नयी शती में चित्रकला का भविष्य

अशोक भौमिक

अशोक भौमिक के नाम को आज किसी परिचय की ज़रूरत नहीं है। जनपक्षधर कला की नुमाइन्दगी करने वाले युवा कलाकारों में वे आज एक ऐसा नाम हैं, जिन्हें नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। आज के समय में जब ‘कला के लिए कला’ (जो व्यवहारतः अन्त में ‘बाज़ार के लिए कला’ में परिणत होती है) के घटाटोप में सामाजिक सरोकार और संवेदनशीलता पर काले रंग की कूची फेर दी जा रही है, अशोक भौमिक जनता के स्वप्नों और आकांक्षाओं को अपनी सुर्ख़ कूची से कैनवस पर उकेरने वाले कलाकार और कला-चिन्तक हैं। हम इस आलेख के लिए उनके आभारी नहीं हैं क्योंकि समानधर्मा लोग आभार व्यक्त नहीं करते और हम उम्मीद करते हैं कि आगे भी वे आह्वान के पाठकों के साथ अपना रिश्ता जारी रखेंगे।

लेकिन साथ ही, हम स्पष्ट करना चाहेंगे कि इस आलेख में रखे गये उनके सभी विचार-बिन्दुओं से हमारी सहमति नहीं है। मिसाल के तौर पर, आज भारत के पूँजीपति वर्ग के चरित्र पर उनके विचारों से हम इत्तेफाक नहीं रखते। हमारे विचार में अगर सीधे आर्थिक तथ्यों और राजनीतिक व्यवहार से नतीजा निकालें तो भारतीय पूँजीपति वर्ग का चरित्र दलाल नहीं नज़र आता। उसका चरित्र साम्राज्यवाद (ग़ौर करें, किसी एक साम्राज्यवादी गिरोह नहीं) के कनिष्ठ साझीदार का है। दलाल पूँजीपति वर्ग की मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र में जो भी परिभाषाएँ हैं, भारतीय पूँजीपति वर्ग का विवरण और चरित्र-चित्रण उनसे मेल नहीं खाता। यह विस्तृत विचार-विमर्श का मुद्दा है और आगे हम आवश्यकतानुरूप इस पर कोई बहस का स्तम्भ शुरू कर सकते हैं। कुछ अन्य भी गौण नुक्ते हैं, जिनसे हम अपनी सहमति नहीं देख पाते। फिर भी, इस आलेख में आज के दौर में कला और विशेषकर भारतीय कला की चारित्रिक विशेषताओं के चित्रण से हमारी मोटे तौर पर सहमति बनती है। यह आलेख तमाम पाठकों के लिए प्रबोधनकारी होगा, जैसे कि यह हमारे लिए भी है। एक जनपक्षधर कलाकार के सरोकार और रोष स्पष्ट रूप में देखे जा सकते हैं और सम्भवतः यही सबसे अहम है। असहमति के बिन्दुओं पर हम साथी भौमिक से आह्नान के पृष्ठों पर भी और रूबरू होकर भी, बातें निश्चित रूप से जारी रखेंगे।

सम्पादक

‘नयी शती में चित्रकला का भविष्य’ जैसे विषय का सीधा सम्बन्ध आगामी और अनागत कल से है – और इस पर कुछ हद तक भविष्यवाणी करने जैसा लग सकता है। वैसे, भविष्य से कलाकार कुछ कम सम्बद्ध होता है – वह अतीत से सीखे रास्तों पर वर्तमान में गतिमान होता है। समकालीन या आधुनिक चित्रकला का मूल ही शायद इसी सत्य पर आधारित है।

एक चित्रकार वस्तुतः एक सामाजिक इकाई होता है, जिस पर समाज के समस्त कार्य-व्यापारों का कमोबेश उतना ही असर पड़ता है। अपने आसपास और अतीत की तमाम घटनाओं से टकराकर वह तय करता है कि किन-किन स्थितियों को, सन्दर्भों को, समस्याओं और सपनों को वह अपने कला-कर्म में प्राथमिकता दे, और किसे वह त्यागे। लिहाज़ा, यह तो तय है कि चित्रकार अपने समाज और समय से कटा हुआ कोई बौद्धिक अस्तित्व नहीं होता है। चित्रकला की अपनी विधागत विशिष्टता के चलते चित्रकार के चित्रों में – उसके कला-कर्म में उसके समय और समाज का प्रतिबिम्बन कभी साफ, कभी धुँधला-सा लग सकता है, पर कलाकार अपने समाज के अन्दर से उपजी शक्तियों द्वारा ही अनिवार्य रूप से संचालित होता है।

