शिवराज उवाच -“मध्यप्रदेश में फ़ायदेमन्द निवेश के लिए आपका स्वागत है”

शमीम

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के साप्ताहिक अख़बार ‘पांचजन्य’ के भूतपूर्व सम्पादक तरुण विजय ने जनसत्ता अख़बार के अपने एक लेख में म.प्र. के मुख्यमन्त्री शिवराजसिंह चौहान की पीठ थपथपाते हुए उन्हें राष्ट्रवाद का प्रबल पैरोकार बताया था तथा भारतीय शेर की संज्ञा दी थी। इस उपाधि से नवाजे जाने का कारण था, शिवराज सिंह चौहान द्वारा कॅामनवेल्थ खेलों की क्वीन्स बेटन का विरोध। शिवराज सिंह चौहान ने क्वीन्स बेटन को यह कहकर थामने से मना कर दिया था की यह गुलामी की प्रतीक है।

परन्तु स्वदेशी व राष्ट्रप्रेम का राग अलापने वाले मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान को विदेशी पूँजी से कोई द्वेष नहीं है तथा मध्यप्रदेश को वे पूँजीपतियों के लिए खुले चरागाह के रूप में पेश करने को तैयार हैं। विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल खजुराहो में 21 से 23 अक्टूबर तक हुए वैश्विक निवेशक सम्मेलन में भाजपाई मुख्यमन्त्री की ‘एकात्म मानवतावादी’ सरकार पूँजीपतियों के स्वागत में ज़मीन-आसमान एक किये हुए थी। देशी व विदेशी पूँजी की निर्बाध लूट की सुगमता का आकलन सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस वैश्विक निवेशक सम्मेलन के दूसरे ही दिन 12 उद्योग लगने के लिए 1 लाख 6 हज़ार 417 करोड़ के निवेश प्रस्तावों पर हस्ताक्षर हुए। देश के संसाधनों को पूँजीपतियों की जागीर समझने वाली पूँजीवादी सरकारों का चरित्र कितना जन-विरोधी होता है, इसे उक्त सम्मेलन से समझा जा सकता है।

किसी भूभाग पर रहने वाले निवासियों का वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर सामूहिक स्वामित्व होता है तथा वे लोग जल, जंगल, ज़मीन का प्रयोग सामूहिक रूप से करते हैं परन्तु निजी मालिकाने पर आधारित व्यवस्था समूह के स्वामित्व को नकारती है तथा उसका मालिकाना पूँजीपतियों के हाथ में रहे इसके लिए प्रयासरत रहती है। म.प्र. के प्राकृतिक संसाधनों (कृषि, भूमि, जल, खनिज पर थी) पर पूँजीपतियों के कब्ज़े के मार्ग को इस सम्मेलन ने प्रशस्त कर दिया है। इसके बाद ज़ाहिरा तौर पर विस्थापन व दमन के सिलसिले की एक अन्तहीन शुरुआत होगी। जिस मध्यप्रदेश को आईएफडीआरटी की मानव-विकास रिपोर्ट में दुनिया के सबसे अधिक भूखमरी वाले देशों में सोमालिया व चाड से भी आगे बताया गया है, वहाँ की सरकार जनता से प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों को भी छीन लेना चाहती है जिस पर रोज़गारविहीन विकास की इमारतें खड़ी की जायेंगी। मालूम हो कि मध्यप्रदेश में देश की कुल खनिज-सम्पदा का 15 फीसदी पाया जाता है।

ज़ाहिर-सी बात है कि जब तमाम देशी-विदेशी निवेशकों के लिए जल-जंगल-ज़मीन को छीना जायेगा, तब जन-प्रतिरोध खड़ा होगा। किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व की अनुपस्थिति में ये प्रतिरोध आतंकवाद और वामपन्थी दुस्साहसवाद की तरफ जायेगा। और फिर तब शुरू होगी माओवाद व नक्सलवाद के नाम पर जनता के सफाये की मुहिम। यह अकारण ही नहीं है कि भाजपा नक्सलियों के सफाये की मुहिम के लिए चिदम्बरम की पीठ थपथपा चुकी है तथा सेना के प्रयोग की प्रबल समर्थक है। ‘जपो स्वदेशी-जपो स्वदेशी, पूँजी लाओ रोज़ विदेशी’ की तर्ज पर भाजपा अपने आचरण का कार्यान्वयन अपने जन्म से आज तक करती रही है। संघ परिवार व उसके अनुष्ठानिक संगठन (भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल) भले ही देशज संस्कृति, अतीत के पुनरुत्थानवाद तथा ग्रामीण भारत की बात करते हों परन्तु पूँजी निवेश (देशी व विदेशी) की वह कांग्रेस से कम समर्थक नहीं है। बल्कि इस भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया को वह और ज़ोरों से बढ़ाने की वकालत करती रही है। यह अकारण ही नहीं हुआ था कि राजग की केन्द्र में सरकार बनने पर अरुण शौरी के नेतृत्व में विनिवेश मन्त्रालय का गठन सभी पब्लिक सेक्टरों को पूँजीपतियों को सौंपने के लिए किया गया था।

