प्रगतिशील साहित्य के युवा पाठकों से . . .
उठ पाठक! जाग! अपनी मोह निद्रा त्याग! जिससे तू इस अँधेरे दौर में मार्गदर्शन की अपेक्षा रखता है, उसके हाथों में साहित्य की मशाल नहीं, एक बुझी हुई धुँआती लुकाठी है। वह मृतक है जिससे तू जीवन, संघर्ष और सृजन की ऋचाएँ सुनना चाहता है। वह केवल मिमिया और रिरिया सकता है, जिससे तू नये संघर्ष के आह्वान की आशा कर रहा है। प्रकाश-स्तम्भ नहीं, वह एक दख़मा1 है, जिसके सिर पर निष्क्रिय-निठल्ले विचारों की लाशें सड़ रही हैं!
वह प्यार नहीं कर सकता। वह लड़ नहीं सकता। वह सुदूर भविष्य के सपने नहीं देख सकता। उसकी लेखनी रचना की दुनिया में केवल उसके दुःस्वप्नों को ही प्रक्षेपित कर सकती है। वह धारा के विरुद्ध तैरना तो क्या, उसके किनारे तक जाने से काँप उठता है। वह मृतक है। उठो और जीवन को वरण करो! जीवितों के जगत में प्रवेश करो! जीवित, उष्ण हृदय को स्पर्श करो! सामाजिक संघर्षों के आलोड़न-विलोड़न से स्पन्दित साहित्य की दुनिया वहाँ नहीं है, जहाँ तुम इसे ढूँढ़ रहे हो।
वह अपने को प्रगतिशील और जनवादी कहता है तो सिर्फ इसलिए कि आज साहित्य के बाज़ार में इसी ‘’प्रगतिशीलता’‘ और ‘‘जनवाद’‘ की कीमत है, इसलिए कि निर्वीर्य बुर्जुआ समाज ‘अन्त के दर्शन’ के अतिरिक्त अब और कोई भी नारा नहीं दे सकता, और इसलिए भी कि प्रबुद्ध और जागरूक पाठक आज भी प्रगतिशील माने जाने वाले साहित्य की तलाश करता रहता है। साथ ही, वह यह भी भली-भाँति समझता है कि आज भी अपने को वामपन्थी कहना ही साहित्य के इतिहास में स्थान पाने का पासपोर्ट है। वह प्रगतिशील और जनवादी लेखकों और जन संस्कृति कर्मियों के संगठन, संघ और मंच बनाता है, पर इन शब्दों का निहितार्थ तो दूर, शायद शब्दार्थ तक भूल चुका है।
वह अपने जीवन को व्यवस्था की हर मार और दबाव से इंच-इंच सुरक्षित रखने की गारण्टी कर क्रान्तिकारी साहित्य का सर्जक बनना चाहता है। वह लेखन को क्रान्तिकर्म में सुरक्षित भगीदारी का मार्ग समझता है। वह दिल से नहीं मानता कि जनता का सांस्कृतिक मोर्चा सिर्फ सामाजिक क्रान्ति का एक मोर्चा ही हो सकता है। वह जीवन और समाज में जारी सतत् क्रान्ति की प्रक्रिया को जाने बिना उदात्त मूल्यों से युक्त क्लासिकी साहित्य के रूप में जीवन की पुनर्रचना के दावे ठोंकता रहता है। जीवन के ताप से मीलों दूर रह कर वह साहित्य में स्फुलिघ पैदा करना चाहता है या फिर यह कहकर अपनी कुण्ठा छिपाना चाहता है कि ‘‘साहित्य से क्रान्ति नहीं होती!’‘ कौन कहता है कि सिर्फ साहित्य से क्रान्ति हो जायेगी? – उससे पूछो तो ज़रा! पर क्या साहित्य के बिना भी क्रान्ति हो सकती है? वह साहित्य और राजनीति के बीच दाँते और पेंच के सम्बन्ध को दिल से नहीं मानता। वह वास्तव में नहीं मानता कि कलात्मक मानदण्ड के अतिरिक्त साहित्य के मूल्यांकन का राजनीतिक मानदण्ड भी होता है, पर खुलेआम यह कहता नहीं, चुप रहता है या प्रकारान्तर से कहता है। वह कायर है। प्रतिबद्धता उसके लिए मात्र एक लबादा है। लेखन उसके लिए मात्र कैरियर है, प्रतिष्ठा और स्थापना की एक सीढ़ी है। ‘‘कीर्ति के इठलाते नितम्बों’‘ (मुक्तिबोध के शब्दों में) पर टिकी हुई लालसा भरी कामुक निगाहें ही उसकी साहित्य-दृष्टि है।
