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यूक्रेन विवाद के निहितार्थ

साम्राज्यवादी ताक़तें युद्धों को अपने हिसाब से चाहे जितना विनियमित व अनुकूलित करने की कोशिश करें, साम्राज्यवादी युद्ध के अपने तर्क होते हैं, ये साम्राज्यवादी हुक़ूमतों की चाहतों से नहीं बल्कि विश्व साम्राज्यवादी तन्त्र के अपने अन्तर्निहित तर्क से पैदा होते हैं। विश्वयुद्ध की सम्भावना पूरी तरह निर्मूल नहीं हो सकती, लेकिन फिर भी अगर मौटे तौर पर बात करें तो पहले की तुलना में कम प्रतीत होती हैं। जब तक साम्राज्यवाद का अस्तित्व है, तब तक मानवता को युद्धों से निजात मिलना मुश्किल है। युद्ध होता ही रहेगा चाहे वह ‘हॉटवॉर’ के रूप में हो या ‘कोल्डवॉर’ के रूप में, गृहयुद्ध के रूप में, क्षेत्रीय युद्ध या फिर विश्वयुद्ध के रूप में क्योंकि साम्राज्यवाद का मतलब ही है युद्ध।

अमेरिका की बन्दूक-संस्कृति आदमखोर पूँजीवादी संस्कृति की ही ज़हरीली उपज है

अमेरिकी समाज की हिंसक संस्कृति के इस संक्षिप्त इतिहास से यह बात स्पष्ट है कि समस्या कहीं ज़्यादा गहरी और ढाँचागत है और उसके समाधान के रूप में जो क़वायदें की जा रही हैं वह मूल समस्या के आस-पास भी नहीं फटकतीं। जो लोग बन्दूक कानूनों में सख़्ती लाने की बात करते हैं वे इस जटिल और गम्भीर समस्या का सतही समाधान ही प्रस्तुत करते हैं और निहायत ही बचकाने ढंग से ऐसी घटनाओं के लिए बन्दूक के उपकरण को जिम्मेदार मानते हैं। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है जब बन्दूक कानूनों में सख़्ती लाने की कवायदें की जा रही हैं। पहले भी इस किस्म के नियन्त्रण लाने की बातें होती रही हैं। कुछ कानूनी बदलाव भी होते रहे हैं, परन्तु इन नियन्त्रणों का कुल परिणाम यह होता है कि अश्वेतों और अल्पसंख्यकों का निरस्त्रीकरण होता है जबकि कुलीन श्वेत अमेरिकी धड़ल्ले से बन्दूक लेकर घूमते हैं और उनमें से ही कुछ लोग सैण्डी हुक जैसे नरसंहार अंजाम देते हैं।

अमेरिकी ”जनतन्त्र” की एक और भयावह तस्वीर!

जाहिरा तौर पर अमेरिकी जेलों में कैदियों की बेतहाशा बढ़ती आबादी, विभिन्न किस्म के सामाजिक अपराधों में हो रही बढ़ोत्तरी, अमेरिकी न्याय व्यवस्था के अन्याय और उग्र होते नस्लवाद की परिघटना कोई अबूझ सामाजिक-मनोवज्ञैानिक पहेली नहीं है। हर घटना-परिघटना की तरह इसके भी सुनिश्चित कारण हैं क्योंकि अपराधों का भी एक राजनीतिक अर्थशास्त्र होता है। बढ़ते अपराधों का कारण आज अमेरिकी समाज के बुनियादी अन्तरविरोध में तलाशा जा सकता है। यह अन्तरविरोध है पूँजी की शक्तियों द्वारा श्रम की ताक़तों का शोषण और उत्पीड़न। जब तक कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन दमित-शोषित आबादी को कोई विकल्प मुहैया नहीं कराता, तब तक इस आबादी का एक हिस्सा अपराध के रास्ते को पकड़ता है। शुरुआत विद्रोही भावना से होती है, लेकिन अन्त अमानवीकरण में होता है। विश्वव्यापी मन्दी ने इस अन्तरविरोध को और भी तीख़ा बना दिया है।

वियतनाम युद्ध और ओबामा के झूठ

वियतनाम युद्ध अमेरिकी साम्राज्यवादियों की सबसे बुरी यादों में से एक है। यह पूरे अमेरिकी जनमानस के लिए एक सदमा था जिसमें पहली बार साम्राज्यवादी अमेरिका को स्पष्ट तौर पर समर्पण सन्धि पर हस्ताक्षर करना पड़ा और दुम दबाकर भागना पड़ा। इसलिए, अगर अमेरिकी साम्राज्यवादी हमेशा से वियतनाम युद्ध की कड़वी सच्चाइयों को अपने झूठों से ढँकने और उस राष्ट्रीय अमेरिकी शर्म पर पर्दा डालने की कोशिश करते रहे हैं तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है। इन प्रयासों को अंजाम देने वाले राष्ट्रपतियों में मई महीने में अमेरिका “प्रगतिशील” अश्वेत राष्ट्रपति ओबामा का नाम भी शुमार हो गया।

