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कश्मीर: यह किसका लहू है कौन मरा!

भारतीय राज्यसत्ता द्वारा सारी कश्मीर की अवाम को आतंकी के रूप में दिखाने की कोशिश कश्मीरी जनता के संघर्ष को बदनाम करने और कश्मीर में भारतीय राज्यसत्ता के हर जुल्म को जायज ठहराने की घृणित चाल है। पिछले लगभग छ: दशकों से भी अधिक समय के दौरान भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी जनता के दमन, उत्पीड़न और वायदाखि़लाफ़ी से उसकी आज़ादी की आकांक्षाएँ और प्रबल हुई हैं और साथ ही भारतीय राज्यसत्ता से उसका अलगाव भी बढ़ता रहा है। बहरहाल सैन्य दमन के बावजूद कश्मीरी जनता की स्वायत्तता और आत्मनिर्णय की माँग कभी भी दबायी नहीं जा सकती। मगर यह बात भी उतनी ही सच है कि पूँजीवाद के भीतर इस माँग के पूरा होने की सम्भावना नगण्य है। भारतीय शासक वर्ग अलग-अलग रणनीतियाँ अपनाते हुए कश्मीर पर अपने अधिकार को बनाये रखेगा। भारत और पाकिस्तान दोनों के शासक वर्ग अपने हितों को साधने के नज़रिये से कश्मीर को राष्ट्रीय शान का प्रश्न बनाए रखेंगे।

पूँजीवादी जनवाद के खाने के दाँत

पूँजीवादी व्यवस्था में संसद, विधानसभाएँ आदि तो केवल दिखाने के दाँत होते हैं जो जनता को दिग्भ्रमित करने के लिए खड़े किए जाते हैं। “लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था”, “लोकतंत्र के मजबूत खंभे” जैसी लुभावनी बातों से जनता की नज़रों से सच्चाई को ओझल करने की कोशिश की जाती है। पूँजीवादी जनवाद की असलियत यह है कि वह 15 प्रतिशत मुनाफ़ाखोरों का जनवाद होता है और 85 प्रतिशत आम जनता के लिए तानाशाही होता है। इसी तानाशाही को पुलिस, कानून, कोर्ट-कचहरी, जेल आदि मूर्त रूप प्रदान करते हैं जो पूँजीवादी व्यवस्था के खाने के दाँत की भूमिका अदा करते हैं।

ये महज़ हादसे नहीं, निर्मम हत्याएँ हैं

गत 27 फरवरी को उत्तरप्रदेश के सोनभद्र जिले के बिली – मारकुण्डी खनन क्षेत्र के बग्घानाला रोड के निकट अवैध खनन के समय पहाड़ी धँसने के कारण करीब नौ मज़दूरों की मौत हो गयी और दर्जनों मज़दूर गम्भीर रूप से घायल हो गये। जहाँ हादसा होने के बाद स्थानीय प्रशासन को तुरन्त हरकत में आना चाहिए था वहीं उसका रवैया अत्यन्त उपेक्षापूर्ण बना रहा। शवों को मलबे से बाहर निकालने से लेकर राहत कार्य को अंजाम देने तक में प्रशासन ने पर्याप्त कदम नहीं उठाये। ग़ौरतलब है कि मौके पर न तो कोई बड़ा अधिकारी और न ही कोई विशेषज्ञ मौजूद था। घटनास्थल पर मौजूद कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार खदान संचालक फ़ौजदार सिंह ने दो शवों को आनन-फानन में बाहर निकलवाने के बाद कहीं भिजवा दिया। बाद में घटना की भयावहता को देखते हुए वह ख़ुद भी फ़रार हो गया।

एक शर्मनाक फैसले की हकीकत

क्या आप संवेदनशील, न्यायप्रिय और इंसाफ़पसन्द हैं? क्या अन्याय के विरुद्ध विद्रोह को आप न्यायसंगत समझते हैं? क्या शोषण के खिलाफ होने वाली बग़ावत को आप सही मानते हैं? अगर इन सवालों का जवाब हाँ है तो सावधान! किसी भी क्षण आपको ‘‘गुण्डा’’ घोषित कर समाज के लिए ख़तरनाक बताया जा सकता है! अभी हाल में ऐसी ही एक शर्मनाक घटना गोरखपुर जिले में सामने आयी।

नया आतंकवाद-विरोधी कानून – असली निशाना कौन?

इस कानून की चपेट में इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवादी ताकतें कितनी आएँगी यह तो समय बताएगा लेकिन पहले के आतंकवाद-विरोधी कानूनों की चपेट में कौन आया है इसका इतिहास गवाह है। पोटा और टाडा जैसे कानूनों के निशाने पर सबसे अधिक जनपक्षधर ताक़तें, क्रान्तिकारी संगठन और अल्पसंख्यक समुदाय की ग़रीब जनता आयी। इस कानून के साथ भी ऐसा ही होगा यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है। अतीत का अनुभव बताता है कि यह व्यवस्था सामाजिक बदलाव की इच्छा रखने वाले लोगों की गतिविधियों पर आतंकवाद का लेबल चस्पाँ कर उनकी राह में बाधा पैदा कर जनता को संगठित करने के काम को रोकना चाहती है।

सूचना प्रौद्योगिकी सेक्टर में रोज़गार के अवसर: किसके लिए?

इस व्यवस्था का मकसद सबको रोज़गार देना है ही नहीं। इसलिए शिक्षा को लगातार महँगा किया जा रहा है ताकि एक व्यापक हिस्से को पहले ही कॉलेजों में आने से रोका जाए। यूँ तो अर्थव्यवस्था के बढ़ते वृद्धि दर का भोंपू लगातार बजाया जा रहा है पर अब तो सरकार भी बड़ी बेशर्मी से यह कहती है कि जो विकास हो रहा है वह ‘‘रोज़गारविहीन विकास’’ है। अब यह सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह सबको रोज़गार मुहैया कराये। इसलिए जल्द से जल्द इस इस बात को समझने की ज़रूरत है कि उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला हो पाने के बावजूद आम घरों के लड़के-लड़कियों को रोज़गार मिलने की गारण्टी नहीं है। क्योंकि ये रोज़गार के अवसर उस ‘‘कुलीन’’ मध्यमवर्ग के लिए है जिनके पास पैसे की कोई कमी नहीं है। वैसे भी पूँजीवादी व्यवस्था में तो हर चीज़ माल की तरह बेची जाती है, इसलिए शिक्षा भी माल का रूप अपना लेती है-यानी जिसकी औकात हो, वो आकर खरीदे उसे! और जो खरीद नहीं सकता वह ज़िन्दगी भर सड़कों पर चप्पलें फ़टकारता फ़िरे! इसलिए साधारण परिवेश से आए छात्र जो सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपना सुरक्षित भविष्य तलाश रहे हैं, उनके लिए ज़रूरी है कि इस क्षे़त्र में बढ़ते रोज़गारों का जो धूम्रावरण खड़ा किया गया है, उसे हटाकर सच्चाई पहचानने की कोशिश करे।