जेल में भगतसिंह द्वारा लिये गये नोट्स के कुछ नये और दुर्लभ अंश

भारतीय इतिहास की एक दुखद विडम्बना यह भी है कि आज भी इस देश के शिक्षित लोगों का एक बड़ा हिस्सा भगतसिंह को एक महान वीर तो मानता है, पर यह नहीं जानता कि 23 वर्ष का वह युवा एक महान चिन्तक भी था। राजनीतिक आज़ादी मिलने के पचास वर्षों बाद भी सम्पूर्ण गाँधी वाङ्गमय, नेहरू वाङ्गमय से लेकर सभी राष्ट्रपतियों के अनुष्ठानिक भाषणों के विशद्ग्रन्थ तक प्रकाशित होते रहे पर किसी भी सरकार ने भगतसिंह और उनके साथियों के सभी दस्तावेज़ों को अभिलेखागार, पत्र–पत्रिकाओं और व्यक्तिगत संग्रहों से निकालकर छापने की सुध नहीं ली। वे ऐसा करते भी क्यों ? भगतसिंह के विचार आज़ाद भारत के नये हुक़्मरानों के लिए भी उतने ही ख़तरनाक हैं जितने खतरनाक वे अंग्रेज़ों के लिए थे। पिछले ढाई–तीन दशकों में भगतसिंह के विचारों को जनता तक पहुँचाने का काम जनमुक्ति संघर्ष में लगे हुए विभिन्न जनसंगठनों और जनपक्षधर साहित्य के प्रकाशनों ने ही किया है।

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भगतसिंह की दुर्लभ जेल नोटबुक का प्रकाशन पिछली शताब्दी के अन्तिम दो दशकों के दौरान की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इस बहुमूल्य और इतिहास के विद्वानों तक के लिए अज्ञात दस्तावेज़ का प्रकाशन सबसे पहले भूपेन्द्र हूजा ने 1991 में अपनी पत्रिका ‘इण्डियन बुक क्रॉनिकल’ में किस्तों में शुरू किया और फिर 1994 में इसका (अंग्रेज़ी में) पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ। फिर अप्रैल, 1999 में इसका हिन्दी अनुवाद (अनुवादक विश्वनाथ मिश्र और सम्पादक सत्यम वर्मा) नयी भूमिका और नोटबुक की खोज–विषयक नये तथ्यों सहित लिखे गये दो लम्बे निबन्धों (आलोक रंजन और एल.वी. मित्रोखिन) के साथ तथा नयी सन्दर्भ–टिप्पणियों के साथ, परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हुआ। (अब इस नोटबुक का नया हिन्दी संस्करण राहुल फाउण्डेशन से प्रकाशित हुआ है।)

भगतसिंह की जेल नोटबुक मिलने के बाद भगतसिंह के चिन्तक व्यक्तित्व की व्यापकता और गहराई पर और अधिक स्पष्ट रोशनी पड़ी है, उनके वैचारिक विकास की प्रक्रिया समझने में मदद मिली है और यह सच्चाई और अधिक पुष्ट हुई है कि भगतसिंह ने अपने अन्तिम दिनों में, सुव्यवस्थित एवं गहन अध्ययन के बाद बुद्धिसंगत ढंग से मार्क्सवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाया था। एकबारगी तो यह बात अविश्वसनीय–सी लगती है कि क्रान्तिकारी जीवन और जेल की बीहड़ कठिनाइयों में भगतसिंह ने ब्रिटिश सेंसरशिप की तमाम दिक्‍कतों के बावजूद पुस्तकें जुटाकर इतना गहन और व्यापक अध्ययन कर डाला। महज 23 वर्ष की छोटी–सी उम्र में चिन्तन का जो धरातल उन्होंने हासिल कर लिया था, वह उनके युगदृष्टा युगपुरुष होने का ही प्रमाण था। ऐसे महान चिन्तक ही इतिहास की दिशा बदलने और गति तेज़ करने का माद्दा रखते हैं।

