कोई किसी को यूँ ही नहीं पुकारता…
महेश चंद्र पुनेठा
कपिलेश भोज लम्बे समय से कविता के क्षेत्र में रचनारत रहे हैं। देश की विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ छपती रही हैं। यह दूसरी बात हैं कि छपने-छपाने के प्रति उनकी उदासीनता तथा संगठनात्मक कार्यों में व्यस्तता के चलते संग्रह बहुत देर से आया। शायद मित्रों का दबाव नहीं होता तो यह कविता संग्रह अभी भी सामने नहीं आता। ‘यह जो वक्त है’ के नाम से उनका संग्रह अब हमारे हाथों में है। कपिलेश भोज उन विरले कवियों में हैं जिनकी कविता और जीवन में फांक नहीं दिखाई देती है। उनको जानने वाले लोग समीक्ष्य संग्रह की कविताओं से गुज़रते हुए इस बात को लगातार महसूस कर सकते हैं। हमें यहाँ भी वही कपिलेश दिखाई देते हैं जो वह जीवन में हैं । कोई बनावटीपन, कोई दिखावा या कोई दुराव-छुपाव नहीं है यहाँ। वही बेबाकी, वही जनपक्षधरता, वही ईमानदारी जो उनकी बातचीत में मिलती है। इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है जैसे सामने बैठकर वो हमसे बतिया रहे हैं। इन कविताओं में अपने आसपास के प्रति गहरी आत्मीयता झलकती है।
कपिलेश भोज की कविताओं की एक बड़ी विशिष्टता यह है कि ये कविताएँ पाठक को केवल चाक्षुष यथार्थ से अवगत नहीं कराती बल्कि यथार्थ की द्वंद्वात्मकता का दर्शन कराती हैं। ये कविताएं अपने समय-समाज की विसंगति-विडम्बना का चित्रण मात्रा नहीं करती हैं बल्कि इनसे बाहर निकलने का रास्ता भी बताती हैं। इन कविताओं में समाज व्यवस्था के बारे में केवल कवि की राय नहीं है और न ही उसका कोई उपदेश बल्कि जनता के जीवन की जटिल वास्तविकता को अधिक से अधिक पूर्णता के साथ चित्रित करने का प्रयास है ताकि पाठक का यथार्थ बोध विकसित हो और उसकी चेतना का विस्तार हो सके। इन कविताओं में जो आम आदमी आता है वह असहाय, निरीह, अक्षम और पस्तहिम्मत नहीं बल्कि अपनी परिस्थितियों से लड़ने वाला है। सत्ता के प्रपंच तथा क्रूर आतंक दोनों को ये कविताएँ उघाड़ती हैं।
कवि ‘लखनऊ-देहरादून-दिल्ली से लेकर/टोकियो और वाशिंगटन तक फैले/अपने मुनाफों के विस्तार के ख़ातिर/जन-जन के आँखों के आगे/निराशा और विभ्रम का सतरंगी कुहासा’ फैलाने वाले सभ्य लुटेरों के गिरोहों के शातिर खेल को तो साफ-साफ पहचानता ही है साथ ही इस शातिर खेल के प्रतिपक्ष में खड़े संगठित जन को भी पहचानता है और आशा व्यक्त करता है कि एक दिन अवश्य इस शातिर खेल का अन्त होगा और एक नया और जवान सूरज चमकेगा। और इस बात पर बल देता है कि ‘अभी तो वक्त है/ भेड़ियों के खिलाफ /एक साथ सन्नद्ध होने/और उन्हें नेस्तानाबूद करने का।/ इसके लिए ज़रूरी है- कितने ही हों/ख़तरे और कितनी ही हों/कठिनाइयाँ/अखिरकार/धँसना तो होगा ही/जन अरण्य में।/स्थितियाँ दिन-प्रतिदिन/विपरीत होती जा रही हैं। शोषण-उत्पीड़न बढ़ता ही जा रहा है/सत्ता में कुण्डली मारकर बैठे अधिानायक – हर उस व्यक्ति के चारों ओर/कस रहे हैं घेरा/जो अन्याय, शोषण और जुल्म को/देख-सुनकर/बन्द नहीं कर पाता/अपने आँख-कान/न्याय और आज़ादी के पक्ष में/उठी हर मुट्ठी में/ उन्हें दिखाई देता है/नक्सलवाद और माओवाद/विचारों पर भी/बैठा रहे हैं वे पहरे।/ऐसे समय में -खतरनाक है बहुत/अब और अधिक/सोए रहना/अनिश्चय में डूबे रहना/भयग्रस्त होना/या फिर /तलाशना/कोई सुरक्षित एकान्त कोना।’ कवि का मानना है कि – ‘चीज़ें नहीं बदलतीं/केवल बतियाने/और उन पर चीखने-चिल्लाने से।’ कपिलेश चुप रहने के पक्ष में कभी नहीं रहते – ‘चुप है भला आदमी/इसलिए ऊँची आवाज़ में गरजता है उस पर शराब पिया आदमी भी।’ वे भले आदमी होने के पक्ष में तो हैं पर इस बात के खिलाफ हैं कि ऐसा भला आदमी नहीं होना चाहिए जो हर भली-बुरी बात को सन्त की मुद्रा में चुपचाप सहन कर ले।