‘’रचना का मूल्यांकन रचना के आधार पर किया जाना चाहिए, न कि रचनाकार के जीवन के आधार पर’‘ – इस सूत्रीकरण का अर्थ वह यह निकालता है कि लेखक के जीवन से उसके लेखन का कोई सम्बन्ध नहीं होता। इस सूत्र का वह कवच-कुण्डल की भाँति इस्तेमाल करता है और यह प्रश्न उठते ही प्रश्नकार को ‘‘अतिवाम’‘ के चिन्तन से ग्रस्त, ‘‘साहित्य को राजनीति या हथियार का पर्यायवाची समझने वाला’‘ घोषित कर देता है। ऐसा करते समय उसका उद्देश्य सत्तर के दशक में वामपन्थी साहित्य के दायरे में पैदा हुए अतिवामपन्थी भटकाव का सन्तुलित-ऐतिहासिक मूल्यांकन करना नहीं बल्कि अपना दुरंगापन छिपाना होता है। ऐसा करके वह छद्म वामपन्थी साहित्य के गर्भ से, उसी के प्रतिक्रिया स्वरूप, एक बार फिर अतिवामपन्थी भटाकावों को पैदा होने की सम्भावनाओं की ज़मीन तैयार करता है।
वह मातृहन्ता है। परम्परा द्रोही है। वह वामपन्थी साहित्य के सत्तर के दशक में उभार के समग्र इतिहास को और यहाँ तक कि प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन के पूरे इतिहास को सिर्फ अतिरेकों, ग़लतियों, यान्त्रिकताओं, नारेबाज़ी और सतहीपन का पुंज समझता है। वह निषेधवादी है। वह कठमुल्ला पूर्णस्वीकारवादियों से भी कहीं अधिक बुरा है।
वह जीवन के मर्म और इतिहास की गति की समझ के मामले में घोंघाबसन्त है। वह नहीं समझता कि विपर्ययों और पराजयों के लाख अँधेरे के बावजूद आज भी सर्वहारा के संघर्ष ही विश्व-इतिहास की धुरी है। इतिहास, राजनीति अर्थशास्त्र और देश-दुनिया के घटना-प्रवाह के अध्ययन को वह अपना क्षेत्र नहीं मानता और अपने संकीर्ण व्यक्तिगत अनुभवों के कूपमण्डूकतापूर्ण नीम अँधेरे को ही समग्र सामाजिक यथार्थ का आलोक समझता है। पेरेस्त्रेइका के ‘’महानायक’‘ के बौने जोकर में बदल जाने के हश्र और रूस एवं पूर्वी यूरोप में खुले बाज़ार के जनवाद की स्थापना की परिणतियों से वह कुछ भी नतीजे नहीं निकालता और साहित्य की दुनिया में प्रशस्त मार्गों को छोड़कर सीलन भरी, अँधेरी, बदबूदार गलियों में “मुक्त चिन्तन’‘ का फेरीवाला बना घूमता रहता है। वह रूपवाद, कलावाद, यौन-रस-भोग के कोरामीन के इंजेक्शन देकर, उत्तरआधुनिकता और उत्तर-संरचनावाद आदि के कैप्सूल खिलाकर अपने बीमार नकली जनपक्षधर साहित्य को जिन्दा रखना चाहता है और अतीत की ‘’गलतियों’‘ पर या तो छाती पीट-पीटकर विलाप करता रहता है, दूसरों को कोसता रहता है या गोष्ठियों में और दूरदर्शन पर चिन्तक की मुद्रा ओढ़कर कुछ दार्शनिक सूक्तियाँ उचारता रहता है।