‘चित्रकला का भविष्य’ के बारे में मैं किसी प्रकार की कोरी भविष्यवाणी करने के पक्ष में नहीं हूं। मैं मानता हूँ कि वर्तमान की गतिविधियों का प्रतिफलन ही भविष्य में होता है। जो कुछ आज अर्थहीन और बेईमानी है वह भविष्य में नयी अर्थहीनता और बेईमानियों को लिये मौजूद रहेगा। सार्थकता और अर्थहीनता के बीच का द्वन्द्व अतीत से लेकर, वर्तमान से गुज़रता हुआ भविष्य में भी गतिमान रहेगा – ऐसा मेरा मानना है। मेरे अपने सामाजिक, राजनीतिक और शिल्पगत सरोकार इसी द्वन्द्व पर आधारित हैं – इसीलिए मैं अपनी बात कहने के लिए अतीत और वर्तमान की प्रवृत्तियों, घटनाओं और उपलब्धियों का तटस्थ और वैज्ञानिक विश्लेषण करने की कोशिश करूँगा।

विश्व के कला इतिहास में विगत शती यानी बीसवीं शती सबसे महत्त्वपूर्ण रही है। हज़ारों वर्षों के दौरान कला में जो कुछ भी हुआ वह पिछले सौ वर्षों की गतिविधियों के सामने निष्प्रभ लग सकता है। वस्तुतः बीसवीं शती चित्रकला में आन्दोलनों, परिवर्तनों, नयी-नयी प्रवृत्तियों के उत्थानों और पतनों से ठसाठस भरी रही है। आज इक्कीसवीं शती में पहुँचकर, पिछली शती का विश्लेषण न केवल सम्भव है बल्कि ज़रूरी भी है। पिछली शती की कला का दायरा थोड़ा कम कर यदि पिछली शती की भारतीय कला पर अपना ध्यान केन्द्रित करें तो शायद यह विश्लेषण ज़्यादा सार्थक होगा।

जैसा मैं पहले ही कह चुका हूँ कि कलाकार अपने समाज और समय से कटा हुआ कोई विशिष्ट बौद्धिक अस्तित्व नहीं होता है और साथ ही कलाकार को काटकर कला पर अपने विचार प्रस्तुत करने को मैं अधूरा समझता हूँ, इसलिए मैं पिछली शती और वर्तमान के कलाकारों की चेतना और प्रवृत्तियों को उनके कला-कर्म के साथ-साथ जाँचना-परखना चाहूँगा।

इस कोशिश में, न चाहते हुए भी एक-आध चित्रकारों के नाम यदि मैं ले लेता हूँ, तो आप मुझे क्षमा करेंगे।

समाज में चित्रकारों की स्थिति जैसी भी रही हो, साहित्य में कलाकार या चित्रकार को एक अतिविशिष्ट व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करने का चलन शतियों पुराना है। सामरसेट मॉम का ‘मून एण्ड द सिक्स पेंस’; जगदीश चन्द्र माथुर का ‘कोणार्क’, ‘शारदीय’; अरविंग स्टोन का ‘एगोनी एण्ड एक्सटैसी’, ‘लस्ट फॉर लाइफ’; ला पियरे मूरे का ‘मूला रूश’ विश्व-भर में चित्रकारों के जीवन पर आधारित असंख्य साहित्यिक रचनाओं में महज़ कुछेक हैं। ऐसी तमाम कृतियाँ प्रायः चित्रकारों के जीवन और जीवन-शैली को लेकर समाज के अन्य लोगों की धारणाओं को अपनी अतिरंजनाओं से लगभग फेण्टेसी की हद तक पहुँचाने में कारगर रहीं।

यह सच है कि पिछली शती में यूरोप के कई महत्त्वपूर्ण चित्रकारों ने अपने समाज और उसकी शर्तों को नकारकर जीने में ही अपने जीवन और कला की सार्थकता की खोज की। समाज से विच्छिन्न, सामाजिक सरोकारों से कटे, आत्मकेन्द्रित ऐसे कलाकारों का विकास किया जो प्रायः उनकी कृतियों से ज़्यादा चौंका देने वाला और कभी-कभी उनकी कृतियों से ज़्यादा ‘आकर्षक’ था।