ये कविताएं सपने देखती हैं बहुसंख्यक जन की आजादी और खुशी के तथा प्रतिकार करती हैं गुलामों की तरह हाँके जाने का। आकांक्षा करती हैं एक ऐसे समाज की जिसमें जी सकें सभी मनुष्य का गरिमामय जीवन। अपील करती हैं जीवन के महाअरण्य में धँसने की ताकि पहुँच सकें ऊर्जा के उद्गम तक और हो सकें ऊर्जावान व तेजस्वी। ढूँढती हैं एक कतरा प्यार व एक कतरा हरियाली। बचाए रखना चाहती हैं मानवीय ऊष्मा को । प्रश्न करती हैं कि- ‘अच्छी कद काठी /और दो मजबूत हाथों के बावजूद/क्यों नहीं है उसके लिए/कोई काम? पिरमू का आक्रोश इन कविताओं में फूटता दिखाई देता है। ‘ईश्वर की बनायी इस दुनिया’ के खिलाफ जिसमें सपना है उसके लिए सर्दी से बचने के लिए लिहाफ, कोट, बनियान मात्रा जिसके अभाव में चल बसा उसका सात-साल का लड़का। इन कविताओं के चिन्ता के केंद्र में है हमारे बीच से गायब होती जा रही हँसी – ‘कितने दुर्लभ होते जा रहे हैं/हँसी-खुशी अपनेपन में डूबे/हल्केपन के पल/और जीने के क्षण।’ पर ये कविताएँ इन पर केवल आँसू नहीं बहाती हैं बल्कि इन्हें बदलने की कोशिशों को तेज़ करने की बात करती हैं । यही बात है जो इन कविताओं को अलग खड़ा करती है।
कुछ लोग यह समझते हैं कि जनवादी या क्रान्तिकारी कविताओं में प्रकर्ति, प्रेम और सौन्दर्य के लिए कोई जगह नहीं होती है। इस दृष्टि से कपिलेश की कविताएं नेरूदा, नाजिम हिक़मत, ब्रेख्त, केदार, नागार्जुन आदि कवियों की परम्परा का निर्वहन करती हैं। इनके यहाँ प्रकृति का सौन्दर्य भी है और प्रेम भी । पहाड़ की प्रकृति कपिलेश भोज की कविताओं में बार-बार आती है। साथ ही एक आम पहाड़ी की विवशता भी जिसको रोजगार की तलाश में अपनी सुरम्य प्रकृति को छोड़कर जाना होता है। जिसका मन तो बिल्कुल नहीं होता है कि वह इससे दूर जाए। वह तो चाहता है अपने पहाड़ों ,नदियों ,बाँज-बुराँश-देवदारुओं से मिलना और बतियाना। प्रकृति कपिलेश के लिए दोस्त की तरह है। प्रकृति का शरद ऋतु का रूप उन्हें बहुत अधिक पसन्द है। शरद को पसन्द करना यूँ ही नहीं है । यह केवल एक ऋतु को पसन्द करना नहीं लगता है। समता की आकांक्षा का परिचायक है यह। शरद से भेंट करना समता को भेंटने जैसा है । उस समाज की कल्पना है जो शरद के स्वभाव की है जहाँ न अधिक गर्मी है और न अधिक सर्दी अर्थात समशीतोष्ण।
कपिलेश प्रेम के भी कवि हैं पर यहाँ जब दो प्रेमी-प्रेमिका मिलते हैं तो वे केवल प्रेमालाप नहीं करते बल्कि ‘चारों ओर छायी गहरी धुंध’ के बारे में बात करते हैं, जिन्दगी द्वारा उनके सामने खड़े कर दिए गए सवालों के जबाब ढूँढते हैं। उनकी बातचीत के केन्द्र में होते हैं ज़माने के युवाओं की अशांति, विभ्रम व दर्द। वे उन्हें इससे बाहर निकालने के लिए पगडण्डी की तलाश करते हैं-जिस पर चलकर पहुँचें वे वहाँ जहाँ पहुँचकर जीना हो सके सार्थक तथा रचा जा सके बेहतर। कपिलेश के लिए आत्मीय जनों के साथ बिताए गए पलों का सुख दुनिया का सबसे बड़ा सुख है। वे मानते हैं-‘जगहें /अच्छी बुरी नहीं होतीं/जगहें केवल जगहें होती हैं/जिन्हें अच्छा-बुरा बनाते हैं/साथ जिए गए/जीवन के हमारे अच्छे-बुरे पल।’