उसकी जाति के अधिकांश प्राणियों की पाचन-शक्ति साहित्यानुशीलन के मामले में काफी कमज़ोर होती है। वे जनता के साहित्य की समृद्ध परम्परा का अध्ययन तो कम करते हैं, पर बुर्जुआ संस्कृति की भारी खुराकें हरदम लेते रहते हैं और हीनग्रन्थि का शिकार बने रहते हैं। साथ ही, भारतीय समाज के सदियों पुराने कूपमण्डूकता के दलदल में वे सिर के बल धँसे रहते हैं। तर्कपरकता और वैज्ञानिक इतिहास दृष्टि उनके लिए खोखले शब्द मात्र हैं। वे अपढ़ हैं। भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रेमचन्द, निराला और मुक्तिबोध हों या गोर्की, ब्रेष्ट, आइजेंस्ताइन, स्तानिस्लावस्की, लू शुन, नेरूदा और नाजिम हिकमत – इन सबके बारे में उनकी जानकारी प्रायः ‘सेकेण्ड हैण्ड’ और सतही होती है। और इसी के आधार पर वे अन्तहीन, बाँझ बहसों में उलझे रहते हैं।
हमारे युग का यह ‘‘जनवादी’‘ लेखक हद दर्जे का बेशर्म ढोंगी है। किसी विश्वविद्यालय के कुलपति की चाटुकार सभा, यू.जी.सी. की किसी कमेटी की बैठक या किसी अख़बार के मालिक की दारू-पार्टी से सीधे उठकर वह क्रान्ति और साहित्य के अन्तर्सम्बन्धों पर एक ‘‘सारगर्भित’‘ व्याख्यान दे आता है। वह निराला पर आलोचना लिखते हुए उनके अदम्य विद्रोही जीवन और चिन्तन को उनके साहित्य की ऊर्जस्विता का स्रोत बताता है। वह मुक्तिबोध के नायक के आत्मसंघर्ष और जनसंग-ऊष्मा से जुड़ने की उसकी तड़प के सभी पक्षों पर ख़ूब बोलता और लिखता है। पर जिन्दगी में ऐसा कोई भी समझौता नहीं, जिसे करने के लिए वह तैयार न रहता हो। वह स्त्री की मुक्ति पर कविताएँ लिखता है, पर जिन्दगी में उसके प्रति एकदम लम्पट, कामुक, यौन उत्पीड़क, पुरुष स्वामित्ववादी दृष्टिकोण रखता है। वह अपनी पत्नी को चूल्हे-चौखठ से बाँधकर रखता है और डरता रहता है कि उसकी जवान होती लड़की कहीं किसी ‘ऐसे-वैसे’ से प्रेम न कर बैठे। वह उसके लिए सजातीय वर ढूँढ़ता है, दहेज देता है और उसकी शादी में पीली धोती पहनकर नवेद वसूलता है। वह अपने लड़के को जी-तोड़ कोशिश करके अफसर, इंजीनियर या लेक्चरर बनाता है और प्रायः उसकी शादी में शायलाक की तरह वसूली करता है। वह जातीय उत्पीड़न पर अनगिनत कहानियाँ लिखता है, पर हर कीमत पर अपनी या अपनी सन्तानों की शादियाँ जाति के भीतर ही तय करता है। वह पाखण्डी है। बेहया है। उससे घृणा करना एक आवश्यक मानवीय कर्म और सामाजिक दायित्व है।
वह साहित्य का ‘’सच्चा’‘ पुजारी है। सामाजिक उथल-पुथल से एकदम निस्संग, अपनी एकान्त साधना में लगा रहता है। एकदम परमहंस हो चुका है। नितान्त स्थितप्रज्ञ! आई.एम.एफ. और विश्व बैंक की नीतियाँ देश को कर्ज़ के मकड़जाले में फँसा रही हैं। जीवन का पेटेण्टीकरण हो रहा है। डंकेल ड्राफ्ट आ रहा है। लाखों लोग बेरोज़गार हो रहे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य पर सिर्फ धनी लोगों का विशेषाधिकार कायम किया जा रहा है। मँहगाई ने जीना दूभर कर दिया है। दस्तकार अपने पुश्तैनी पेशों से और किसान अपनी जगह-ज़मीन से उजड़ रहे हैं। फासिस्ट ताकतें तेज़ी से पैर पसारती जा रही हैं। होने दो यह सब कुछ! हमारा ‘‘प्रगतिशील’‘ लेखक इन सबसे अछूता अतीत के खोहों में घूमता हुआ ‘’रोचक’‘, ‘’कलमतोड़’‘ संस्मरण लिख रहा है, कहानियों में यौन-रस के चटखारे ले रहा है, नये-नये संस्थान और अकादमियाँ स्थापित करने की, नयी-नयी साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालने की महत्त्वाकाक्षी योजनाएँ बना रहा है। नयी-नयी साहित्यिक हदबन्दियाँ-चकबन्दियाँ कर रहा है।