एक नाराज़ी, बेफिक्री, मुफलिसी और कला की गहराइयों में खोये हुए से लगने वाली कलाकार की इस छवि को बनाने और निखारने के लिए यूरोपीय चित्रकारों ने सचेत प्रयास किया था और निश्चय ही काफी हद तक कामयाब भी रहे थे।

आज़ादी से लेकर आज तक कुछ अपवादों को छोड़कर विदेश से आयातित यह ‘ट्र्रेण्ड’ भारतीय चित्रकारों पर काफी हावी रहा। विशिष्ट वेशभूषा, उत्कट जीवनशैली, चौंका देने वाली बयानबाजियाँ और आत्मकेन्द्रित अराजनीतिक, सामाजिक उपस्थिति – चित्रकारों की पहली पहचान-सी बन गयी।

यहाँ यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि कलाकारों ने यह ‘ट्रेण्ड’ कला के प्रति किसी आध्यात्मिक समर्पण के चलते नहीं अपनाया, बल्कि भारतीय कला के बाज़ारीकरण की प्रक्रिया में यह कलाकारों द्वारा एक यूएसपी की यानी यूनिक सेलिंग प्रपोजिशन की तलाश थी। समाज में, बाज़ार में अपनी कृतियों के साथ-साथ अपने व्यक्तित्व की भी एक विशिष्ट पहचान हो – यह बहुत हद तक बाज़ार में टिके रहने की ज़रूरी शर्त जैसे चित्रकारों से उम्मीद की गयी।

चित्रकला की इस हास्यास्पद-सी लगने वाली प्रवृत्ति ने चित्रकारों के बड़े से तबके को समाज के प्रति जवाबदेह होने से बचा लिया। समाज के तमाम उथल-पुथलों से बिना किसी प्रकार से प्रभावित हुए, साथ ही एक बुद्धिजीवी होने का ज़रूरी जामा पहनकर वे कला-कर्म में तल्लीन रहे। समाज की मूलधारा से उसके इस कटाव ने अन्ततः उनकी रचनाओं से उनके समाज को ही विच्छिन्न कर डाला।

आधुनिक भारतीय चित्रकारों में व्याप्त अपने समय और समाज के प्रति उदासीनता, ऐसा नहीं कि आज़ादी के बाद के चित्रकारों में ही देखी गयी बल्कि ये ‘ट्रेण्‍ड’ उन्हें अपने पूर्ववर्ती चित्रकारों से ही उत्तराधिकार में मिले। बीसवीं शती के भारतीय चित्रकारों में कई महान चित्रकारों ने अपने कला-कर्म से इस बात को पुष्ट करने की कोशिश की कि अपने समाज और समय से कटकर किया गया शिल्प-कर्म ही अन्ततः कालजयी होता है। और चूँकि ऐसी कालजयी कृतियों पर विश्व के कला बाज़ार में ज़्यादा कीमत मिली इसलिए समकालीन चित्रकारों ने कला के इस कण्टकविहीन, लोभ-लाभ से भीगे गलीचे पर नंगे पैरों चलना शुरू किया।

मैं यहाँ एक उदाहरण के रूप में विगत शती के महान भारतीय चित्रकार यामिनी राय के समय और उनके कला-कर्म का जिक्र करूँगा।

यामिनी बाबू का जन्म उन्नीसवीं शती के आठवें दशक में हुआ था। यामिनी बाबू के जीवनकाल को यदि हम ग़ौर से देखें तो हम पाते हैं कि यह वह समय था जब बंग-भंग आन्दोलन हुआ था, बंगाल दो महाअकालों से गुज़रा था, दोनों विश्वयुद्ध उनके जीवनकाल में ही हुए। इसी कालखण्ड में भारत ने अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ी और आज़ाद हुआ और यही काल तेलंगाना, तेभागा से नक्सलबाड़ी तक के आन्दोलन का प्रत्यक्षदर्शी रहा। हिटलर की तानाशाही से लेकर नागासाकी हिरोशिमा की घटनाएँ इसी दौरान ही घटित हुईं।