अभी हाल ही में भगतसिंह के भांजे प्रो. जगमोहन सिंह के प्रयासों से भगतसिंह द्वारा जेल में लिये गये कुछ और नोट्स प्रकाश में आये हैं। ये नोट्स जेल में भगतसिंह को दी गयी 404 पृष्ठ की नोटबुक के पहले फुलस्केप काग़ज़ों पर लिखे गये हैं। इनमें भगतसिंह ने प्रेम, विवाह, धर्म, दासता, कानून, ग़रीबी, अपराध जैसे उपशीर्षकों के तहत विभिन्न लेखकों की कृतियों से नोट्स लिये हैं। अधिकांश नोट्स अंग्रेज़ी में हैं तथा कुछ उर्दू के शेर भी भगतसिंह ने दर्ज किये हैं। इनमें से कुछ अंश हम यहाँ आह्वान के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।

सम्पादक

वर्तमान सामाजिक व्यवस्था : ‘‘साफ है कि यह दुनिया दुख और तकलीफ से भरी हुई जगह है, एक ऐसी जगह है जहाँ मूर्ख तरक्की करते हैं और अच्छे तथा समझदार लोग नफरत और उत्पीड़न के शिकार होते हैं, एक ऐसी जगह है जहाँ स्त्री–पुरुष प्रेम के नाम पर एक–दूसरे को यन्त्रणा देते हैं; जहाँ बच्चे मुसीबत समझे जाते हैं और अभिभावकीय कर्तव्य के नाम पर गुलाम बने रहते हैं और बीमार तथा कमज़ोर दिमाग के लोग न्याय के नाम पर बरसों तक कैद की यन्त्रणा झेलते हैं।’’

– ‘जॉन बुल्स अदर आइलैण्ड’, बर्नार्ड शॉ

ग़रीबी : ‘‘चूँकि सबसे बड़ी बुराई और सबसे बुरा अपराध ग़रीबी है, इसलिए हमारा पहला फ़र्ज़ है – एक ऐसा फ़र्ज़ जिसके लिए अन्य सभी बातों को छोड़ा जा सकता है – कि हम ग़रीब न रहें। ‘ग़रीब मगर ईमानदार,’ ‘सम्मानित ग़रीब’ जैसे वाक्यांश उतने ही नाकाबिले बर्दाश्त हैं और उतने ही अनैतिक हैं जितना यह कहना कि कोई नशे में धुत मगर मिलनसार है, या ‘धूर्त मगर अच्छा वक्ता’ है या ‘शानदार अपराधी’ है वगैरह–वगैरह। सुरक्षा, जो कि सभ्य समाज की मुख्य वजह बतायी जाती है, तब तक मौजूद नहीं रह सकती जब तक सबसे भयंकर खतरा, ग़रीबी का खतरा हरेक के सिर पर लटका हुआ हो, और जब तक हिंसा से हमारा एकमात्र बचाव एक ऐसी पुलिस की मौजूदगी है जिसका असली काम है ग़रीब आदमी को चुपचाप यह देखते रहने के लिए मजबूर करना कि उसके बच्चे भूख से तड़पते हैं जबकि बैठे–ठाले लोग पालतू कुत्तों को पकवान खिलाने पर इतने पैसे उड़ा देते हैं जिनसे ग़रीबों के बच्चों को रोटी–कपड़ा मिल सकता था।’’

–‘मेजर बारबरा’, बर्नार्ड शॉ

कैद: ‘‘हम एक आदमी को पकड़ते हैं और जानते–बूझते हुए उसे एक घातक चोट पहुँचाते हैं: यानी वर्षों के लिए जेल में बन्द कर देते हैं। एक आदमी मेरे घर में घुसकर मेरी बीवी के गहने चुरा लेता है, तो मुझसे यह अपेक्षा की जाती है कि मैं उसके जीवन के दस वर्ष चुरा लूँ और इस पूरे समय उसे यन्त्रणा देता रहूँ। लेकिन जिस विचारहीन दुष्टता के साथ हम नैतिक रूप से विकलांग लोगों और उत्साही विद्रोहियों को जेल, कैद–तन्हाई और कोड़ों की सजा सुनाते रहते हैं, वह उस मूर्खतापूर्ण क्षुद्रता के आगे कुछ नहीं है जिसके साथ हम ग़रीबी को बर्दाश्त करते रहते हैं। आज देश की सबसे बड़ी ज़रूरत बेहतर नैतिकता, ‘सस्ती रोटी’, संयम, स्वतन्त्रता, संस्कृति, पतिता बहनों और भटके हुए भाइयों का उद्धार आदि नहीं है, पवित्र त्रिमूर्ति का स्नेह, प्रेम और भक्ति आज की ज़रूरत नहीं है, बल्कि सबसे ज़रूरी है बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने के लिए आवश्यक धन। और जिस बुराई पर चोट करनी है वह न तो पाप, पीड़ा, लोभ, धर्मशाही, राजशाही, इज़ारेदारी, अज्ञान, शराब, युद्ध, बीमारी आदि है और न ही सुधारवादियों द्वारा खड़ा किया गया कोई और बलि का बकरा, बल्कि उस बुराई का नाम है ग़रीबी।

