूसरी बात, सरकार के अर्थशास्त्री 1973-74 को आधारवर्ष मानकर तय की गयी ग़रीबी रेखा को समय-समय पर उपभोक्ता मूल्य सूचकांकों के आधार पर संशोधित करते हैं। उस व्यय को सीधे खुदरा मूल्यों से तुलना करके नहीं निकालते और काग़ज़ों में ग़रीबी दूर करते रहते हैं। ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण’ के आँकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में 356.30 रुपये प्रतिमाह और शहरी क्षेत्रों में 538.70 रुपये प्रतिमाह यदि कोई व्यक्ति ख़र्च कर पाता है तो वह ग़रीब नहीं है! अर्थात इस मँहगाई के बावजूद अगर कोई गाँव में 11.88 रुपये और शहरों में 17.96 रुपये प्रतिदिन अपने जीवन के लिए ख़र्च करता है तो सरकार उसको ग़रीब नहीं मानेगी। यह है सरकार द्वारा लोगों की ग़रीबी का मानक और इसके आधार पर खड़ा है यह खाद्य सुरक्षा कानून। ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण’ के आँकड़ों के अनुसार 1993-94 में शहरों में अनाज उपभोग 10.60 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह था और गाँवों में 13.40 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह, जो वर्ष 2007 में घटकर शहरों में 9.60 किलोग्राम व गाँवों में 11.70 किलोग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह हो गया। अर्थात लोगों के पेट का ख़ाली भाग लगातार बढ़ रहा है और सरकारी आँकड़े दिखाते हैं कि ग़रीबी घट रही है। ज़ाहिर है, अधनंगे, भूखे-पेट सिकोड़कर चलता ग़रीब शासकों को क्यों नज़र आयेगा?

आइये देखें कि विकास की सुपरसोनिक गति से चलती अर्थव्यवस्था वाले भारत में ग़रीबी की वास्तविक तस्वीर क्या है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के शरीर द्रव्यमान सूचकांक (Body Mass Index) के सर्वे से पता चलता है कि भारत में 70 फ़ीसदी लोग ग़रीब और कुपोषित हैं। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के एक अनुमान के अनुसार भारत में 410 मिलियन लोग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं। ‘ग्रामीण विकास मन्त्रालय’ द्वारा स्थापित सक्सेना कमेटी का मानना है कि 50 फ़ीसदी भारतीय ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनायी गयी वधवा कमेटी के अनुसार कम से कम 100 रुपये प्रतिदिन एक वयस्क की आय को ग़रीबी रेखा का मानक माना जाये न कि 11 रुपये को। भारत सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट बताती है कि आज देश में 77 फ़ीसदी लोग यानी लगभग 84 करोड़ लोग महज़ 20 रुपये या उससे कम की आय पर गुज़र कर रहे हैं, जिनमें से 27 करोड़ लोग महज़ 11 रुपये प्रतिदिन की आय पर जी रहे हैं। एक स्वास्थ्य संस्था की रिपोर्ट के अनुसार देश में 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 55 फ़ीसदी महिलाओं का वज़न अस्वस्थ होने की हद तक कम है। देश में 18 करोड़ लोग बेघर हैं और लगभग 18 करोड़ लोग झुग्गियों में सोते हैं। इन सबके बावजूद सरकारी आँकड़े महज़ 28.6 फ़ीसदी ही ग़रीब दिखाते हैं; और ऐसा हो भी क्यों नं, जब आँकड़ों के बाज़ीगर अर्थशास्त्री इस देश के ग़रीबों का आकलन करेंगे!

इस कानून के मसौदे को लेकर कांग्रेस की सर्वेसर्वा और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद’ की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी काफ़ी नाराज़ हैं। उनकी नाराज़गी अनाज की मात्रा को लेकर है। वह चाहती हैं कि मसौदे में अनाज सीमा 25 किलो को 35 किलो किया जाये। प्रथमदृष्टया श्रीमती सोनिया जी की यह चिन्ता व्यापक जनता की चिन्ता लग सकती है। लेकिन यह ग़रीबी रेखा के मानक और मसौदे के ‘पर्याप्त-सुरक्षित एवं पोषक भोजन’ पर विचार नहीं करती। मामला साफ है चुनावी पार्टियों को अगर मजबूरी में जनता की चिन्ता करनी भी पड़े तो उतनी ही चिन्ता करनी चाहिए, जितने से जन कल्याणकारी मुखौटा बना रहे और वोट बैंक भी हाथ से न खिसकने पाये। दूसरी बात, सोनिया गाँधी सारे झमेलों और विवादों से अपने आपको दूर रखती हैं। वह जानती हैं कि सारे मोहरे पिट जाने के बाद भी अपनी “जनपक्षधर, न्यायप्रिय और उदार” छवि को वह भुना सकती हैं। यही कारण है कि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जैसी एक संस्था का निर्माण किया गया जो अधिक से अधिक कल्याणकारी सलाह दे, और मनमोहन सिंह की सरकार वही करती रहे जो वह करती रही है – जनविरोधी नीतियों को लागू करते रहना।