पर इन साठ वर्षों के लम्बे रचनात्मक जीवन के दौरान अपने समाज को, अपने इस महत्त्वपूर्ण समय को, इसकी भयावह विसंगतियों को या कि आम जीवन को यामिनी बाबू ने अपने चित्रों में कहीं भी दर्ज होने नहीं दिया। उन्होंने लोक-जीवन के नाम पर सन्थालों के नृत्य को तो देखा पर उनकी समस्याओं और संघर्षों को नज़रअन्दाज़ कर गये। उनके चित्रों में उनके आसपास का जीवन सिरे से ग़ैरहाजिर है। कृष्ण यदि हैं तो गोपियों, गायों और राधा के साथ उनके लीला प्रसंग हैं, महाभारत के सारथी कृष्ण नहीं।

यामिनी राय की कला में पुनरावृत्ति का एक विशिष्ट स्थान है। वे एक ही चित्र को बार-बार बनाते थे (क्योंकि हर बार उनका चित्र बिक जाता था या फिर वे क्रेताओं को निराश नहीं करना चाहते थे)। भारतीय आधुनिक चित्रकला में पुनरावृत्ति का यह अर्थहीन चलन यामिनी राय के बाद के कलाकारों ने बख़ूबी अपनाया जो आज भी सबसे महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति के रूप में आधुनिक भारतीय कला में विद्यमान है।

मैंने पहले ही कहा है कि कलाकार अपने अतीत से सीखे रास्तों पर वर्तमान में गतिमान होता है। और यदि वे रास्ते उन्हें आर्थिक लाभ और ख्याति मुहैया भी कराते हों तो उस रास्ते के एक ही स्थान पर रुके वह कदमताल भी करता रहता है। मैं समकालीन चित्रकारों को अपने पूर्वजों से उत्तराधिकार में मिली प्रवृत्तियों को थोड़ा और स्पष्ट करने के लिए एक और प्रसंग का उल्लेख करूँगा। और इसलिए करूँगा जिससे कि वर्तमान और भविष्य की भारतीय कला का बेहतर जायज़ा लिया जा सके।

यामिनी बाबू की विविध रूपा बिल्ली

कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन का भारतीय इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह अधिवेशन भले ही किसी राजनीतिक दल-विशेष का रहा हो – यह निःसन्देह एक गुलाम राष्ट्र को आज़ाद करने के संकल्पों से प्रेरित था।

शिल्पाचार्य नन्दलाल बोस को इस अधिवेशन में विशेष रूप से मण्डप-सज्जा की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। मण्डप को सुसज्जित करने के लिए उन्होंने एक चित्र- शृंखला की रचना की थी जो बाद में ‘हरिपुरा पोस्टर्स’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

हरिपुरा पोस्टर्स में देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों, फूल-लताओं आदि के तमाम मनभावने चित्र तो हैं पर आज़ादी के लिए संघर्षरत एक राष्ट्र का संकल्प, उस राष्ट्र की जनता और उनके सपनों का जिक्र ग़ैरहाजिर है।

मैं यहाँ क्षमा-याचना के साथ कहना चाहूँगा कि कृपया मेरे इन उदाहरणों से यह अर्थ न निकालें कि मैं यामिनी राय या नन्दलाल बोस के चित्रों के विरुद्ध अपने तर्क प्रस्तुत कर रहा हूँ। वास्तव में, चूँकि महान कलाकारों का कला-कर्म अपनी आगामी पीढ़ी के लिए महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान करता है और चूँकि विगत शती के कलाकारों का प्रभाव इस समय के कलाकारों में सुस्पष्ट देखा जा सकता है इसलिए मैंने इस समय के कला-कर्म को विश्लेषित करने के लिए ये दो उदाहरण प्रस्तुत किये।

