पूँजीवादी न्याय का असली चरित्र

शिवार्थ, लखनऊ

( नोट- इस लेख में फांसी की सजा सुनाने को ही फांसी दिए जाने शब्‍द से व्‍यक्‍त किया है – संपादक)

पिछले दिनों गृहमंत्री चिदम्बरम, कानून मंत्री वीरप्पा मोइली से लेकर विभिन्न देशों के राजदूतों तक, सभी ने एक स्वर में कसाब को फाँसी दिए जाने पर भारतीय न्यायपालिका यशगान गाया और न्याय के प्रति इसकी प्रतिबद्धता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। सभी दैनिक व साप्ताहिक अखबारों से लेकर ख़बरिया चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं ने भी कुछ इसी अन्दाज़ में ख़बरें प्रकाशित कीं और ऐसा प्रतीत हुआ मानो कसाब को फाँसी देकर भारतीय न्यायपालिका ने एक क्रान्तिकारी निर्णय दिया है और भारतीय दण्ड संहिता और न्याय व्यवस्था की श्रेष्ठता को स्थापित कर दिया है। पाठकों को ज्ञात होगा कि अजमल आमिर कसाब को नंवबर, 2008 में मुम्बई आंतकवादी हमले में 166 लोगों की हत्या (भारतीय और विदेशी) में शामिल होने के लिए और खुद 72 लोगों की हत्या करने के लिए मुम्बई के विशेष सेशन जज एम.एल. ताहिलियानी द्वारा एक साल से भी कम समय में मौत की सज़ा सुना दी गई। जाहिरा तौर पर किसी भी न्यायप्रिय एवं इंसाफपसन्द व्यक्ति को यह फैसला उपयुक्त लगा होगा क्योंकि कसाब का जुर्म नृंशस आपराधिक प्रवृत्ति का था और लगभग असुधारणीय था। हालाँकि यह भी अहम सवाल है कि, आखि़र क्यों कसाब या इस तरह के अन्य लोग मानव जीवन के प्रति द्वेषपूर्ण रवैया अपनाने के लिए मजबूर होते हैं और इसकी रोशनी में ही किसी विवेकपूर्ण फैसले तक पहुँचा जा सकता है, लेकिन फिलहाल इनकी दुहाई देकर कसाब को माफ नहीं किया जा सकता।

न्यायपालिका के इस फैसले को लेकर भारत का मध्यवर्ग काफी खुश था। अखबारों से लेकर समाचार चैनलों तक राष्ट्रवाद का बाज़ार गर्म था। लेकिन अभी इस फैसले पर हर्षातिरेक की लहर शान्त ही हुई थी कि भोपाल गैस त्रासदी के मामले पर भोपाल के एक सत्र न्यायालय का निर्णय भी आया और 26 वर्ष की कवायद के बाद करीब 30,000 लोगों के हत्यारों को 2 वर्ष की सज़ा सुनाई गई और इसके घण्टे भर में ही सभी दोषियों को ज़मानत मिल गयी और सभी आज़ाद हो गये। प्रमुख आरोपी वॉरेन एण्डरसन का तो फैसले में जिक्र तक नहीं आया और वह 1984 से ही आज़ाद घूम रहा है। आज भी वह न्यूयॉर्क के अपने आलीशान बंगले में ऐशो-आराम के साथ जी रहा है। सभी जानते हैं कि इस मामले में दोषियों को मामूली सज़ा मिलने के पीछे जो प्रमुख कारण था वह था 1996 में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस अहमदी द्वारा अभियुक्तों पर लगी धाराओं को बेहद नर्म कर दिया जाना। पहले लगी धाराओं के आधार पर जुर्म साबित होने पर 10 वर्ष तक की सज़ा और जुर्माना हो सकता था। लेकिन भोपाल गैस त्रासदी पर आए फैसले के बाद हुए खुलासों ने भारतीय पूँजीवादी न्याय व्यवस्था की सारी पोल-पट्टी खोलकर रख दी है।