कपिलेश भोज की कविताओं में हमें तीखा व्यंग्य भी मिलता है । कवि बिरादरी भी उनके इस व्यंग्य से नहीं बच पाई है और न ही मधयवर्ग जिनका वह स्वयं भी प्रतिनिधित्व करते हैं। यह साहस की बात है। ‘वे कवियों में एक बड़े कवि हैं’ इसी तरह की एक व्यंग्य कविता है। यह उन कवियों को तिलमिला देने वाली कविता है जो अपने कवि होने पर फूले नहीं समाते और कवि कहलाने तथा पुरस्कार पाने के लिए कविता करते हैं। जिनका आम आदमी से कोई लेना देना नहीं होता तथा कविता करने के नाम पर जो पहेली बुझाते हैं। कुल मिलाकर जो कविता लिखकर खुद को विशिष्ट साबित करते हैं।
इन कविताओं का इंद्रियबोध, भाव-बोध तथा विचार बोध इतना मज़बूत है कि एक सहृदय पाठक का शिल्प पक्ष की ओर धयान ही नहीं जाता। ये कविताएँ हमें सिर्फ चेताती ही नहीं बल्कि जोखि़म उठाने, अपने समय के सवालों के हल ढूँढने तथा प्रतिरोध में खड़े होने को प्रेरित करती हैं। इस रूप में ये कविताएँ अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाती हैं। आज साहित्यकारों का आम मुहावरा है कि आज के समय में बड़ी लड़ाइयाँ नहीं हैं इसलिए साहित्य में भी वह नहीं दिखाई देती हैं। पर कपिलेश की कविताएँ इस मुहावरे को झुठलाती हैं। ये कहती हैं कि लड़ाइयाँ हैं पर हमारी मधयवर्गीय आँखें उसे देख नहीं पाती हैं। ये कविताएँ पाठकों को यूँ ही नहीं पुकारती बल्कि इनमें मन की गहराइयों से उभर उठने वाली कोई दुर्निवार कशिश है जो अकेलेपन और विभ्रम के दमघोंटू चक्रवात में घिर जाने पर हमारी मदद करती हैं।
कात्यायनी अपनी पुस्तक ‘कुछ जीवन्त कुछ ज्वलन्त’ में आज लिखी जा रही अधिकतर कविताओं के बारे में लिखती हैं, ‘‘इधर प्रगतिशील दायरों के भीतर भी जनवादी कविता के आदर्श के तौर पर एक नए किस्म का रूपवाद परोसा जा रहा है। ऐसी कविताओं में निर्जीव चीज़ों का घटाटोप बहुत है, पर सक्रिय जीवन अनुपस्थित-सा है। यदि ऐसा बिम्ब रचने और रूपक गढ़ने के लिए किया गया है, तो भी बस बिम्बों-रूपकों का झिलमिलाता कुहरीला परिवेश ही रह जाता है, मन्तव्य कहीं खो जाता है। बिम्बों-रूपकों की खूबसूरत सजावट से सम्मोहित पाठक इस सज्जा और शब्दक्रीड़ा को ही कविता का मन्तव्य समझता है। ऐसी कविता में जीवन की त्रसदियों-विडम्बनाओं पर कुछ टिप्पणियाँ तो होती हैं, पर उनमें शब्द चातुर्य अधिक होता है, सोचने के लिए बाध्य कर देने की माद्दा नहीं होता।’‘ लेकिन समीक्ष्य संग्रह की कविताएँ इन सीमाओं से मुक्त हैं । यहाँ न रूपवाद है, न निर्जीव चीज़ों का घटाटोप और न ही शब्दचातुर्य। अभिजात्य सौंदर्यबोध के शिकार पाठकों को शायद ये कविताएँ पसन्द भी न आएँ। ये वायवीय, लोकोत्तर, पराभौतिक तथा आत्मनिष्ठ नहीं हैं। ये कविताएँ सक्रिय जीवन तथा परिवेश की उपस्थिति से पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं तथा पाठकों को सोचने-विचारने के लिए प्रेरित करती हैं। इन कविताओं का अपना भूगोल है। इनमें पाठक को कवि के आसपास की नदी, पहाड़, पेड़-पौधों, गाँव, कस्बे तथा उनमें रहने वाले लोग मिल जाते हैं जो कविता का अपना एक अलग चेहरा बनाते हैं। इस तरह ये अपनी ज़मीन, अपनी जड़ों और अपने जन से जुड़ी कविताएँ हैं। इसलिए इनके फैलने की सम्भावना अनन्त हैं।
यह जो वक़्त है (कविता संग्रह)
कपिलेश भोज
प्रकाशक- परिकल्पना प्रकाशन, डी-68, निराला नगर, लखनऊ-226006
मूल्य – पचास रुपए।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010
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