मैं यह भी मानता हूँ कि भारतीय कला इतिहास में केवल दो ही उदाहरण नहीं हैं जो सिद्ध करते हों कि चित्रकार अपने समाज से कटा हुआ आत्मकेन्द्रित, उदासीन एक संन्यासीनुमा जीव होता है बल्कि इतिहास में अनगिनत तथ्य यह सिद्ध करते हैं कि ये उदाहरण केवल व्यतिक्रम को दर्शाते हैं, नियम को नहीं। भारतीय समकालीन चित्रकला में चित्तोप्रसाद, जैनुल आबेदिन, भाऊ समर्थ, सोमनाथ होर जैसे सैकड़ों नाम हैं जिनके कला-कर्म मेरी अवधारणा को पुष्ट करते हैं कि चित्रकार समाज से अलग-थलग कटा हुआ, अपने ही ख़यालों में लीन, कला के लिए ही जीने वाला एक बौद्धिक इकाई नहीं होता है, बल्कि वह किसी भी अन्य रचनाकार जैसा अपने कला माध्यम की सीमाओं और सामथ्यों को लिये अपने समय और समाज का प्रतिनिधित्व करता है।

विश्लेषण के दूसरे दौर में मैं आज़ादी के बाद की भारतीय चित्रकला की दशा और दिशा की बात करना चाहूँगा।

आज़ादी के तुरन्त बाद पं- जवाहरलाल नेहरू की योजनाओं के तहत बुद्धिजीवियों और कलाकारों के बड़े तबके को हमने सरकारी पहल से रेडियो स्टेशनों में, पत्र-पत्रिकाओं में, विश्वविद्यालयों में और नवनिर्मित कला अकादमियों में खप जाते देखा था। यह दौर चित्रकारों के लिए दयनीय दौर था क्योंकि ललित कला अकादमियों के पास न कोई योजना थी और न ही दृष्टि जिससे कलाकारों के लिए दो वक़्त की रोटी का इन्तज़ाम सुरक्षित हो पाता। ललित कला अकादमी, कला विद्यालयों के मास्टरों और कुछेक तत्कालीन व्यवस्था के निकट जीने वाले चित्रकारों का आदर्श चरागाह सिद्ध तो हुआ पर यह वही दौर था जब भारतीय चित्रकला की जनता से, समाज से कटने की शुरुआत हुई। यह वही दौर था, जब सैकड़ों नहीं हज़ारों कला विद्यालयों से शिक्षित चित्रकार जो कला केन्द्रों, अकादमियों और सरकारी अनुदानों से दूर रह गये थे – कूँची, रंग से नाता तोड़ दफ्तरों में किरानी की नौकरी पाने के लिए आवेदन पत्र भरने लगे।

1947 में भारतवर्ष की आज़ादी के अर्थ समाज के विभिन्न वर्गों ने अपने ढंग से निकाले थे। चित्रकारों के एक बड़े तबके ने यह माना कि सद्यः स्वाधीन राष्ट्र की यह जिम्मेदारी है कि वह उसे पृष्ठ-पोषकता प्रदान करे। वैसे बुद्धिजीवी वर्ग की यह ख़ास पहचान होती है कि वह आम जनता से कहीं बेहतर, व्यवस्था से नेगोशियेट करने में सक्षम होता है। और इस सौदेबाज़ी के ज़रिये अन्ततः वह अपने स्वार्थ की पूर्ति व्यवस्था के माध्यम से करवा ही लेता है। चूँकि बुद्धिजीवी वर्ग की क्षमताओं की पहचान किसी भी सरकार या व्यवस्था को ख़ूब होती है, इसलिए कुछ अपवादों को छोड़कर व्यवस्था इनसे कभी भी नहीं उलझती। विश्व इतिहास में बुद्धिजीवियों और व्यवस्था के शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व का चलन सदियों पुराना है।

आज़ादी के बाद कलाकारों ने एकजुट होकर सरकार की जनता के प्रति जिम्मेदारियों में कला की पृष्ठ-पोषकता को एक बेहद ज़रूरी कर्म के रूप में चिह्नित किया और आज भी कर रहे हैं। जनता की सांस्कृतिक मुक्ति के लिए समर्पित इस बुद्धिजीवी कलाकार वर्ग की पहल से देश में जगह-जगह रंगशालाएँ बनीं, जहाँ शायद लोगों को यातायात के लिए सड़कों की ज़रूरत ज़्यादा थी। जगह-जगह पर सांस्कृतिक केन्द्र खोले गये, जहाँ शायद स्कूल/कॉलेजों की ज़रूरत ज़्यादा थी। जगह-जगह पर कला अकादमियाँ बनायी गयीं, जहाँ शायद पेयजल की गम्भीर समस्या थी। ज़हरीली गैस से पीड़ित जनता से बेख़बर, अपने सांस्कृतिक सपनों को मूर्त करने के लिए भारत भवन जैसी संस्थाएँ कार्यरत रहीं। और इन सबके साथ-साथ सरकार से पुरस्कार, सम्मान, आवास, नौकरी आदि-आदि के लिए सौदेबाज़ी में, स्वाधीनता के बाद के कलाकारों और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा-सा वर्ग जुटा रहा।

