लैंग्सटन ह्यूज की कविताएँ
लैंग्स्टन ह्यूज (1902-1967) के कृतित्व के प्रति अमेरिकी आलोचकों और प्रकाशकों का उपेक्षापूर्ण रवैया अमेरिकी साहित्य की दुनिया में रंगभेद का प्रतिनिधि उदाहरण है। कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, निबन्ध – ह्यूज़ ने इन सभी विधाओं में विपुल मात्र में लिखा और उनका रचना संसार काफ़ी वैविध्यपूर्ण था, पर अंग्रेज़ी के साहित्य संसार में उसका समुचित मूल्यांकन नहीं हुआ। इसका कारण महज़ इतना ही नहीं था कि ह्यूज अश्वेत थे और अश्वेतों के उत्पीड़न के मुखर विरोधी थे। इससे भी अहम कारण यह था कि वह विचारों से वामपंथी थे और इस सच्चाई को उन्होंने कभी छुपाया नहीं। इसका ख़ामियाज़ा उन्हें मैकार्थीकाल में ही नहीं बल्कि उसके बाद भी चुकाना पड़ा। लैंग्स्टन ह्यूज जीवन, संघर्ष और सृजन के सहज प्रवाह के कवि हैं। सादगी और सहज अभिव्यक्ति का सौन्दर्य उनकी कविता की शक्ति है। हिन्दी पाठक उनकी कविताओं से बहुत कम परिचित हैं क्योंकि वे हिन्दी में छिटपुट और काफ़ी कम अनूदित हुई हैं।
ह्यूज की कविताओं का विषय मुख्य रूप से मेहनतकश आदमी है, चाहे वह किसी भी नस्ल का हो। उनकी कविताओं में अमेरिका की सारी शोषित-पीड़ित और श्रमजीवी जनता की कथा-व्यथा का अनुभव किया जा सकता है। ह्यूज का अमेरिका इन सब लोगों का है – वह मेहनतकशों का अमेरिका है, वही असली अमेरिका है, जो दुनिया में अमन-चैन और बराबरी चाहता है, और तमाम तरह के भेदभाव को मिटा देना चाहता है। ह्यूज की इसी सोच ने उन्हें अन्तरराष्ट्रीय कवि बना दिया और दुनिया-भर के मुक्तिसंघर्षों के लिए वे प्रेरणा के स्रोत बन गये।
हम यहाँ लैंग्सटन ह्यूज की एक लम्बी कविता प्रस्तुत कर रहे हैं। इसका अनुवाद हिन्दी के सुपरिचित कवि और पत्रकार रामकृष्ण पाण्डेय ने किया है। गत वर्ष नवम्बर में पाण्डेयजी का अचानक निधन हो गया। जल्दी ही उनके द्वारा अनूदित ह्यूज की कविताओं का संकलन ‘आँखें दुनिया की तरफ देखती हैं’ परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित होने वाला है। – सम्पादक
एक बार फिर अमेरिका वही अमेरिका बने
एक बार फिर अमेरिका वही अमेरिका बने
वही एक सपना जो वह हुआ करता था
नयी दुनिया का अगुवा
एक ठिकाना खोजता
जहाँ ख़ुद भी आज़ादी से रह सके
अमेरिका मेरे लिए कभी यह अमेरिका रहा ही नहीं
एक बार फिर अमेरिका उन स्वप्नदर्शियों का वही सपना बने
प्यार और मोहब्बत की वही ठोस महान धरती
जहाँ राजा कभी पैदा हुआ ही नहीं
और न आतंककारियों की यह साजिश
कि किसी एक के शासन में दूसरा प्रताड़ित हो
‘‘यह कभी मेरे लिए अमेरिका रहा ही नहीं’‘
जी हाँ, मेरी यह धरती ऐसी धरती बने
जहाँ आज़ादी सम्मानित न हो
झूठी देशभक्ति की मालाओं से
जहाँ सबको अवसर मिले
और जीवन मुक्त हो
और जिस हवा में हम साँस लेते हैं
वह सबके लिए एक-सी बहे
‘’आज़ाद लोगों की इस धरती’‘ पर
कभी आज़ादी या बराबरी मुझे नसीब नहीं हुई
बतलाइये तो, कौन हैं आप इस अँधेरे में छिपते हुए
और कौन हैं आप सितारों से चेहरा छुपाते हुए
मैं एक गरीब गोरा आदमी हूँ अलगाया हुआ
मैं एक नीग्रो हूँ गुलामी का घाव खाया हुआ
मैं एक लाल आदमी हूँ अपनी ही धरती से
भगाया हुआ
मैं एक प्रवासी हूँ अपनी उम्मीदों की डोर से
बँधा हुआ
और हमें वही पुराना रास्ता मिलता है बेवकूफ़ी का
कि कुत्ता कुत्ते को खाये, कमज़ोर को मज़बूत दबाये
मैं ही वह नौजवान हूँ
ताकत और उम्मीदों से लबरेज़
