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व्लादीमिर मयाकोव्स्की की 81वीं पुण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर…
कविता में लय…
लय की मूलभूत गूँज कहाँ से आती है, मैं यह नहीं जानता। मेरे लिये यह मेरे भीतर किसी आवाज़, शोर और दोलन की पुनरावृत्ति है अथवा सामान्यता किसी भी परिघटना की, जिसे मैं एक ध्वनि के रूप में अलग करता हूँ, पुनरावृत्ति है। लय सागर के निरन्तर दोहराये जाने वाले शोर से भी उत्पन्न हो सकती है और उस चाकरानी के कारण भी जो रोज़ प्रातःकाल दरवाज़े को ज़ोर से खोलती तथा बन्द करती है और इससे एक ऐसा ध्वनिचित्र बनता है जो मेरी चेतना में बार-बार घूमता रहता है; या धरती के परिक्रमण से भी जो मेरी चेतना में स्कूली शिक्षा सहायक साधनों की दुकान पर पृथ्वी के घूमते हुए नमूने की उपहासजनक रूप से अदलती-बदलती रहती है, और मेरे दिमाग़ में अनिवार्य रूप से सीटी बजाती हवा से सम्बधित है।
गति को क्रमबद्ध करने, सुनाई देनेवाली ध्वनियों को क्रमबद्ध करने का प्रयास तथा उनके लक्षणों और विशिष्टताओं का पता लगाना – लयपूर्ण प्रारम्भिक खण्डों की तैयारी – कविता रचने का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और स्थायी कार्य है। मैं नहीं जानता कि लय का अस्तित्व मेरे बाहर है या केवल भीतर है – सम्भवतः भीतर ही अधिक है। परन्तु इसको जागृत करने के लिए किसी झटके की आवश्यकता होती है, ठीक उसकी तरह जैसे किसी पियानो की भीतर किसी ऊँची आवाज़ की प्रतिध्वनि गूँज उठती है, ठीक जैसे कोई पुल चींटियों की सेना की लयबद्ध पदचाप से हिलता हुआ और गिरनेवाला प्रतीत होता है।
लय कविता की मूल शक्ति तथा मूल ऊर्जा है। इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती, उसकी चुम्बक या विद्युत के प्रभाव की तरह केवल चर्चा ही की जा सकती है। चुम्बकत्व या विद्युत ऊर्जा के रूप है। कई कविताओं, यहाँ तक कि कवि के पूरे कृतित्व में एक ही लय हो सकती है, लेकिन इससे उसका कृतित्व एक जैसा नहीं हो जाता, क्योंकि लय निरूपण में इतनी जटिल और कठिन हो सकती है कि कवि अपनी अनेक मुख्य कृतियों में भी इसका पूरा उपयोग करने में असमर्थ रह सकता है।
सिमोन दि बोउवा की पुण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर
“आदमी द्वारा बनाये गये सारे बुत, चाहे वे कितने भी डरावने क्यों न हों, वास्तव में उसके अधीन हैं, और यही कारण है कि यह हमेशा उसके शक्ति के भीतर होगा कि वह उन्हें नष्ट कर डाले ।“
सिमोन दि बोउवा (प्रसिद्ध फ्रांसीसी नारीवादी लेखिका)
पॉल रॉबसन के 114वें जन्मदिवस (9 अप्रैल) के अवसर पर
“प्रत्येक कलाकार, प्रत्येक वैज्ञानिक, प्रत्येक लेखक को अब यह तय करना होगा कि वह कहाँ खड़ा है। संघर्ष से ऊपर, ओलम्पियन ऊँचाइयों पर खड़ा होने की कोई जगह नहीं होती। कोई तटस्थ प्रेक्षक नहीं होता…युद्ध का मोर्चा हर जगह है। सुरक्षित आश्रय के रूप में कोई पृष्ठ भाग नहीं है…कलाकार को पक्ष चुनना ही होगा। स्वतंत्रता के लिए संघर्ष, या फिर गुलामी-उसे किसी एक को चुनना ही होगा। मैंने अपना चुनाव कर लिया है। मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है।“
पॉल रॉबसन (प्रसिद्ध क्रान्तिकारी अमेरिकी अश्वेत गायक और राजनीतिक कार्यकर्ता)
मार्क ट्वेन की पुण्यतिथि (21 अप्रैल) के अवसर पर
“साहस का अर्थ भय का प्रतिरोध है, भय पर विजय की प्राप्ति है, न कि भय की अनुपस्थिति।“
मार्क ट्वेन (महान अमेरिकी लेखक)
भगतसिंह ने कहा…
“क्रान्ति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है। इस शताब्दी में इसका सिर्फ एक ही अर्थ हो सकता है-जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना। वास्तव में यही है ‘क्रान्ति’ बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूँजीवादी सड़ाँध को ही आगे बढ़ाते हैं। किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं। भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते। भारतीय श्रमिकों को-भारत में साम्राजयवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसकी जड़ें शोषण पर आधारित हैं-आगे आना है। हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते। बुराइयाँ, एक स्वार्थी समूह की तरह, एक-दूसरे का स्थान लेने को तैयार हैं।
साम्राज्यवादियों को गद्दी से उतारने के लिए भारत का एकमात्र हथियार श्रमिक क्रान्ति है। कोई और चीज़ इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकती। सभी विचारों वाले राष्ट्रवादी एक उद्देश्य पर सहमत हैं कि साम्राज्यवादियों से आज़ादी हासिल हो। पर उन्हें यह समझने की भी ज़रूरत है कि उनके आन्दोलन की चालक शक्ति विद्रोही जनता है और उसकी जुझारू कार्रवाइयों से ही सफलता हासिल होगी।…
….हमें याद रखना चाहिए कि श्रमिक क्रान्ति के अतिरिक्त न किसी और क्रान्ति की इच्छा रखनी चाहिए और न ही वह सफल हो सकती है।“
(क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा)
अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस (8 मार्च) के अवसर पर
“कोई भी जो इतिहास के बारे में कुछ भी जानता है, यह बात अच्छी तरह समझता है कि महान सामाजिक परिवर्तन स्त्रियों के उभार के बिना असम्भव हैं। सामाजिक प्रगति को स्त्रियों की सामाजिक स्थिति से प्रत्यक्ष रूप से मापा जा सकता है…“
कार्ल मार्क्स
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2012
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