स्वतन्त्र भारत के इतिहास में शायद यह पहला अवसर था कि जब किसी प्रदेश की सरकार ने इतने बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट का आमन्त्रण पूँजीपतियों को दिया हो। इस सम्मेलन के विज्ञापनों में ‘‘मध्यप्रदेश में फायदेमन्द निवेश के लिए आपका स्वागत है’’ तथा निवेशकों के औद्योगिक संगठन फिक्की के अध्यक्ष दिलीप मोदी ने मध्यप्रदेश में चार सालों में नौ निवेशक सम्मेलनों में 4 लाख 1 हज़ार 564 करोड़ रुपये के निवेश को शिवराज सिंह चौहान का करिश्मा बताया है तथा कहा कि यहाँ निवेश के लिए काफी अनुकूल माहौल बन चुका है। आज़ादी के बाद भारत के जिस पूँजीवादी ढाँचे के निर्माण में कांग्रेस ने अपना ‘‘पसीना बहाया’‘ तथा एक पिछड़े सामन्ती व प्राक्पूँजीवादी देश को साम्राज्यवादियों के अन्तर्विरोधों का फायदा उठाकर पूँजीवादी राज्य में विकसित कर दिया तो भाजपा उस ‘विकास’ को समृद्धि के शिखर पर पहुँचाने की तत्परता में है। भारत के वे राज्य, जहाँ भाजपा-नीत सरकारें हैं, राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय पूँजी-निवेश के खुले चारागाह बन चुके हैं। मध्यप्रदेश में हुए इस वैश्विक निवेशक सम्मेलन के पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि रोज़गार-सृजन होगा तथा राज्य का विकास होगा! तब फिर क्या कारण है कि उड़ीसा व छत्तीसगढ़ की जनता ऐसे निवेशों से स्थापित उद्योगों का विरोध अपने राज्यों में कर रही है? या फिर देश के समृद्ध औद्योगिक इलाकों – नोएडा, गुड़गाँव व फरीदाबाद में इन्हीं देशी व विदेशी कम्पनियों के कारख़ानों में श्रम कानूनों की धज्जियाँ उड़ायी जा रही हैं तथा मज़दूरों को तय न्यूनतम मज़दूरी का भी आधा हिस्सा ही मिलता है, ताकि सुबह वे फिर काम पर आ सकें। जब देश की बहुसंख्यक आबादी इस रोज़गारविहीन विकास के जुए-तले पिस रही है, तब उक्त सम्मेलन के बाद होने वाले निवेशों के परिणाम का अन्दाज़ा स्वयं लगाया जा सकता है।

मध्यप्रदेश में अब तक 80530 करोड़ के निवेश का नतीजा सामने यह आया है कि जहाँ एक तरफ पूँजीपति संसाधनों का दोहन व मज़दूरों के शोषण से अकूत मुनाफा कमा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ आम आबादी के ये हालात हैं कि कुपोषण से ग्रसित कुल बच्चों का प्रतिशत 1998-99 में 53.3 से बढ़कर 2008-09 में 60.3 पहुँच गया है तथा ख़ुद सरकारी आँकड़ों से ही म.प्र. में 12,2416 बच्चे भूख व कुपोषण से दम तोड़ चुके हैं जो कुल बाल आबादी का 60 फीसदी है। यह स्वयं म.प्र. के स्वास्थ्य मन्त्री अनूप मिश्रा का कहना है।

कथित विकास की बात करते हुए भारतीय राज्यसत्ता पहले ही अपने फासिस्ट चरित्र को ज़ाहिर कर चुकी है, जिसके तहत संसाधनों से महरूम उड़ीसा व छत्तीसगढ़ की जनता के विरुद्ध युद्ध की अघोषित घोषणा कर चुकी है। जिसमें 80,000 फौज को अपने ही देश की जनता के खि़लाफ उतार दिया गया है। तब क्या यह सम्भव नहीं कि जनता इन उद्योगों का भी प्रतिरोध करे जो उसे उसके प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों से बेदख़ल कर देंगे?