इधर कुछ बहस ग़रीब परिवारों की संख्या को लेकर भी हो रही है। केन्द्र सरकार के अनुसार देश में 6.52 करोड़ बी.पी.एल. परिवार हैं जबकि राज्य सरकारों के आँकड़े 10.96 करोड़ बताते हैं। केन्द्र सरकार अगर राज्य सरकार के आँकड़ों को शामिल करेगा, तो एन.एफ.एस.ए. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की सब्सिडी लागत 44,744 करोड़ रुपये आयेगी। राज्य सरकारें बिल के मौजूदा मसौदे पर बी.पी.एल. परिवार के 10.96 करोड़ के आँकड़े को लागू करने का दबाव बना रही है। मौजूदा बिल को कुछ लोग तेन्दुलकर कमेटी द्वारा निर्धारित ग़रीबी मानक तक ले जाने की भी बात कर रहे हैं जो 37.2 फ़ीसदी है। अगर तेन्दुलकर कमेटी के मानक को मानती है तो यह उसके मोलभाव के सबसे करीब होगा। ध्यान रहे कि तेन्दुलकर कमेटी प्रश्नों के दायरे में है क्योंकि यह ग्रामीण क्षेत्रों के 2400 कैलारी के बी.पी.एल. मानक को 1700 कैलोरी पर निर्धारित करती है। केन्द्र सरकार की मजबूरी एन.एफ.एस.ए. की सब्सिडी को लेकर है। वर्ष 2010-11 के लिए यह अनुमान लगभग 56,000 करोड़ रुपये लगाया जा रहा है। जिसके लिए सरकार अपने को असमर्थ बता रही है। एक अनुमान के अनुसार अगर देश के सभी परिवारों को 35 किलो अनाज दिया जाये तो कुल 90 मिलियन टन अनाज लगेगा, जिसकी कुल लागत 120,000 करोड़ रुपये आयेगी। वर्तमान में इस मद में दी जाने वाली सब्सिडी लगभग 50,000 करोड़ रुपये है। अतः 70,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त सब्सिडी लगेगी। सरकार ग़रीबों को अनाज बाँटने के लिए 56,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी के लिए चीख़-पुकार मचा रही है कि उसका बजट गड़बड़ हो जायेगा, वह बर्बाद हो जायेगी। जबकि पिछले केन्द्रीय बजट में सरकार ने अपने चहेते पूँजीपतियों और धनिक कुलकों को बिना किसी मीन-मेख के खुले हाथों सरकारी ख़ज़ाने को लुटाया और उन्हें 5 लाख करोड़ रुपये तमाम पैकेजों और कर-छूट के रूप में दिये। इस बजट में निगम करदाताओं (यानी बड़े-बड़े कारपोरेट घरानों और कम्पनियों) को करों के रूप में 80,000 करोड़ रुपये की छूट दी गयी थी। कारपोरेट जगत को उत्पादन शुल्क के रूप में 170,756 करोड़ रुपये की छूट, कारपोरेट जगत को कस्टम ड्यूटी के रूप में 249,021 करोड़ रुपये की छूट दी गयी। यानी, कुल लगभग 500,000 करोड़ रुपये अर्थात कुल केन्द्रीय बजट का लगभग 50 फ़ीसदी की छूट दी गयी। और तब सरकारी ख़ज़ाने में कोई गड़बड़ी नहीं हुई। इस सरकार की चिन्ता और सरोकार साफ हैं। देश के कुल बजट का 11 फ़ीसदी सैन्य ख़र्चे में जाता है, जो सीमा सुरक्षा कम और अपने ही नागरिकों पर जुल्म ढाने में ज़्यादा उपयोग किया जाता है। राष्ट्रमण्डल खेल के घोटाले, 2-जी स्पेक्ट्रम का पौने दो लाख करोड़ का घोटाला, हाल ही में हुए दो लाख करोड़ रुपये का नया स्पेक्ट्रम घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, उत्तर प्रदेश में अनाज घोटाला और एफ.सी.आई. के गोदामों में सड़ रहे अनाजों से सरकार के बैलेंस और बजट पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मगर जब सवाल मज़दूरों, ग़रीबों और मज़लूमों की ज़िन्दगी, भूख, कुपोषण से जुड़ा हो तो तब सरकार बजट घाटे का राग अलापना शुरू कर देती है।