यूनान के चुनाव और वैश्विक संकट

लाख प्रयासों के बावजूद पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकट से मुक्त नहीं हो पा रही है। इस संकट का बोझ निश्चित रूप से हर सूरत में जनता के ऊपर ही डाला जाता है। इसके कारण इस संकट के कुछ राजनीतिक और सामाजिक परिणाम भी सामने आने ही हैं। ऐसे में, दुनिया भर की सरकारें और ख़ास तौर पर विकासशील देशों की सरकारें अपने काले कानूनों के संकलन को अधिक से अधिक समृद्ध बनाने में लगी हुई हैं; अपने सशस्त्र बलों को अधिक से अधिक चाक-चौबन्द कर रही हैं; हर प्रकार की नागरिक, राजनीतिक और बौद्धिक स्वतन्त्रताओं को छीन रही हैं; राजसत्ता को अधिक से अधिक दमनकारी बनाने में लगी हुई हैं।

“विश्व शान्ति” के वाहक हथियारों के सौदागर

आम तौर पर यह माना जाता है कि युद्ध राजनीतिक कारणों से होते हैं तथा अधिकांशतः आत्मरक्षा/आत्मसम्मान हेतु लड़े जाते हैं। बुज़ुर्आ संचार माध्यमों के द्वारा व्यापक जनसमुदाय में इस धारणा की स्वीकृति हेतु विभिन्न कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता है। युद्धाभ्यास, युद्धसामग्री की ख़रीद-फ़रोख़्त हथियारों के प्रेक्षण आदि जैसी सैन्य क्रियाओं को राष्ट्रीय अस्मिता के साथ जोड़ते हुए शोषित-उत्पीड़ित जनता को गौरवान्वित करने हेतु प्रोत्साहित करने का कार्य पूँजीवादी भाड़े के भोंपू निरन्तर करते रहते हैं। परन्तु यह तथ्य स्पष्ट है कि पूँजीवाद की उत्तरजीविता को बरकरार रखने तथा अकूत मुनाफ़े की हवस ने दो महायुद्धों व 50 के दशक के बाद विश्व के बड़े भूभाग (लातिन अमेरिका, एशिया, अफ्रीका) पर चलने वाले क्रमिक युद्धों को जन्म दिया। द्वितीय विश्वयोद्धोत्तर काल में लड़े गये अधिकांश युद्ध साम्राज्यवादी आर्थिक हितों के अनुकूल ही रहे हैं। साम्राज्यवादी देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अकूत सम्पदा की लूट के बाद यदि किसी को सर्वाधिक लाभ हुआ तो वे थीं हथियार निर्माता कम्पनियाँ! युद्ध सामग्री के वैश्विक व्यापार की विशेषता निरन्तर लाभ की मौजूदगी है। हथियारों का यह व्यवसाय सर्वाधिक लाभकारी है।

बन्द गली की ओर बढ़ता विश्व पूँजीवाद

विकसित देशों में फैला आर्थिक संकट अब विकासशील देशों को भी धीरे-धीरे अपनी चपेट में ले रहा है। चीन की न्यूज़ एजेंसी शिनहुआ के अनुसार विकसित देशों में बेरोज़गारों की संख्या 80 फीसदी बढ़ी है, जबकि विकासशील देशों में यह संख्या दो-तिहाई बढ़ी है। भारत में भी स्थिति गम्भीर हो रही है। गैलप सर्वेक्षण के अनुसार देश में 73 फीसदी आबादी भ्रष्टाचार से पीड़ित है। भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर मचने वाला शोर अब सन्नाटे में तब्दील हो रहा है। गैलप सर्वेक्षण में ही 31 प्रतिशत भारतीयों ने अपने जीवन को ‘तकलीफ़देह’ बताया और करीब 56 फीसदी लोगों ने कहा कि उनका जीवन बहुत ज़्यादा संघर्षपूर्ण है। केवल 13 प्रतिशत लोगों ने अपने आपको खुशहाल बताया। यह पूरी स्थिति आई.एल.ओ. की रिपोर्ट में दूसरे रूप में दिखती है जिसके अनुसार मन्दी के बाद अगर कुछ देशों की अर्थव्यवस्था पटरी पर आती भी है तो नौकरियों की स्थिति में सुधार होने की गुंजाइश कम ही है। आई.एल.ओ. के अनुसार 2009-2010 की मन्दी के दौरान दुनिया भर में रोज़गार गँवाने वाले करीब पाँच करोड़ लोग अभी भी बेरोज़गार हैं और अपनी रिपोर्ट ‘वर्ल्ड ऑफ वर्क रिपोर्ट 2012: ‘बेटर जॉब्स फॉर ए बेटर इकॉनमी’ में उसने इस पूरी स्थिति को गम्भीर बताया है। स्पष्ट है कि विश्व पूँजीवादी व्यवस्था तेज़ी से एक बन्द गली की ओर बढ़ रही है।