मज़दूरों के शोषण के लिए कुख्यात जे.पी. समूह तथा एस्सार ने आदिवासी बहुल जिले सतना में क्रमशः 1850 व 2450 करोड़ का निवेश सीमेण्ट कारख़ाने लगाने में किया है। इसी प्रकार गेल, एस्सेल व वीडियोकॉन ने प्राकृतिक गैस व बिजली संयन्त्र लगाने में निवेश किया है। इन औद्योगिक समूहों द्वारा देश के अन्य भागों में लगाये गये उद्योगों का विरोध लगातार जारी है, चाहे वह जे.पी. का यमुना-एक्सप्रेस वे हो या फिर रिलायंस की गुजरात में लगायी गयी रिफाइनरी, जिसने भयानक पर्यावरणीय तबाही को अंजाम देते हुए 80,000 पेडों को काटा था।

ग़ौरतलब है कि तीन दिन तक चले इस वैश्विक निवेशक सम्मेलन में पूँजीपतियों के ठहरने के लिए खजुराहो में होटलों की कमी पड़ गयी थी। इस सम्मेलन में शीर्ष पूँजीवादी देशों के नौकरशाहों ने हिस्सा लिया जिसमें ताइवान के काउण्टी मेजिस्ट्रेट चो.पो.युआन, ब्रिटिश उच्चायोग मुम्बई के उप उच्चायुक्त पीटर बेकिंघम शामिल हुए; जिसमें पीटर बेकिंघम को विशिष्ट अतिथि का दर्जा दिया गया। यहाँ शायद वो क्वीन विक्टोरिया (ब्रिटिश साम्राज्य) के प्रतिनिधि के तौर पर शिवराज सिंह चौहान को नहीं नज़र आये। इस सारे तमाशे व तामझाम की प्रशंसा में बुर्जुआ मीडिया ने ज़मीन-आसमान एक कर दिया तथा यह बताया कि यह रोज़गार व विकास का मार्ग-प्रशस्त करेगा, लेकिन अतीत का आकलन कहता है कि यह निवेश भयानक मानवीय व पर्यावरणीय तबाही लायेगा। हाँ, अगर किसी को इससे फायदा होगा, तो वे हैं म.प्र. के तमाम मन्त्री, अफसर व नौकरशाह जिन्हें दलाली के सभी मौके मुहैया होंगे। जिस म.प्र. में मुल्क के सबसे अधिक कुपोषित 5 जिले हों तथा प्रत्येक मिनट 1 बच्चे की मृत्यु कुपोषण से होती हो, वहाँ पर पूँजीपतियों की सेवा में संलग्न सरकार की प्रतिबद्धताओं को समझा जा सकता है।

आर्थिक उदारीकरण की नीतियों व ट्रिकल डाउन थ्योरी के पैराकारों, मनमोहन व चिदम्बरम, की मेहनत आज रंग ला रही है, जो मनमोहन 1991 में बता रहे थे कि ‘‘समृद्धि जब समाज के शीर्ष स्तरों पर आयेगी, तब वह रिसकर नीचे भी पहुँचेगी’‘ जिसके नतीजे आज सामने आ रहे हैं। यह स्थिति म.प्र. या छ.ग. की ही नहीं है तथा न ही इसके लिए मनमोहन, चिदम्बरम या शिवराजसिंह चौहान ही जिम्मेदार हैं। वर्तमान में भारतीय या विश्व पूँजीवाद मानवता को तबाही, बदहाली, भुखमरी, युद्ध व अकाल ही दे सकता है। बीच-बीच में यह जन-प्रतिरोध की आग पर छींटें मारने के लिए कुछ कल्याणकारी योजनाएँ या एनजीओ टाइप कार्यक्रम चलाता है जो दीनदयाल उपचार योजना, नरेगा या अन्य कोई गाँधी-नेहरू योजना के नाम से सामने आती हैं। इनमें यह दावा किया जाता है कि इसके केन्द्र में आम आदमी है जबकि इनके सारे फैसले फिक्की या एसोचैम के चैम्बरों में लिये जाते हैं परन्तु जहाँ दबाव अधिक होगा वहीं प्रतिरोध होगा। यह विज्ञान का नियम है। दुनिया बदलती है। यह निजाम भी बदलेगा। पूँजीवाद अजर और अमर नहीं। ज़रूरत है तो विकल्प खड़ा करने की। बकौल अली सरदार ज़ाफरी –

तमन्नाओं में कब तक जिन्दगी उलझायी जायेगी

खिलौने देकर कब तक मुफलिसी बहलायी जायेगी

नया चश्मा है पत्थरों के शिग़ाफों से निकलने को

जम़ाना किस कदर बेताब है करवट बदलने को।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2010

 

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