‘‘मगर आज एक सफल बदमाश के साथ बिल्कुल अलग तरह का बर्ताव होता है। न केवल उसे माफ कर दिया जाता है, बल्कि उसे आदर्श माना जाता है, सम्मान दिया जाता है, लगभग पूजा जाता है।

‘‘ग़रीबी शहर–दर–शहर अभिशाप की तरह पसरी है, यह भयानक महामारियाँ फैलाती है, अपने आगोश में आने वाले हर व्यक्ति की आत्मा को मार देती है। तुम जिसे अपराध कहते हो वह तो कुछ भी नहीं है–––लन्दन में करीब 50 वास्तव में पेशवर अपराधी हैं। लेकिन यहाँ दसियों लाख ग़रीब, दरिद्र, गन्दगी में लिथड़े लोग हैं, जिनके पास न भरपेट खाना है, न तन ढँकने को पूरे कपड़े हैं।”

‘‘मैं कंगाल होने के बजाय चोर बनना पसन्द करूँगा। मैं दास बने रहने के बजाय हत्यारा बनना पसन्द करूँगा। मैं इन दोनों में से कोई भी बनना नहीं चाहता, लेकिन अगर आप मुझे चुनने के लिए मजबूर करेंगे तो, कसम से, मैं वह विकल्प चुनूँगा जो अधिक साहसपूर्ण और अधिक नैतिक है। मैं किसी भी अपराध के मुकाबले ग़रीबी और दासता से अधिक नफरत करता हूँ।’’

 – ‘मेजर बारबरा’, बर्नार्ड शॉ

सभ्यता और प्रगति : ‘‘जीवन की कला में मनुष्य कुछ नहीं करता, लेकिन मृत्यु के काम में वह कुदरत को भी पीछे छोड़ देता है, और केमिस्ट्री तथा मशीनरी के द्वारा प्लेग, महामारी और अकाल से बढ़कर हत्याकाण्ड रचता है। आज का किसान वही खाता और पीता है जो दस हज़ार साल पहले के किसान खाते और पीते थे, और जिस घर में वह रहता है उसमें हज़ार साल में उतना बदलाव नहीं आया जितना कि महिलाओं की टोपियों के फैशन चन्द सप्ताह में बदल जाते हैं। लेकिन जब वह मार–काट मचाने निकलता है तो अपने साथ यन्त्रविज्ञान के ऐसे करिश्मे लेकर चलता है जो उँगलियों के इशारे पर बेहिसाब ताकत पैदा करते हैं और पूर्वजों के भाले, तीर और फुँकनी को बहुत पीछे छोड़ देते हैं।’’

– ‘मैन एण्ड सुपरमैन,’ बर्नार्ड शॉ

……..

‘‘राजनीतिक दासता की बेड़ियाँ समय–समय पर उतार फेंकी और तोड़ी जा सकती हैं लेकिन सांस्कृतिक अधीनता की बेड़ियों को तोड़ना अकसर ज़्यादा कठिन होता है।

……..

नहीं स्वतन्त्रता, उनकी मुस्कानों के आगे हम कभी

समर्पण नहीं करेंगे,

जाओ जाकर कह दो हमलावरों से

एक मिनट भी ज़ंजीरों में बँधकर सोने से

अच्छा है आज़ादी के लिए लड़ते हुए मर जाना

टॉमस मूर, हिन्दू पद पादशाही में उद्धृत

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010

 

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