आज़ादी के बाद के इसी दौर में भारतीय चित्रकार की ओर विदेशी दूतावासों की कृपादृष्टि भी पड़ी। यह बेहद दिलचस्प बात थी कि भारत से अपने कूटनीतिक सम्बन्ध बेहतर करने के लिए इन दूतावासों ने भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से चित्रकला में रुचि लेना शुरू किया। भारतीय चित्रकारों के चित्र मुँहमाँगे दामों पर ख़रीदकर विदेशी दूतावास के सांस्कृतिक ठेकेदारों ने भारत की राजधानी दिल्ली को चित्रकारों की आशा-आकांक्षाओं का स्वप्न दीप बना दिया। कलकत्ता, चेन्नई, मुम्बई, बंगलौर जहाँ-जहाँ इन दूतावासों के सांस्कृतिक दफ्तर सक्रिय हुए भारतीय कला का विकास हो न हो – भारतीय कलाकारों का उद्धार जारी रहा। यहाँ ग़ौरतलब यह भी है कि किसी देश-विदेश के साथ भारत के कूटनीतिक सम्बन्धों का पारा जैसे-जैसे बढ़ा या गिरा – उस देश में भारतीय चित्रकला की माँग में बढ़त या कमी दिखायी दी। यह वस्तुतः भारतीय चित्रकला के लिए ग्लोबलाइजेशन का शुरुआती दौर था और यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि भारतीय आधुनिक चित्रकला की श्रेष्ठ कृतियों के विदेशों के व्यक्तिगत, सरकारी या सार्वजनिक संग्रहालयों में चले जाने का भी यही दौर था।

इसी समय विश्व बाज़ार में राजा रवि वर्मा, यामिनी राय, चुगतई, हेमेन मजूमदार, रवीन्द्रनाथ टैगोर के चित्रों ने अपने बाद की पीढ़ी के चित्रकारों के चित्रों के लिए विदेश गमन का रास्ता प्रशस्त किया। भारतीय समकालीन चित्रकला के बाज़ारीकरण का दौर यहीं से शुरू होता है।

बातचीत के इस पहलू पर पहुँचकर शायद हम भारतीय चित्रकला के वर्तमान और भविष्य के गहरे रूप से जुड़ी आशंकाओं और सम्भावनाओं से रूबरू खड़े हैं। यहाँ हम भारतीय अर्थव्यवस्था को एक बृहत्तर विकास के उन्मुख पाते हैं और एक अद्भुत संयोग जैसा लगता है कि भारतीय चित्रकला भी इसी समय एक नये बाज़ार में प्रवेश करने के लिए सुसज्जित हो रही है। भारतीय पूँजीवाद के विकास के इस महत्त्वपूर्ण दौर में हमें दलाल पूँजीपति वर्ग की चौतरफा उपस्थिति दिखायी देने लगती है। इस वर्ग का सीधा सम्बन्ध किसी औद्योगिक उत्पादन से नहीं, वरन आयात-निर्यात, लेन-देन और सौदेबाज़ी से ज़्यादा है। ये परम्परागत व्यावसायिक घरानों से सम्बद्ध नहीं हैं, पर कम समय में विशाल धन कमाकर एकाएक समाज के सांस्कृतिक केन्द्र में हस्तक्षेप के लिए आतुर दिखायी देते हैं। इसी वर्ग ने ही वस्तुतः भारत में चित्रकला के बाज़ार को एक ठोस आधार प्रदान किया है।

वैसे आज़ादी के बाद से ही लगभग सभी बड़े व्यावसायिक घरानों ने कला-संस्कृति और विशेष रूप से चित्रकला की पृष्ठ-पोषकता को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में लिया। इनके द्वारा स्थापित अकादमियों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, गैलरियों, होटलों और अन्य माध्यमों से इन्होंने बड़े पैमाने में चित्र ख़रीदकर चित्रकला और चित्रकारों की पृष्ठ-पोषकता की।