Bhopal gas tragedy 1

आज दुनिया के सबसे बड़े ‘‘लोकतन्त्र’’ की असलियत जगजाहिर हो चुकी है। आजादी के 63 साल बाद आज इस देश की विधायिका और कार्यपालिका की वर्गीय पक्षधरता और चाल-चरित्र दोनों ही स्पष्ट हैं। चाहें नेता-मंत्री हों या नौकरशाह-अफसर, इस देश के आम लोग उनसे ईमानदार और जनपक्षधर होने की अपेक्षा नहीं करते और यह भी जानते हैं कि जो इक्का-दुक्का इस तरह के लोग हैं भी, उनसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। देश का शासक वर्ग भी इस बात की गम्भीरता को समझ रहा है और वह जानता है कि पूँजीवादी संसदीय जनतन्त्र की नौटंकी के हर क्षुद्र रहस्य का इस कदर आम हो जाना जनता की चेतना को आमूल परिवर्तनवादी बना सकता है। इस प्रक्रिया को विलम्बित करने के लिए इस पूँजीवादी तंत्र में तमाम संस्थाएँ मौजूद हैं। न्यायपालिका उनमें से एक है। बीच-बीच में कुछ जनपक्षधर दिखने वाले फैसले, सरकार और नौकरशाही को फटकार न्यायपालिका के कुछ ऐसे कार्य हैं जिसके जरिये वह पूँजीवादी तन्त्र के उघड़े अंगों को ढँकने में लगी रहती है। कमोबेश यही प्रक्रिया दुनिया के ज्यादातर पूँजीवादी देशों में लागू होती है। कार्यपालिका और विधायिका के काले कारनामों से व्यवस्था की जो मट्टीपलीद होती है, उसकी भरपाई करती है न्यायपालिका। इसी ज़रूरत के मद्देनज़र न्यायपालिका बीच-बीच में कुछ ऐसे निर्णय या टिप्पणी देती रहती है। हाल ही में ऐसे निर्णयों और टिप्पणियों और सुप्रीम कोर्ट से सरकार को मिलने वाली डाँट-फटकार की संख्या में ख़ासी बढ़ोत्तरी हुई है। इनमें से ज़्यादातर निर्णय या टिप्पणियाँ आम जनता के जीवन से सीधे तौर पर जुड़े न भी हों, तो व्यवस्था और पूँजीवादी न्याय में भरोसा पैदा करने का काम करते हैं। मिसाल के तौर पर, नितीश कटारा मर्डर केस या जेसिका लाल हत्याकाण्ड या प्रियदर्शनी मट्टू केस। ऐसे हर मौके पर इस देश का अतिवाचाल मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग खुशी से फूला नहीं समाता और भारतीय लोकतन्त्र और न्यायपालिका के गुणगान करने लगता है। इससे पूरे समाज में व्यवस्था के पक्ष में एक आम राय बनाने में शासक वर्गों को सहायता मिलती है। इसीलिए कई बार भारी कीमत चुकाकर भी शासक वर्ग इस झूठे और मिथ्याभासी भरोसे को कायम रखने का प्रयास करता है, जैसे कि सत्यम कम्प्यूटर्स के मालिक रामलिंगम राजू के घोटाले का पर्दाफाश या फिर आई.पी.एल. के जनक ललित मोदी का पर्दाफाश। ये वही लोग है जिनको कभी मीडिया यूथ आइॅकान और रोल मॉडल बनाकर पेश करता था।

कसाब के विषय में आए निर्णय से शासक वर्ग को कई फायदे मिले। एक तो कुछ दिनों के लिए मीडिया की मदद से पूरे देश में राष्ट्रवाद का बाज़ार गर्म हो गया। पटाखे जलाए गए, जुलूस निकाले गये, तिरंगे मुण्डेरों पर लहराने लगे, लड्डू बाँटे गये। इसके अतिरिक्त, फैसला आने पर पूँजीवादी न्यायपालिका के बारे में भ्रम भी मज़बूत हुआ। मीडिया और सभी पूँजीवादी पार्टियों के नेताओं ने इस फैसले को खूब हाईलाइट किया। लेकिन कुछ तथ्यों के बारे में मीडिया से लेकर नेता तक शान्त थे। जैसे कि इसी मामले में गिरफ्तार दो और अभियुक्तों फहीम अंसारी और शाहबुद्दीन अहमद (जिनके ऊपर हमले की जगहे के नक्शे तैयार करने का आरोप था) को सभी मुकदमों से बरी कर दिया है। एक साल तक बेगुनाह होते हुए भी क्यों इन दो लोगों को सलाखों के पीछे रहना पड़ा? क्यों इसके बाद इनके भीतर प्रतिक्रिया न पैदा हो? इस बात को बिल्कुल ग़ायब कर दिया।

सवाल तो यह भी है कि क्यों अजमल कसाब से भी ज्यादा जघन्य अपराध करने वाले हत्यारे आज न सिर्फ खुला घूम रहे है, बल्कि सत्ता की मलाई भी चाट रहे हैं? गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी, कांग्रेस के बड़े नेता जगदीश टाइलर, निठारी काण्ड के दोषी मोहिंदर सिंह पण्ढेर अपने कुकृत्यों के इतने सालों बाद भी न्यायपालिका की गिरफ्त से बाहर हैं। आखिर क्यों नांदेड़, मालेगाँव और अजमेर जैसी जगहों पर होने वाली आंतकवादी घटनाओं और उनके लिए जिम्मेदार साम्प्रदायिक हिन्दू फासीवादी आतंकवादियों के खिलाफ भी उसी तीक्ष्णता से कार्यवाही नहीं की गई, जिस तरह कि कसाब के सन्दर्भ में की गई? क्यों पर्याप्त साक्ष्य मौजूद होने के बावजूद भी रुचिका आत्महत्या मसले के दोषी डी.सी.पी. राठौर स्वतन्त्र घूमते हैं और बीस-बीस साल तक न्यायपालिका के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती? क्यों 30,000 आम भोपालियों के हत्यारे भोपाल गैस काण्ड के 26 वर्ष बाद भी आज़ाद घूम रहे हैं?

जवाब हम सभी जानते हैं। कानून की किताब में कुछ भी लिखा हो, अमीरों के लिए कानून का एक रुख़ होता है और ग़रीबों के लिए दूसरा। कानून के समक्ष समानता की सारी बातें किताबों में दबी रहती हैं। पूँजीवादी न्याय पूँजी के वर्चस्व का ही अंग होता है। इस प्रक्रिया ही ऐसी होती है कि कोई ग़रीब आदमी उस तक पहुँच ही नहीं पाता है। और अमीरों को तो न्याय व्यवस्था उनके दरवाज़े पर आकर न्याय देती है। और सबकुछ बेचने-खरीदने वाली व्यवस्था में न्याय का भी हश्र कमोबेश वैसा ही हो जाता है, जैसे कि किसी भी माल का।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010

 

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।