अगर यह छलपूर्ण और षड्यन्‍त्रों से भरा ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून’ पास भी हो जाये तो इससे भारत की ग़रीब मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 लोगों को जीने का अधिकार देता है लेकिन लोग रोज़ दवाओं के अभाव में, भोजन के अभाव में मर रहे हैं। ख़ुद संविधान और शुचिता की शपथ लेने वाले शासक आये दिन कैसे इसकी हत्या करते हैं, आइये एक नज़र इस पर भी डालें।

16 अप्रैल, 2001 को पी.यू.सी.एल. द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 21 का हवाला देते हुए भुखमरी से हो रही मौतों के बारे में सवाल पूछा गया था, के उत्तर में सुप्रीम कोर्ट ने 23 जुलाई, 2001 को सरकार एवं उसकी एजेंसियों को आदेश देते हुए कहा था – “हमारे विचार से जो सबसे महत्त्वपूर्ण है वह यह कि बुजुर्ग, दुर्बल, निराश्रय स्त्री-पुरुष जो भुखमरी के कगार पर हैं, गर्भवती एवं शिशु को दूध पिलाने वाली औरतों, निराश्रित बच्चे विशेष रूप से ऐसे बच्चे जिनके परिवार के पास भोजन के लिए पर्याप्त फण्ड नहीं है, को भोजन प्रदान किया जाये। अकाल के समय पर्याप्त भण्डार की व्यवस्था होनी चाहिए। एक तरफ खाद्यान्नों की अधिकता है लेकिन अति ग़रीब एवं निराश्रितों के बीच वितरण अतिअल्प है जोकि कुपोषण और भुखमरी की समस्याओं की जड़ है।”

3 सितम्बर 2001 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों और केन्द्र शासित प्रदेशों को आदेश दिया कि अविलम्ब बी.पी.एल. परिवारों के आँकड़े तैयार करके उनको सहायता प्रदान की जाये। परन्तु वह अब तक भी पूरी नहीं हो सकी। जो राजसत्ता ग़रीबों द्वारा उठायी जा रही आवाज़ को दबाने के लिए संविधान और राष्ट्र की एकता-अखण्डता की बात करती है, जो विनायक सेन के आजीवन कारावास के विरोध करने वालों को नसीहत देती है कि देश के सर्वोच्च कोर्ट में न्याय की गुहार लगायें, वही राजसत्ता ग़रीबों के अधिकार के हर कानूनी आदेश को पैरों तले रौंदती है। अभी कुछ दिन पहले जब देश में भण्डारित अनाज के सड़ने का मामला प्रकाश में आया था तो सुप्रीम कोर्ट ने देश की सरकार को फटकारते हुए अनाज को ग़रीबों में बाँटने की सलाह दी। इस पर देश के प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने न्यायपालिका को अपनी हद में रहने की सलाह दे डाली और कार्यपालिका के कामों में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया।

भारत सरकार न सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का, बल्कि तमाम अन्तरराष्ट्रीय सन्धियों और घोषणापत्रों की भी, जिन पर उसने हस्ताक्षर किये हैं, उल्लंघन करती है। मानवाधिकार के वैश्विक घोषणापत्र 1948 के अनुच्छेद 25(1) में कहा गया है कि “प्रत्येक व्यक्ति और उसके परिवार को योग्यतम जीवन मानक के लिए, स्वस्थ एवं ठीक-ठाक रहने के लिए भोजन सहित….. का अधिकार हैं।” ‘इण्टरनेशनल कावेनेण्ट ऑन इकोनॉमिक, सोशल एण्ड कल्चरल राइट’ (जो 1976 से प्रभाव में आया) कहता है कि “इस समझौते में शामिल राज्य को प्रत्येक व्यक्ति व उसके परिवार के लिए योग्यतम जीवन-स्तर बनाने की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करनी होगी, जिसमें योग्य एवं उचित भोजन, कपड़ा और मकान…शामिल है और प्रत्येक का यह मूल अधिकार है कि वह भुखमरी से स्वतन्त्र रहे सके…।” 12 मई, 1999 को ‘संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार के लिए हुई सभा’ में इसकी सामान्य टिप्पणी-12 (बीसवाँ सेसन-1999) में “योग्यतम भोजन का अधिकार” (अनुच्छेद 11) की बात कही गयी है। ध्यान रहे भारत उपरोक्त संगठनों में शामिल रहा है, अतः वह इन घोषणाओं से बँधा है। लेकिन उसे न तो वह आज तक पूरा कर सका और न आगे पूरा करना चाहता है। यह खाद्य सुरक्षा के नाम पर बनाये जा रहे कानून से ही स्पष्ट हो जाता है। वास्तव में, इससे रही-सही खाद्य सुरक्षा भी ख़त्म हो जायेगी। इसे तो खाद्य असुरक्षा कानून कहा जाना चाहिए। आइये देखें, कि भारत सरकार ने जनता के लिए जो थोड़ी बहुत खाद्य सुरक्षा मौजूद थी, उसे कैसे ख़त्म किया है और कर रही है।

