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स्वयंसेविता, नोबल पुरस्कार की राजनीति और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर एक विरोध-पक्ष संगठित करने की मुहिम

नवउदारवादी नीतियों के अमल ने आज पिछड़े ग़रीब देशों में जो अभाव, दरिद्रता और दुखदर्द पैदा किया है उसने साम्राज्यवाद को अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव करने की ज़मीन दी। उसने अनुदान की मदद से स्वयंसेवी संस्थाओं का जाल फैलाया और उसके ज़रिये सुधारों के माध्यम से व्यवस्था के सताये हुए लोगों में स्वीकृति निर्मित करने का काम किया। साम्राज्यवादियों के इस ख़तरनाक कुचक्र को समझे बग़ैर हम बचपन बचाओ जैसी ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की भूमिका को नहीं समझ सकते। यानी जनता के प्रति सरकार की ज़िम्मेदारी से लोगों का ध्यान हटाना और जनान्दोलनों के बरक्स एक प्रतिसन्तुलकारी शक्ति का निर्माण करना। ज़ाहिर है, पूँजीवाद की सुरक्षापंक्ति के रूप में संसदीय वामपन्थियों के कमजोर पड़ने के चलते यह भूमिका अब इन स्वयंसेवी संस्थाओं ने अत्यन्त प्रभावी ढंग से अख़्ति‍यार कर ली है।

साम्राज्यवाद की सेवा का मेवा

पिछले कुछ समय में जिन लोगों को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया है, उसने तो नोबेल की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है। अब बराक ओबामा, अल-गोर, हेनरी किसिंगर जैसे साम्राज्यवादी हत्यारों को क्या सोचकर नोबेल का शान्ति पुरस्कार दिया गया है, इस पर अलग से अनुसन्धान की आवश्यकता पड़ेगी! कुल मिलाकर, इस बार लियू ज़ियाओबो को जो नोबेल शान्ति पुरस्कार मिला है और अतीत में जिन शान्तिदूतों को यह पुरस्कार दिया जाता रहा है, वह नोबेल पुरस्कार के पीछे काम करने वाली पूरी राजनीति का चेहरा साफ कर देता है।