जकड़ा हुआ उन्हीं पुरानी ज़ंजीरों से
मुनाफ़े की, सत्ता की, स्वार्थ की, ज़मीन हथियाने की
सोना लूट लेने की
ज़रूरतें पूरी करने के उपायों को हड़पने की
काम कराने की और मज़दूरी मार जाने की
अपने लालच के लिए सबका मालिक बनने की
ख़्वाहिशों की
मैं ही वह किसान हूँ ज़मीन का गुलाम
मैं वह मज़दूर हूँ मशीन के हाथ बिका हुआ
मैं ही वह नीग्रो हूँ आप सबका नौकर
मैं ही जनता हूँ विनम्र, भूखी, निम्नस्तरीय
उस सपने के बावजूद आज भी भूखी
ओ नेताओ! आज भी प्रताड़ित
मैं ही वह आदमी हूँ जो कभी बढ़ ही नहीं पाया
सबसे गरीब मज़दूर जिसे वर्षों से भुनाया जाता रहा है
फिर भी मैं ही वह हूँ जो देखता रहा
वही पुराना सपना
पुरानी दुनिया का जब बादशाहों का गुलाम था
और देखा करता था इतना मज़बूत, इतना बहादुर
और इतना सच्चा सपना
जो आज भी अपने उसी दुस्साहस के साथ
गीत बनकर गूँजता है
हर एक ईंट में, पत्थर में
और हर एक हल के फाल में
जिसने अमेरिका की ज़मीन को ऐसा बना दिया है
जैसी आज वह है
सुनो, मैं ही वह आदमी हूँ
जिसने उस शुरुआती दौर में समुद्रों को पार किया था
अपने होने वाली रिहाइश की खोज में
क्योंकि मैं ही वह हूँ
जिसने आयरलैण्ड के अँधेरे तटों को छोड़ा था
और पोलैण्ड की समतल भूमि को
और इंग्लैण्ड के चरागाहों को
और काले अफ्रीका के समुद्री किनारों से बिछुड़ा था
‘’एक आज़ाद दुनिया’‘ बनाने के लिए
आज़ाद?
किसने कहा आज़ाद?
मैं तो नहीं
जी हाँ, मैं तो नहीं
वे लाखों लोग भी नहीं
जो आज भी भीख पर जीते हैं
वे लाखों हड़ताली भी नहीं
जिन्हें गोली मार दी गयी
वे लाखों लोग भी नहीं
जिनके पास कुछ भी नहीं है
हमें देने के लिए
क्योंकि सारे सपने हमने मिलकर देखे थे
और सारे गीत हमने मिलकर गाये थे
और सारी उम्मीदें हमने मिलकर सजायी थीं
और सारे झण्डे हमने मिलकर फहराये थे
और लाखों लोग हैं
जिनके पास कुछ भी नहीं है आज
सिवा उस सपने के जो अब लगभग मर चुका है
एक बार फिर अमेरिका वही अमेरिका बने
जो कि वह अब तक नहीं बन पाया है
और जो कि उसे बनना ही है
एक ऐसी धरती जहाँ हर कोई आज़ाद हो
जो हमारी धरती हो, एक गरीब आदमी की
रेड इण्डियन की, नीग्रो की, मेरी
अमेरिका को किसने बनवाया
किसके ख़ून-पसीने ने
किसके विश्वास और दर्द ने
किसके हाथों ने कारख़ानों में
किसके हल ने बरसात में
हमारे उस मज़बूत सपने को
फिर से जगाना होगा
चाहे जैसी भी गाली दो मुझे
ठीक है तुम चाहे जिस गन्दे नाम से मुझे पुकारो
आज़ादी का वह महान इस्पात झुकता नहीं है उनसे
जो लोगों की जिन्दगी में
जोंक की तरह चिपके रहते हैं
हमें अपनी धरती वापस लेनी ही होगी
अमेरिका
जी हाँ मैं दो टूक बात करता हूँ
अमेरिका कभी मेरे लिए यह अमेरिका रहा ही नहीं
फिर भी मैं कसम खाता हूँ, वह होगा
गिरोहों की लड़ाइयों में हमारी मौत के बावजूद
बलात्कार, घूसख़ोरी, लूट और झूठ के बावजूद
हम लोग, हम सारे लोग
मुक्त करेंगे इस धरती को
इन खदानों को, इन वनस्पतियों को
नदियों को, पहाड़ों और असीम समतल भूमि को
सबको, इन महान हरित प्रदेशों के सम्पूर्ण विस्तार को
और फिर बनायेंगे अमेरिका को अमेरिका।
सपनों को…
सपनों को कसकर पकड़ रखो
क्योंकि अगर सपने मर गये
तो जीवन है टूटे परों वाली एक चिड़िया
जो उड़ नहीं सकती
सपनों को कसकर पकड़ रखो
क्योंकि सपनों के बग़ैर
जीवन है एक बंजर खेत
बर्फ़ से ढँका हुआ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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