1996 तक भारत में जो सार्वजनिक वितरण प्रणाली थी उसे लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) में बदल दिया गया ताकि उसे नवउदारीकरण की नीतियों के अनुकूल बनाया जा सके। यह भी ध्यान देने योग्य है कि विगत पाँच वर्षों में ए.पी.एल. परिवारों के राशन के अनुदान में लगातार कटौती करके उसे पहले के अनुदान का 20-25 फ़ीसदी कर दिया गया है। 1991 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के 20.8 मिलियन टन मात्रा को 1999-2000 में कम करते-करते 10.9 मिलियन टन कर दिया गया। दुनिया की सबसे बड़ी स्लम बस्ती धारावी (मुम्बई) में सरकारी आँकड़ों में महज़ 153 बी.पी.एल. परिवार मिले। कृषि क्षेत्र की लगातार उपेक्षा होती रही है। भारत आज चीनी के सबसे बड़े उत्पादक देश की जगह नम्बर एक आयातक देश बन चुका है। गुलाब व अन्य फूलों की खेती तथा बायोईंधन की खेती भारत के नीति निर्माताओं के लिए खाद्यान्न खेती से अधिक महत्त्व रखती है। वर्ष 2009 में भारत सरकार ने यह घोषणा की कि वर्ष 2017 तक भारत के सारे ईंधन उपभोग का 20 फ़ीसदी जैव ईंधन होगा। स्पष्ट है कि नीति नियन्ताओं के लिए 100 किलोग्राम अनाज और 1 लीटर पेट्रोल में पेट्रोल अधिक प्यारा है, क्योंकि देश के नवधनपतियों को कारों की सवारी जो करनी है। वर्ष 2009 में 17,368 किसानों ने आत्महत्याएँ कीं। 1997 से अब तक कुल 216,500 किसान मौत की नींद सो चुके हैं और भारत का सेंसेक्स तेज़ी से दौड़ रहा है और विकास का आँकड़ा तेज़ी से बढ़ रहा है।

एक बात और जिसे कई बार इस देश के वाग्वीर राजनेता दोहराते रहते हैं और वह है अनाज उत्पादन का संकट। बीते वर्ष खाद्यान्न उत्पादन में भारत काफ़ी बेहतर स्थिति में रहा। एक तिमाही में तो कृषि उत्पादन में नया रिकॉर्ड भी बना। और यह स्थिति ढंग से प्रबन्धन करने पर कहीं बेहतर हो सकती है। देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 328.70 मिलियन हेक्टर है। जिसमें से सकल फसलित क्षेत्र 193.7 मिलियन हेक्टर और निवल बायो क्षेत्र 140.30 मिलियन हेक्टर है। सकल सिंचित क्षेत्र 85.80 मिलियन हेक्टर और निवल सिंचित क्षेत्र 60.90 मिलियन हेक्टर है। अर्थात आज भी सिंचाई की सुविधा बमुश्किल 50 फ़ीसदी भू-भाग पर ही है। आज भी देश का 55.7 फ़ीसदी कृषि क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है। जबकि देश का जलसंसाधन अकूत है। आवश्यकता केवल उचित प्रबन्धन की है। भारत की आबादी का युवा प्रतिशत विश्व में सर्वाधिक है। कुल आबादी का 35.4 फ़ीसदी भाग 0 से 15 वर्ष आयु वर्ग; 57.77 भाग 15-60 वर्ष आयु वर्ग में आता है। अर्थात देश में मानवसम्पदा जलसम्पदा, और कृषि योग्य भूमि का अभाव नहीं है। फिर भी देश की 80 फ़ीसदी आबादी कुपोषित है। क्या ऐसा इसलिए होता है कि उत्पादन ही बहुत कम होता है? आइये इस पर भी विचार करें।

सिंचाई के अभाव, सूखा, बाढ़ आदि कारणों के बावजूद भारत में कुछ वर्षों के समग्र अनाज उत्पादन पर निगाह डालते हैं। यहाँ हम सुविधा की दृष्टि से अनाज उत्पादन को ही ले रहे है। जो नीचे तालिका में दिया जा रहा है।