मैंने यहाँ जिस दलाल पूँजीपति वर्ग का अभी-अभी जिक्र किया, उनमें स्वाभाविक रूप से संस्कृति और शिक्षा का अभाव था। समाज में कलामर्मज्ञ या कला के पृष्ठ-पोषक के रूप में अपने को स्थापित करने के लिए सबसे सहज उपाय उन्हें चित्रकला में ही दिखा। साथ ही उन्हें शेयरों के साथ-साथ चित्रों पर धन निवेश करना ज़्यादा सुरक्षित कदम लगा जो एक ओर उन्हें कलापारखी होने का आत्मसुख देखा था और दूसरी ओर चित्रों को ख़रीद-बेचकर ख़ासा धन कमाया जा सकता था। निःसन्देह आज के कला बाज़ार के केन्द्र में इनकी उपस्थिति कला बाज़ार की गर्मी को बनाये रखने में सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है।

पहले परम्परागत व्यावसायिक घराने, फिर दलाल पूँजीपतियों का नव धनाढय वर्ग और फिर विदेशी बहुराष्ट्रीय बैंकों जैसे सिटी बैंक, डायश बैंक, एबीएन एमरो बैंक, अमेरिकन एक्सप्रेस बैंक आदि का इस बाज़ार में प्रवेश, और अन्त में प्रचार-प्रसार की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी के साथ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की प्रकाशन संस्थाओं के आगमन से भारत में कला बाज़ार ने अपने विकास का एक चक्र पूरा कर लिया है।

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि इन व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, नव धनाढय व्यापारियों, समाचार-पत्र प्रकाशन संस्थाओं, विदेशी बैंकों और समाज के आर्थिक रूप से सम्पन्न व्यक्तियों को क्यों ऐसा लगा कि समस्त कलाओं में केवल चित्रकला को ही पृष्ठ-पोषकता की ज़रूरत है। यदि यह वर्ग अपने को संस्कृति के विकास के लिए समर्पित-प्रमाणित करना चाह रहा हो तो कवि सम्मेलनों, रंग-प्रस्तुतियों, पत्रिका या साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन में समान रुचि क्यों नहीं ले रहा है? क्यों अन्य कलाओं को ये आर्थिक पृष्ठ-पोषकता नहीं दे रहे हैं?

ऐसा वे नहीं कर रहे हैं क्योंकि उनके व्यावसायिक समीकरण उन्हें इसकी इजाज़त नहीं देते हैं। चित्रकला के अतिरिक्त किसी अन्य कला में ‘री-सेल वैल्यू’ जैसा ज़रूरी वाणिज्यिक तत्त्व नहीं है। इसलिए सतही तौर पर पृष्ठ-पोषकता लगने वाली चित्रों की ख़रीद वास्तव में धन निवेश और आर्थिक लाभ के शुद्ध समीकरण हैं और इसीलिए कविता, कहानी, रंगकर्म, संगीत उनके लिए प्रासंगिक नहीं हैं।

वैसे मैंने कई बार एक ही बात को दोहराया है कि चित्रकार अपने समाज और समय से कटा हुआ नहीं रह सकता, पर मेरी यह अवधारणा निरन्तर व्यापक रूप से एक कटु सत्य से टकरा रही है – वह यह कि चित्रकारों के एक विशाल और महत्त्वपूर्ण वर्ग को आज वास्तव में समाज की ज़रूरत नहीं है। अव्यावसायिक चित्रकला वीथिकाओं में आज बड़े चित्रकारों की प्रदर्शनियाँ कम से कमतर होती जा रही हैं। कलाकारों के कला-कर्म उस नवधनाढड्ढ वर्ग की रुचि द्वारा संचालित हैं जिसकी चर्चा मैंने अभी-अभी की थी। पिछले कई वर्षों से प्रायोजित कला शिविरों का चलन ख़ूब बढ़ा है, जहाँ चित्रकार चित्रकला को प्रदर्शनकारी कला जैसा मानकर अपने क्रेताओं के सामने एक भीड़ जैसा बैठा कैनवास पर रंग चढ़ाता हुआ दिखायी देता है।