वह समाज की जिन्दगी, जनता की लड़ाई उसके उदात्त स्वप्नों और सही, वैज्ञानिक सौन्दर्यबोध को रचना में कदापि नहीं ला सकता। वह न समाज को दिशा दे सकता है, न साहित्य को। वह अवसरवादी है।
ये सभी लेखक व्यवस्था के दिखाने के दाँतों का काम कर रहे हैं। ये सांस्कृतिक भितरघाती हैं। ये हमारे दुश्मन के ‘ट्रोजन हार्स’ हैं। ये पुरस्कारों की होड़ में अन्धाधुन्ध भागती भेड़ें हैं। ये निराला, प्रेमचन्द और मुक्तिबोध की पीठों पर लदे हुए रेत के बोरे हैं।
पूछो ज़रा प्रगतिशीलता के इन ठेकेदारों से, क्या सीखा है उन्होंने कबीर, निराला और प्रेमचन्द से, जीवन और रचनाकर्म – दोनों ही क्षेत्रें में समान ढंग से चलाये जाने वाले उनके संघर्षों से? क्या ग्रहण किया है उन्होंने यूजीन पोतिए, हाइने, गोर्की, लू शुन, ब्रेस्ट, नाजिम हिकमत, राल्फ़ फाक्स आदि के जीवन और कृतित्व की एकरूपता से? पूछो इनसे – ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ पूछो, क्या ये अभिव्यक्ति के सभी ख़तरे उठाने के लिए तैयार हैं? आज जब नकली समाजवाद के पतन के बाद, एक बार फिर बीच के सारे अवरोध हट गये हैं और मेहनतकशों और मुनाफाखोरों की जमातें, कत्ल होने वालों और कातिलों की जमातें, एकदम एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी हैं, तो ऐसे लेखकों ने क्या साफ-साफ तय कर लिया है कि वे किस तरफ खड़े हैं? क्या भावी सामाजिक महाप्रस्फोट में उन्होंने अपनी भूमिका तय कर ली है?
पुनर्जागरण काल के सामाजिक-सांस्कृतिक-वैचारिक नायकों-सेनानियों के बारे में फ्रेडरिक एंगेल्स ने लिखा था, ‘‘…उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि प्रायः वे सब समकालीन आन्दोलनों के बीच व्यावहारिक संघर्ष के बीच ही जीवनयापन तथा क्रियाकलाप करते थे। वे किसी न किसी पक्ष को लेकर लड़ाई में शामिल होते, कुछ बोलकर और लिखकर लड़ते थे तो कुछ तलवार लेकर, और कुछ दोनों तरीकों से। इसी से उनमें चरित्र की वह पूर्णता तथा ओज थी, जिन्होंने उन्हें पूर्ण मानव बनाया। किताबी कीड़े तब बहुत कम पाये जाते थे। वे दूसरी या तीसरी कोटि के लोग होते थे या फूँक-फूँककर पाँव रखने वाले कूपमण्डूक, जो अपने ऊपर आँच आने के डर से संघर्ष से अलग रहते थे।’‘ आज का प्रगतिशील होने का दम भरने वाला लेखक क्या ऐसा है? सर्वहारा वर्ग को शुरू से ही, सांस्कृतिक मोर्चे पर भी ऐसे ही सेनानियों की ज़रूरत रही है और इतिहास ने उन्हीं लोगों को मेहनतकश लोगों के सच्चे लेखक और कलाकार का दर्जा दिया है, जो वास्तव में ऐसे ही रहे हैं।