Table for food security-jan-feb-11

सन्तुलित पोषण के मानक के अनुसार एक मध्यम श्रम करने वाले वयस्क व्यक्ति को 520 ग्राम अन्न (गेहूँ, चावल), मध्यम श्रम करने वाली वयस्क महिला के लिए 440 ग्राम अन्न व 10-18 वर्ष के बालक के लिए 420 ग्राम अन्न तथा 10-18 आयु वर्ग की बालिका के लिए 380 ग्राम अन्न की ज़रूरत प्रतिदिन होती है। अगर इनमें दालों की मात्र को भी शामिल कर लिया जाये तो मध्यम श्रम करने वाले वयस्क को 50 ग्राम, मध्यम श्रम करने वाली महिला को 45 ग्राम एवं 10-18 आयु वर्ग के बालक एवं बालिकाओं के लिए 45 ग्राम दालों की ज़रूरत होती है। अगर हम इन सबका औसत निकाले जिनमें दालों को भी शामिल लिया जाये तो वह महज़ 500 ग्राम प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन आता है। जबकि उत्पादन 531 ग्राम से 571 ग्राम व्यक्ति प्रतिदिन है।

ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि देश में भुखमरी और कुपोषण की समस्या का कारण खाद्यान्नों का कम उत्पादन नहीं है। उपेक्षित कृषि, बाढ़ और अकाल के बावजूद कृषि योग्य भूमि का 50 फ़ीसदी से कम सिंचित होने के बाद भी इस देश की मेहनतकश जनता अपनी मेहनत से इतना उत्पादन आज भी करती है कि हर व्यक्ति तक सन्तुलित पौष्टिक अनाज की मात्र उपलब्ध करायी जा सकती है। इसलिए अनाज की कमी को लेकर सरकार द्वारा मचायी जाने वाली हाय-तौबा बेकार है।

खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए बनाये गये ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम-1955’ जिसमें वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए, कालाबाज़ारी, जमाखोरी, बेईमानी और व्यापारियों के लूट से छूटकारा पाने के लिए जो प्रावधान थे, लगभग सभी राज्यों में उन्हें समाप्त कर दिया गया है। सभी राज्यों में खाद्यान्नों के भण्डारण, एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजने के नियमों व प्रतिबन्धों को समाप्त कर दिया गया है। खाद्यान्नों के क्षेत्र में वायदा कारोबार को कानूनी जामा पहना दिया गया है। सन् 1989 में आवश्यक वस्तुओं की सूची में 70 वस्तुएँ शामिल थीं। आज उदारीकरण और निजीकरण के दबाव व पूँजी की लूट के चलते इस सूची में महज़ 7 वस्तुएँ बची पड़ी हैं। आज पूँजीवादी मुनाफ़े की लूट औद्योगिक क्षेत्रों के साथ कृषि क्षेत्र में भी अपना ताण्डव कर रही है। जमाखोरी, सट्टेबाज़ी, खाद्यान्न बाज़ार का अविनियमन (Deregulation) बढ़ती क़ीमतों के लिए ज़िम्मेदार है। 2010 के आँकड़ों के अनुसार भारत सरकार के बफर-मानक में गेहूँ न्यूनतम मानक 82 लाख टन से अधिक 230.02 लाख टन था एवं चावल न्यूनतम मानक 118 लाख टन की जगह 234.53 लाख टन था। कुल न्यूनतम बफर मानक 200 लाख टन के स्थान पर स्टाक में 474.45 लाख टन बफर स्टाक मौजूद था। लेकिन क़ीमतों पर काबू पाने के लिए उनको बाज़ार में नहीं लाया गया। क्योंकि अगर ये खाद्यान्न बाज़ार में आ जाते तो क़ीमतें गिर जातीं और पूँजीपतियों का मुनाफ़ा मारा जाता।

अगर सच्चाइयों पर करीबी से निगाह डालें तो साफ हो जाता है कि वास्तव में खाद्यान्न सुरक्षा मुहैया कराना सरकार का मकसद है ही नहीं। जिस प्रकार नरेगा के ढोंग ने यू.पी.ए. सरकार को एक कार्यकाल का तोहफ़ा दे दिया था, उसी प्रकार यू.पी.ए. की सरकार खाद्यान्न सुरक्षा कानून के नये ढोंग से एक और कार्यकाल जीतना चाहती है। इससे जनता को कुछ भी नहीं मिलने वाला; उल्टे उसके पास जो है वह भी छीन लिया जायेगा।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011

 

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