पूँजीवादी स्वर्ग के तलघर की सच्चाई

ग़रीबी रेखा सम्बन्धी प्राप्त आकड़ों के अनुसार 34 करोड़ की कुल अमेरिकी जनसंख्या में करीब 5 करोड़ लोग ग़रीबी-रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं और अन्य 10 करोड़ इस बस ऊपर ही है, यानी करीब आधी आबादी भयंकर ग़रीबी का शिकार है। खाद्य उपलब्धता सम्बन्धी आँकड़ों के बारे में अमेरिकी सरकार के कृषि विभाग के अनुसार हर चार में एक अमेरिकी नागरिक भोजन सम्बन्धी दैनिक ज़रूरतों के लिए राज्य सरकार एवं विभिन्न दाता एंजेसियों द्वारा चलाये जा रहे खाद्य योजनाओं पर निर्भर है, क्योंकि वह अपनी आय से दो जून की रोटी ख़रीद पाने में अक्षम है। अगर शिक्षा की बात की जाये तो एक उदाहरण के जरिये चीज़ें समझना ज़्यादा आसान होगा। बर्कले विश्वविद्यालय का एक छात्र, आज करीब 11,160 डॉलर प्रति वर्ष शिक्षा शुल्क के तौर पर अदा करता है; आज से दस साल पहले वो 2,716 डॉलर ख़र्च करता था और उम्मीद है कि 2015-16 तक वह 23,000 डॉलर अदा करेगा।

साम्राज्यवाद का निकट आता असंभाव्यता बिन्दु

यूरोज़ोन के संकट ने दिखला दिया है कि ये आर्थिक संकट निकट भविष्य में दूर होने वाला नहीं है। इस संकट से तात्कालिक तौर पर निजात पाने के लिए उत्पादक शक्तियों का विनाश करना पूँजीवाद के चौधरियों के लिए तेज़ी से एक बाध्यता में तब्दील होता जा रहा है। आने वाले समय में अगर विश्व के किसी कोने में युद्ध की शुरुआत होती है तो यह ताज्जुब की बात नहीं होगी। साम्राज्यवाद का अर्थ है युद्ध। और भूमण्डलीकरण साम्राज्यवाद की अन्तिम मंजिल है, जहाँ यह अपने सबसे पतनशील और विध्वंसक रूप में मौजूद है। अपनी उत्तरजीविता के लिए उसे मानवता को युद्धों में झोंकना पड़े तो भी वह हिचकेगा नहीं। इराक युद्ध, अफगानिस्तान युद्ध, अरब में चल रहा मौजूदा साम्राज्यवादी हस्तक्षेप इसी सच्चाई की गवाही देते हैं। यूरोज़ोन का संकट पूरे साम्राज्यवादी विश्व के समीकरणों में बदलाव ला रहा है। चीन का एक बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के तौर पर उदय, नयी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ताक़त का बढ़ना, रूस का पुनरुत्थान, ये सभी कारक इसके लिए ज़िम्मेदार हैं और ये भी नये और बड़े पैमाने पर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा शुरू होने की सम्भावना पैदा कर रहे हैं।

मिस्र में जनता सैन्य तानाशाही के खि़लाफ़ सड़कों पर

सैन्य शासकों को यह लग रहा है कि किसी भी किस्म के सांगठनिक प्रतिरोध की कमी के कारण वह स्वतःस्फूर्त प्रदर्शनों को कुचल सकते हैं। एक हद तक यह प्रक्रिया कुछ समय के लिए वाकई चल सकती है। लेकिन मिस्र के क्रान्तिकारी भी इस बीच एकजुट होने का प्रयास कर रहे हैं और आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथों में लेने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन फिलहाल राजनीतिक और विचारधारात्मक कमज़ोरियों के कारण यह सम्भव नहीं हो पा रहा है। इस ख़ाली जगह को फिलहाल धार्मिक कट्टरपंथी और उदार पूँजीवाद के पक्षधर भर रहे हैं।