पुनर्जागरण काल के बारे में एंगेल्स का ही कहना था, कि मानव जाति ने उतनी बड़ी प्रगतिशील क्रान्ति उस समय तक नहीं देखी थी, जिसने अपनी आवश्यकता से ऐसे महामानवों को जन्म दिया जो ‘’चिन्तन शक्ति में, आवेग एवं चरित्र में, सार्वत्रिकता और विद्या में महामानव थे।’‘ सर्वहारा क्रान्ति के जिस युग में हम जी रहे हैं, यह पूरे मानव इतिहास की सर्वाधिक प्रगतिशील क्रान्ति है। इस विश्व ऐतिहासिक महासमर का अभी सिर्फ एक चक्र ही समाप्त हुआ है। इस क्रान्ति ने अपनी शैशवावस्था में ही पुनर्जागरण काल जैसी ही विभूतियों को जन्म दिया। अब जब कि विजय-पराजय के एक चक्र के अनुभवों ने इसे नयी वैचारिक समृद्धि प्रदान की है और विचारधारात्मक सांस्कृतिक क्षेत्र में इसकी अजेयता अक्षुण्ण बनी हुई है; तो ऐसे समय में सर्वहारा क्रान्तियों के नये संस्करणों की सर्जना के लिए एक नये सर्वहारा पुनर्जागरण और नये सर्वहारा प्रबोधन के शंखनाद की आवश्यकता है। यह काम बौने कूपमण्डूकों का नहीं, साहसिक वीर ऊर्जस्वी पर्वतारोहियों का है।
इसलिए हम ख़ास तौर पर नौजवानों से साहित्य के युवा पाठकों से, युवा सांस्कृतिक कर्मियों से यह कहना चाहते हैं कि वे कदापि यह उम्मीद न करें कि वृद्ध पक्षाघातग्रस्त हाथ प्रतिगामी संस्कृति के भेड़िये के जबड़े भींच सकते हैं। उन्हें चिराग लेकर ढूँढ़ना पड़ सकता है जिनकी ईमानदारी सुरक्षित हो और शौर्य भी। पर अभूतपूर्व सांस्कृतिक संकट का यह समय निराशा का नहीं, चुनौतियों का है। इतिहास नायकों और विभूतियों की प्रतीक्षा नहीं करता। वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति की दिशा में विशाल जनसमुदाय के बीच से भरती पूरी फौज को निर्देशित करता है और इसी प्रक्रिया में महामानव और नायक भी पैदा हो जाते हैं।
युवा पाठक साथियों और साहित्य की दुनिया में पदार्पण कर रहे युवा लेखको! तुम्हें अपने बीच से ऐसे लेखक-कलाकार और सांस्कृतिक सेनानी पैदा करने होंगे जो सर्वहारा पुनर्जागरण एवं प्रबोधन के नये सूर्योदय की सांस्कृतिक वल्गा थामे, नये युग की क्रान्तिकारी चेतना के जाज्वल्यमान प्रतीक बन जायें। लेखक समाज को दिशा देता है, पर उससे भी पहले, समाज लेखक का निर्माण करता है।
अन्धकार और विपर्यय के इस दौर में एक नये सांस्कृतिक अभियान की तैयारी और संगठन का काम हमारे सामने है। इसलिए, उठो! अपनी सकारात्मक परम्परा की समृद्ध विरासत से शक्ति लो। मुर्दों के इस गाँव में साहसी कबीरों की तलाश करो! जो चुक गये या बिक गये, उनसे कुछ मत पूछना, पर जिनमें ईमानदारी बची हुई है, जिनकी ऊर्जस्विता शेष है, उनसे पूछो, ‘‘…आखि़र तुम क्रान्तिकारी आत्मा की बात कब करोगे? आत्मा के पुनर्जन्म की ज़रूरत के बारे में कब लिखोगे? कहाँ है नये जीवन के निर्माण का आह्वान? कहाँ है निर्भीकता का पाठ? कहाँ है वे शब्द जो आत्मा को पंख लगा सकते हैं’‘ (गोर्की की कहानी ‘पाठक’)।
1- दख़मा उस मीनार को कहते हैं जिसकी छत पर पारसी लोग अपने मृतकों के शव रख देते हैं। यही उनका अन्तिम संस्कार होता है।
(आह्वान, वर्ष 1, अंक 13, 16 व 31 जुलाई, 1992, से पुनर्प्रस्तुति)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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इस सुन्दर लेख को पढ़िए. मुझे इसे पढ़ कर भगवत शरण उपाध्याय की कृति 'खून के छींटे इतिहास के पन्नों पर' की 'नारी' की याद आ गयी.