Tag Archives: मीडिया

जस्टिस काटजू का विधवा-विलाप और भारतीय मीडिया की असलियत

मुनाफ़ाखोर मीडिया से यह अपेक्षा करना कि वह जनता का पक्ष लेगा और वैज्ञानिक तथा प्रगतिशील दृष्टिकोण बनाने में सहायक होगा, आकाश-कुसुम की अभिलाषा के समान लगता है। यह तो तय है कि जैसे-जैसे मीडिया पर बड़ी पूँजी का शिकंजा कसता जायेगा, वैसे-वैसे मीडिया का चरित्र ज़्यादा से ज़्यादा जनविरोधी होता जायेगा और आम जनता के जीवन की वास्तविक परिस्थितियों और मीडिया में उनकी प्रस्तुति के बीच की दूरी बढ़ती ही जायेगी। जस्टिस काटजू की यह बात तो सही है कि भारत में पत्र-पत्रिकाओं का एक गौरवशाली अतीत रहा है और विशेषकर स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान उनकी बेहद सकारात्मक और प्रगतिशील भूमिका रही है। लेकिन वह यह बात भूल जाते हैं कि ऐसी सभी पत्र-पत्रिकाएँ जनता के संघर्षों की तपन में उपजी और पनपी थीं और उनका उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना हरगिज़ नहीं था। आज के दौर में पूँजीवादी मीडिया से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती की वह जनता का पक्ष ले।

“राष्ट्रवादियों” का राष्ट्र प्रेम

उपरोक्त घटना इस ओर भी इंगित करती है कि मीडिया का जनसरोकारों से अलगाव आज दिन के उजाले की तरह एकदम साफ हो चुका है। यदि वाकई मीडिया में जनपक्षधरता का पहलू होता तो यह हो ही नहीं सकता था कि जनता साथ न खड़ी होती। सलमान, ऐश्वर्या तो खड़े होने से रहे! मीडिया व फासिज्म का प्रश्न आज तमाम प्रगतिशील जनपक्षधर क्रान्तिकारी ताकतों के एजेण्डे पर होना लाजिमी है। जनसंसाधनों के दम पर खड़े किये गये मीडिया से ही यह अपेक्षा की जा सकती है कि वे बहुसंख्यक जनता की भावनाओं, आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करते हुए जनता को सचेत और जागरूक करने का काम करेंगे, न कि कारपोरेट घरानों व बाज़ार की शक्तियों से संचालित मीडिया से।

पैसा दो, खबर लो : चौथे खम्भे की ब्रेकिंग न्यूज

इस बार का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव काफी चर्चा में रहा है। यहाँ पैसा दो–खबर लो का बोलाबाला रहा। प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ‘चुनावी रिपोर्टिंग’ के रूप में ग्राहक उम्मीदवारों के सामने बाकायदा ‘ऑफर’ प्रस्तुत किया। वहीं उम्मीदवारों ने भी अपनी छवि को सुधारने हेतु क्षमतानुसार धनवर्षा करने में कतई कोताही नहीं की। धनवर्षा पहले भी होती रही है। मीडिया भी जनराय बनाने में सहयोगी भूमिका निभाती रही है। लेकिन ये सारा कारोबार इतना खुल्लमखुल्ला नहीं होता था। पहले दबे–दबे रूप में यह बात सामने आती थी कि अखबार वाले पैसे लेकर खबर छापते हैं। न मिलने पर छुपाते हैं। हूबहू ऐसा ही नहीं होता लेकिन प्रधान बात तो यही है कि जिसका पैसा उसका प्रचार। लेकिन इस बार तो ‘खबर’ लगाने की बोलियाँ लगीं। बिल्कुल मण्डी में खड़े होकर ‘खबर’ नामक माल बेचते मानो कह रहे हों पैसा दो–खबर लो, कई लाख दो–कई पेज लो, करोड़ दो–अखबार लो आदि आदि।