अब प्रायोजक, चित्रकारों को विषय भी देने लग गये हैं। पिछले दिनों जहाँ एक ओर पशु-पक्षी प्रेमा, शाकाहार प्रचारक किसी राजपुत्र की विधवा पत्नी के इशारे पर देश के सभी बड़े कलाकारों ने अचानक गाय, भैंस, कुत्ते, बिल्लियों से अपने कैनवासों को भर डाला था। वहीं किसी धन कुबरे की अभिनेत्री पुत्रवधू के आग्रह से कलाकारों ने राष्ट्रीय एकता पर चित्र रचे थे। आज़ादी के 50 वर्ष में यही चित्रकारों का दल ‘आज़ादी के 50 वर्ष’ विषय पर 14 अगस्त की शाम से 15 अगस्त की सुबह तक चित्र बनाता रहा था।

यह सब बचकानी-सी लगने वाली कला गतिविधियों के पृष्ठ-पोषक और आयोजकों के लिए ‘एक्साइटिंग’, ‘इनोवेटिव’ भले ही लगते हों, वास्तव में ये उस वर्ग की रुचियों का ही प्रतिबिम्बन हैं।

वाणिज्य और व्यापार से जुड़े इस वर्ग के शुद्ध धार्मिक विश्वास के चलते (गणेश और व्यापार का पारस्परिक सम्बन्ध) समकालीन भारतीय चित्रकला में गणेश को लगभग एक ‘ओवर प्रोड्यूस्ड कमोडिटी’ यानी अति उत्पादित उत्पाद द्रव्य के रूप में देखा जा सकता है। इस ‘मेड-टु-ऑर्डर’ कला-कर्म को किसी भी अन्य समकालीन कला (कविता, कहानी, रंगकर्म, फिल्म आदि) के समानान्तर नहीं रखा जा सकता। यहाँ यह भी ग़ौरतलब है कि पिछले पचास वर्षों में भारतीय चित्रकला में कृष्ण को गणेश ने व्यापक रूप से विस्थापित किया है। कला-बाज़ार में गणेश की खपत निरन्तर बढ़ रही है।

आज के महत्त्वपूर्ण करार दिये गये चित्रकारों की समय और समाज के प्रति जागरूकता का आलम यह है कि इधर के दस-पन्द्रह वर्ष में अपने पृष्ठ-पोषक वर्ग की रुचियों को ध्यान में रखते हुए चित्रों में कलाकारों द्वारा अश्लीलता और यौन विकृतियों का एक नया दौर शुरू किया गया है।

भारतीय चित्रकला की इस नयी प्रवृति को दिखाने के लिए यदि केवल दस चित्रों के स्लाइड का प्रोजेक्शन किया जाये तो लोग लज्जा और घृणा से भर जायेंगे।

यौन विकृति और अश्लीलता के इस बाज़ार में यदि सरस्वती के कपड़े लक्ष्मी के वरद् पुत्रों द्वारा उतार भी लिये जायें तो इसमें क्या आश्चर्य है।

ऐसे ही बहुत ज़्यादा उत्साहवर्धक न लगने वाले इस दौर से गुज़रते हुए आज हम नयी शती में प्रवेश कर चुके हैं। मैं मानता हूँ कि भारतीय समकालीन कला के जिस स्वरूप की हमने चर्चा की वह आगामी कई दशकों तक बिना किसी ख़ास परिवर्तन के प्रवहमान रहेगा।

साथ ही मैं यह भी मानता हूँ कि कला के इस ध्रुवीकरण से एक सुस्पष्ट अन्तर्विरोध सामने आयेगा और जिसके चलते जनता के बीच से ही जनता के लिए चित्रकला की नयी प्रवृत्तियों और धाराओं का जन्म भी होगा।

मेरा मानना है कि निकट भविष्य में ही लोककला और समकालीन चित्रकला के समानान्तर चित्रकला की एक तीसरी धारा विकसित होगी। यह कला, अपने स्वरूप में पोस्टर कला के नज़दीक होगी और समकालीन कविता, कहानी, रंगकर्म की जनोन्मुख धारा की सहचर होगी।

यह कला समाज के बड़े से वर्ग से संवाद करने में समर्थ होगी और जनता के लिए भी यह ज़्यादा बोधगम्य होगी।

और अन्त में, इस कला से जुड़ा चित्रकार न अपने समाज और समय से कटा होगा और न ही अपने को समाज में विशिष्ट उपस्थिति के रूप में चिह्नित करने की अर्थहीन कोशिश ही करेगा।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2011

 

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