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दो कवितांश – गजानन माधव मुक्तिबोध

ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात–से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दु:खों के दागों को तमगों–सा पहना
अपने ही ख़्यालों में दिन–रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अरुण कुमार की कविताएँ

ठहर जाऊँ ये सोचकर डर लगता है
जो ठहरे हैं उन्हें देखकर डर लगता है
सफ़र में जो भी है कठिन है
बिन सफ़र सब हादसा लगता है

कुछ भी नहीं ‘मेरा’ ये सच है
कोई नहीं उनका ये बड़ा सच लगता है

जीवन-लक्ष्य / कार्ल मार्क्‍स

हम ऊँघते, कलम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे।
हम – आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और
अभिमान में जियेंगे।
असली इंसान की तरह जियेंगे।

कविता – अगर तुम युवा हो / शशिप्रकाश

बेशक थकान और उदासी भरे दिन
आयेंगे अपनी पूरी ताक़त के साथ
तुम पर हल्ला बोलने और
थोड़ा जी लेने की चाहत भी
थोड़ा और, थोड़ा और जी लेने के लिए लुभायेगी,
लेकिन तब ज़रूर याद करना कि किस तरह
प्यार और संगीत को जलाते रहे
हथियारबन्द हत्यारों के गिरोह
और किस तरह भुखमरी और युद्धों और
पागलपन और आत्महत्याओं के बीच
नये-नये सिद्धान्त जनमते रहे
विवेक को दफ़नाते हुए
नयी-नयी सनक भरी विलासिताओं के साथ।

होसे मारिया सिसों की पाँच कविताएँ

दफ़्न कर देना चाहता है दुश्मन हमें
जेलख़ाने की अँधेरी गहराइयों में
लेकिन धरती के अँधेरे गर्भ से ही
दमकता सोना खोद निकाला जाता है
गोता मारकर बाहर लाया जाता है
झिलमिलाता मोती
सागर की अतल गहराइयों से।
हम झेलते हैं यंत्रणा और अविचल रहते हैं
और निकालते हैं सोना और मोती
चरित्र की गहराइयों से
ढला है जो लम्बे संघर्ष के दौरान।

पाठक मंच

राजस्थान विश्वविद्यालय (जयपुर) के बाहर दो युवा साथियों (भूलवश नाम याद नहीं) के आत्मीय वार्तालाप द्वारा (ताः 20/12) आह्वान से परिचित हुआ। दोनों साथियों को धन्यवाद कि उन्होंने मेरे वैचारिक स्तर को बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण पत्रिका से परिचित कराया।

रोना स्त्रियोचित है?

यह एक आम धारणा है कि रोना स्त्रियों का गुण है, मर्द नहीं रोते। वह कवि-कलाकार हो तो दीगर बात है। कवि-कलाकारों में थोड़ा स्त्रैणता तो होती ही है। यह पुरुष प्रधान सामाजिक ढांचे में व्याप्त संवेदनहीनता और निर्ममता की मानवद्रोही संस्कृति की ही एक अभिव्यक्ति है। शासक को रोना नहीं चाहिए। रोने से उसकी कमजोरी सामने आ जायेगी। इससे उसकी सत्ता कमजोर होगी। पुरुष रोयेगा तो औरत उससे डरना बंद कर देगी। वह रोयेगा तो औरत उसके हृदय की कोमलता, भावप्रवणता या कमजोरी को ताड़ लेगी। तब भला वह उससे डरेगी कैसे? उसकी सत्ता स्वीकार कैसे करेगी? वस्तुत: यह पूरी धारणा स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के ‘शासक-शासित फ्रेम’ की बुनियाद पर खड़ी है।

कविता : हम / स्टीफेन स्पेण्डर

सुनो युवको, सुनो युवा साथियो
बहुत देर हो चुकी है कि उन्हीं घरों में ठहरा जाये,
जिन्हें तुम्हारे पिताओं ने बनाया था कि जहां तुम
खूब नाम कमा सको, देर हो गयी बहुत